समाजकार्यस्थल कूड़ा बीनने वाली महिला मजदूरों की समस्याएं और चुनौतियाँ

कूड़ा बीनने वाली महिला मजदूरों की समस्याएं और चुनौतियाँ

दिल्ली के सराय काले खां बस स्टॉप से अंदर के तरफ दो किलोमीटर की दूरी पर एक बस्ती है। एक गाड़ी खड़ी दिखती है। उस गाड़ी के अंदर बोरे में भरकर कबाड़ आया है। इसे कुछ लोग मिलकर उतार रहे हैं। बाकी लोग अलग-अलग समूह में बैठकर कबाड़ छाट रहे हैं। उनमें से किसी के हाथ में न ग्लब्स है न चेहरे पर कोई मास्क लगा हुआ है।

भारत में जब बात होती है महिलाओं के कार्यबल में भागीदारी की, तो एक बड़ा समुदाय इससे बाहर रह जाता है। इसमें असंगठित क्षेत्र में काम कर रही महिलाएं लगभग बाहर रह जाती हैं। ऐसा ही एक वर्ग है कूड़ा बीनने वाली महिलाओं की जिन्हें समाज ने खुद से अलग-थलग कर रखा है। न तो इन्हें उचित सम्मान मिलता है, न ही काम में सुरक्षा और न ही पुरुषों के समान वेतन। हाशिये पर रह रहा यह समुदाय सामाजिक सुरक्षा से कोसों दूर हैं। ऐसी ही एक कूड़ा बीनने वाली महिला के जीवन के माध्यम से हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि उनके रोजमर्रा का जीवन कैसा है, क्या समस्याएं हैं और आगे का रास्ता क्या हो सकता है। भारत में कचरा बीनने वालों की संख्या लगभग 1.5 मिलियन से 4 मिलियन के बीच अनुमानित है। दिल्ली में ही 500,000 से अधिक कूड़ा बीनने वाले हैं।

दिल्ली के सराय काले खां बस स्टॉप से अंदर के तरफ दो किलोमीटर की दूरी पर एक बस्ती है। एक गाड़ी खड़ी दिखती है। उस गाड़ी के अंदर बोरे में भरकर कबाड़ आया है। इसे कुछ लोग मिलकर उतार रहे हैं। बाकी लोग अलग-अलग समूह में बैठकर कबाड़ छाट रहे हैं। उनमें से किसी के हाथ में न ग्लब्स है न चेहरे पर कोई मास्क लगा हुआ है। कांच से हाथ कट जा रहा है। लेकिन वो फिर भी काम में लगे हुए हैं। सामने बैठी एक महिला प्लास्टिक का प्लेट हाथ में उठाते हुए कहती हैं, “आप लोग जो फ़ास्ट फ़ूड खाते हैं, उसी का प्लेट है। यह रिसाइक्लिंग के लिए जाएगा।” कबाड़ काफी पुराना लग रहा है। उसकी वजह से बदबू बहुत ज्यादा आ रही है। चारों तरफ मक्खियां भिनभिना रही है। वहां पर खड़ा होना भी बहुत मुश्किल हो रहा है। ऐसे में वहां काम कर रहे मजदूर सुबह के नौ बजे से शाम के छः बजे तक काम करते हैं।

हम पुराने सोच के लोग हैं। मन में यह बात आती तो है और बुरा भी लगता है कि काम तो एक ही है। पर हमें कम क्यों दिया जा रहा है। लेकिन बहुत लोग इस बात से मतलब नहीं रखते हैं।

गरीबी की मार झेलते मजदूर

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

इन्हीं मजदूरों के बीच ज़रीना भी काम करती हैं। ज़रीना हरियाणा की रहने वाली हैं। उनकी उम्र लगभग चालीस साल है। जब वह 16 साल की थी तब उनकी शादी दिल्ली में हो गई थी। दस साल से वो कूड़ा बीनने का काम कर रही हैं। उनका कहना हैं, “मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं। परिवार की बढ़ती जिम्मेदारियों के कारण इस क्षेत्र में काम करना पड़ा था।” वह बताती हैं कि जब उन्होंने दस साल पहले काम की शुरुआत की थी, तब उन्हें  60 रुपए मिलता था। अभी जहां वो काम करती हैं, वहां उन्हें 200  रुपया मिलता है। लेकिन उसी काम को साथ में उनके पति भी करते हैं और उन्हें  500 रुपए मिलते हैं।

एक समान काम के लिए अलग वेतन

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

बराबर काम करने के बाद भी ज़रीना को कम वैतनिक मिलता है। इस विषय पर पूछे जाने पर वह बताती हैं, “हम पुराने सोच के लोग हैं। मन में यह बात आती तो है और बुरा भी लगता है कि काम तो एक ही है। पर हमें कम क्यों दिया जा रहा है। लेकिन बहुत लोग इस बात से मतलब नहीं रखते हैं। मुझे तो बस यह लगता है कि अगर परिवार में इज़्ज़त और पति के सामने हाथ न फैलाना हो तब काम करना ही चाहिए। हालांकि औरतों को हमेशा ही दबाया गया है। लेकिन मुझे अपने काम से मतलब है। इसलिए, मैं मेहनत करती हूं।” उनके रोजाना के काम के विषय पर पूछे जाने पर वह बताती हैं कि उनकी सुबह 5 बजे से शुरू होती है। जागने के बाद वह घर–आँगन में झाड़ू लगाती हैं। घर के कामों में मवेशियों के लिए चारा लेने खेत चली जाती हैं। मवेशियों को चारा देकर फिर रसोई के कामों में लग जाती हैं। परिवार में दस लोग रहते हैं, जिनके लिए उन्हें खाना बनाना होता है।

घर का सारा काम अकेले करती हूँ। कोई मदद करने वाला नहीं है। चार बच्चें है। एक बेटी की शादी हो गई है और दूसरी बेटी पढ़ने की इच्छा रखती हैं।

औरतों पर घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी

दो सौ रुपया कमाने के लिए ज़रीना 20 किलोमीटर (बदरपुर से सराय काले खां) की दूरी बस से तय करती हैं। वो बताती हैं, “घर का सारा काम अकेले करती हूँ। कोई मदद करने वाला नहीं है। चार बच्चें है। एक बेटी की शादी हो गई है और दूसरी बेटी पढ़ने की इच्छा रखती हैं। वो जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी की हैं। अभी जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में रेसलिंग की प्रैक्टिस भी करती हैं। दोनों बेटे तो सुनते ही नहीं है, और पति मेरे साथ ही काम करने जाते हैं। इसलिए, घर के काम में कोई भी मदद नहीं करता है। सदियों से यह परंपरा बना दिया गया कि घर का काम महिलाएं ही करेंगी। हालांकि आजकल घरों में पति भी काम कर रहे हैं। लेकिन हम तो अभी भी शर्म के मारे नहीं कहते हैं। भले ही अब महिलाएं पुरुषों के साथ बाहर भी बराबर काम कर रही है। लेकिन पुरुष आज भी घर में महिलाओं का साथ नहीं देते हैं।”

कितना कठिन है मैनुयली कूड़ा बीनने का काम  

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

ज़रीना को यहां काम करते हुए पांच साल हो गए हैं। वह बताती हैं कि उनका काम बोरे में रखे कबाड़ को निकाल कर सभी पदार्थ को अलग-अलग करना है। शुरूआती दिनों को याद करते हुए वो कहती हैं, “जब वह पहली बार काम करने के लिए आई थी तब बहुत कठिन लगता था। घिन आती थी। शुरू के एक महीना तो ऐसा रहा कि खाना खाने पर स्वाद ही नहीं मिल पाता था। सर में दर्द हो जाता था, उलटी होती थी। लेकिन अब काम करते हुए बहुत साल हो गए हैं तो अब बहुत असर नहीं होता है। पर लगभग रोज सरदर्द की दवा खानी पड़ती है।”

जब वह पहली बार काम करने के लिए आई थी तब बहुत कठिन लगता था। घिन आती थी। शुरू के एक महीना तो ऐसा रहा कि खाना खाने पर स्वाद ही नहीं मिल पाता था। सर में दर्द हो जाता था, उलटी होती थी। लेकिन अब काम करते हुए बहुत साल हो गए हैं तो अब बहुत असर नहीं होता है। पर लगभग रोज सरदर्द की दवा खानी पड़ती है।

आगे की पीढ़ी का क्या है भविष्य

वह कहती हैं, “हमारा जीवन जैसा भी रहा हो, लेकिन आगे की पीढ़ी सँवर जाए, इसलिए मै यहां काम करने आती हूं। पढ़ाई नहीं करने के कारण सही जगह पर काम नहीं मिलता है। पूरे दिन इतनी मेहनत के बावजूद भी मेहनताना और इज़्ज़त दोनों नहीं मिलता। उसके बाद महंगाई इतनी है। जीवन कैसे चलाएगा एक मजदूर वर्ग समझ नहीं आता है।” छुट्टी और अन्य सामाजिक सुरक्षा के विषय पर पूछे जाने पर वह बताती हैं, यहां काम करते हुए एक दिन की छुट्टी भी नहीं मिलती है। अगर हम एक दिन बीमार पड़ जाए, तो उस दिन का पैसा नहीं मिलता है। या फिर कई बार ऐसा होता है हम काम पर आते हैं और यहाँ आने पर बीमार हो जाएं तो आधा दिन काम करने के बाद भी उस दिन का मेहनताना नहीं मिलता है।”

काम पर सुरक्षा के लिए कुछ नहीं  

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

वह आगे बताती हैं, “काम करते हुए पूरे दिन में कई बार हाथ कट जाते हैं। पर काम रोक नहीं सकते। इसलिए, मिटटी लगाकर खून रोकते हैं हर छः महीने पर एक सुई ले लेते हैं। ग्लब्स लगाने से एक तो घुटन जैसा महसूस होता है। दूसरा उसके लिए अपने पास से पैसा खर्च करना पड़ता है। इसलिए नहीं पहनते हैं।” आगे कहती हैं, “शाम के समय जब घर जाती हैं, तो घर पहुंचने में ढेर घंटा तो लग ही जाता है। लेकिन बस में कई बार सीट नहीं मिलती। ऐसे में घर जाकर इतना थक जाती हूं कि कुछ करने का मन नहीं होता है। बावजूद इसके घर के काम करने होते हैं। मेरी बेटी रेसलिंग में जाना चाहती है। मैं चाहती हूँ कि जो मेहनत कर रही हूँ उसका कुछ फायदा हो।”

पढ़ाई नहीं करने के कारण सही जगह पर काम नहीं मिलता है। पूरे दिन इतनी मेहनत के बावजूद भी मेहनताना और इज़्ज़त दोनों नहीं मिलता। उसके बाद महंगाई इतनी है। जीवन कैसे चलाएगा एक मजदूर वर्ग समझ नहीं आता है।

कानूनन सुरक्षा की कमी

हालांकि कचरा बीनने वालों को राज्य नगर पालिकाओं द्वारा देश भर में कचरे के ढेर से कचरा इकट्ठा करने, अलग करने और बेचने की कानूनी रूप से अनुमति नहीं है, और इसे भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत चोरी करने वाला माना जाता है। लेकिन इसके बावजूद हजारों लोग ऐसे कामों में लगे हुए हैं। शिक्षा की कमी, जातिगत और सामाजिक भेदभाव इन्हें समाज के मूलधारा से जुड़ने का मौका नहीं देती। खतरनाक परिवेश में काम करने से, कचरे के लगातार संपर्क में रहने के कारण, कचरा बीनने और अलग करने वाले लोगों को त्वचा रोग, सांस लेने संबंधित रोग, कटने और सुई से घाव और यहां तक कि एचआईवी होने का खतरा भी रहता है। लेकिन मान्यता न मिलने के कारण कचरा बीनने और साफ करने वाले लोग अक्सर सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं से भी बाहर रहते हैं। समय की मांग एक कचरा बीनने वाले के लिए ऐसे कानून का निर्माण हो जो कचरा बीनने को एक वास्तविक पेशे के रूप में मान्यता दे और यह सुनिश्चित करे कि कचरा बीनने वालों के अधिकारों और जरूरतों को पहचाना और संबोधित किया जाएगा।

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