इंटरसेक्शनल जानें कैसे शुरू हुआ भारत का पहला नारीवादी पब्लिशिंग हाउस?

जानें कैसे शुरू हुआ भारत का पहला नारीवादी पब्लिशिंग हाउस?

1984 की शुरुआत में रितु मेनन और उर्वशी बुटालिया ने 'काली फॉर विमेन' शुरू किया। इन दोनों महिलाओं ने एक प्रेस शुरू किया जो न केवल भारतीय प्रकाशन में बल्कि दक्षिण एशिया में नारीवादी लेखन के बड़े पैमाने एक बड़ा कदम साबित हुआ।

दुनिया भर की तमाम व्यवस्थाओं में पुरुषों का वर्चस्व है। हर क्षेत्र में पुरुषों का एकाधिकार रहा है जिसमें महिलाओं ने समय के साथ आगे बढ़ते हुए अपनी जगह बनाई है और आज भी बना रही हैं। कला, साहित्य, विज्ञान की तरह प्रकाशन की दुनिया में भी पुरुषों का वर्चस्व रहा है। महिला लेखकों को अपने बात कहने के लिए तमाम संघर्षों का समना करना पड़ा है। अपनी पहचान छिपाकर लिखना पड़ा है। लेकिन महिलाओं ने प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी जगह की ज़रूरत को समझा और इस दिशा में कदम बढ़ाने शुरू किए। इस दिशा में नारीवादी महिलाओं ने आगे बढ़कर काम करना शुरू किया। भारत में नारीवादी प्रकाशन शुरू हुए और जिन्होंने महिलाओं के मुद्दों से जुड़ा प्रकाशन शुरू किया। नारीवाद प्रकाशन मुख्यतः महिलाओं द्वारा अकादमिक पेपर, कहानी, संस्मरण आदि छापते हैं। महिलाओं मुद्दों को उनके नज़रिये को सामने रखने में नारीवादी प्रकाशकों की बहुत उपयोगिता है। 

भारत में नारीवाद का इतिहास मुख्य रूप से उन्नसवीं और बीसवीं सदी के बीच तीन युगों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण उन्नीसवीं सदी के मध्य से 1920 तक फैला हुआ है। भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान, शुरुआती समय में पुरुष समाज सुधारकों के नेतृत्व में था। धीरे-धीरे भारत में नारीवादी आंदोलन का विस्तार होता रहा और हर दौर में इसमें अलग-अलग मुद्दों को उठाया गया। 1980 के दशक में भारतीय नारीवादी आंदोलन में एक स्पष्ट पुनरुत्थान देखा गया और यह दशक भारत में पहले नारीवादी पब्लिशिंग हाउस का उदय का प्रतीक बना। 

महिलाओं के मुद्दों को पहचानते हुए उनका समर्थन करते हुए जुबान, वुमेन अनिलिमिटेड, तारा बुक्स, तूलिका बुक्स, स्त्री, साम्या, अस्मिता जैसे प्रकाशन ने इस काम को आगे बढ़ाया और नारीवादी प्रकाशन के लिए एक रास्ता तय किया। वे यथास्थितियों को चुनौती देते हुए और आधुनिक नारीवादी काम को प्रकाशित करने का काम किया।

भारत का पहला नारीवादी प्रकाशन

1984 की शुरुआत में रितु मेनन और उर्वशी बुटालिया ने ‘काली फॉर विमेन’ शुरू किया। इन दोनों महिलाओं ने एक प्रेस शुरू किया जो न केवल भारतीय प्रकाशन में बल्कि दक्षिण एशिया में नारीवादी लेखन के बड़े पैमाने एक बड़ा कदम साबित हुआ। हालांकि उन दोनों को उस समय इस फैसले के बाद यह तक सुनने को मिला कि वे सयोंग मात्र से प्रकाशन की दुनिया में आई। 1980 के दशक में नारीवादी प्रकाशन और सक्रियता को मजबूत करने के बारे में एक इंटरव्यू में काली की सह-संस्थापक रितु मेनन का कहना है, “नारीवादी प्रेस न केवल महिला आंदोलन का हिस्सा थे, बल्कि प्रिंट आंदोलन में महिलाओं को भी शामिल किया गया था। प्रिंट आंदोलन में महिलाओं में बेशक प्रकाशक शामिल थे लेकिन लाइब्रेरियन, बुकसेलर, डिज़ाइनर, प्रिंटर, बाइंडर और एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क का पूरा सहायता समूह भी शामिल था जिससे ने केवल एकजुटता बल्कि समर्थन भी दिया।”  

तस्वीर साभारः Hindustan Times

जिस साल मेनन और बुटालिया ने काली फॉर विमेन की स्थापना की थी उसी वर्ष उन्होंने प्रकाशन के क्षेत्र में उभर रहे वैश्विक नारीवादी नेटवर्क में भी हिस्सा लिया। 1984 में भारत के नारीवादी प्रकाशन को वास्तविकता के दायरे में लाने में महत्वपूर्ण रहा। यह भारत में अग्रणी नारीवादी पब्लिशिंग था और नारीवादी की आवाज़ को कैसे सुना जाएगा, उनका प्रतिनिधित्व किया जाएगा और देश की प्रिंट संस्कृति में नारीवादी कहानियां कैसे उभरेगी इसकी दिशा तय करने में महत्वपूर्ण रहा। 1984 में लंदन में पहले अंतरराष्ट्रीय नारीवादी पुस्तक मेले में काली फॉर विमेन का शामिल होना भारत मे शुरुआती नारीवादी प्रिंट के क्षेत्र को उभारने और अधिक मजूबती प्रदान करने वाला कदम था। 

काली की प्रकाशित किताबें

राधा कुमार की ‘द हिस्ट्री ऑफ डूइंग’ और वंदना शिवा की ‘स्टेइंग अलाइव’ किताब काली पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुई। शुरुआती वर्षों में महत्वपूर्ण काम में ‘रीकास्टिंग वीमेनः एसेज इन इंडियन कोलोनियल हिस्ट्री’, सुदेश वैद और कुमकुम सांगरी द्वारा संपादित (1989) शामिल थी। काली फॉर विमेन ने ज्यादातर किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित की लेकिन हिंदी के साथ-साथ स्थानीय भाषा में भी क्रांतिकारी प्रकाशन किया। शरीर के बारे में जानकारी हिंदी में प्रकाशित की। शरीर की जानकारी (1989) राजस्थान की 75 ग्रामीण महिलाओं द्वारा लिखी गई थी और उनके द्वारा गाँवों में विशेष मूल्य पर भेजी गई थी। इस किताब में सेक्स और महिलाओं के शरीर के बारे में बेहद स्पष्ट जानकारी थी जिसमें मेंस्ट्रुएल स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी जैसे मुद्दे शामिल थे।  

लगभग दो दशक तक काली फॉर विमेन चलाने लेखन, नारीवादी लेखन, साहित्य का बड़ा संग्रह बनाने के बाद साल 2003 में यह जोड़ी अलग हो गई और इससे दो नये पब्लिशिंग हाउस निकले। बुटालिया ने जुबान बुक्स (2004) और मेनन ने वुमेन अनिलिमेटिड (2004) की शुरुआत की। इन दोनों पब्लिशिंग हाउस ने नारीवाद पर काम जारी रखा है। वे नारीवादी की नज़र से मुद्दों को परिभाषित करने और उपमहाद्वीप और उससे जुड़े लेखन को भारत से आगे बढ़ाकर आजतक जारी रखे हुए हैं। 

नारीवादी प्रकाशन का इतिहास न केवल स्वाभाविक रूप से दिलचस्प रहा है बल्कि अत्यंत महत्वपूर्ण भी रहा है। महिलाओं के मुद्दों को पहचानते हुए उनका समर्थन करते हुए जुबान, वुमेन अनिलिमिटेड, तारा बुक्स, तूलिका बुक्स, स्त्री, साम्या, अस्मिता जैसे प्रकाशन ने इस काम को आगे बढ़ाया और नारीवादी प्रकाशन के लिए एक रास्ता तय किया। वे यथास्थितियों को चुनौती देते हुए और आधुनिक नारीवादी काम को प्रकाशित करने का काम किया। नारीवादी पब्लिशिंग हाउसों ने बाजार में हिस्सदारी के लिए मुख्यधारा के पब्लिशिंग इंडस्ट्री के साथ बाचतीत करने के लिए निरतंर संघर्ष करते हैं। 

भारत में नारीवादी लेखन किसी विशिष्ट नारीवादी सिंद्धात से विकसित नहीं हुआ था बल्कि इसमें समय के साथ-साथ लेखन के विभिन्न रूप सामने आए। भारत में पहला नारीवादी पब्लिशिंग हाउस उभरा। उसने भारतीय महिलाओं के अनुभवों को आकार दिया और व्यक्त किया। महिलाओं की आवाज़ों को एक मंच देने का काम किया। महिलाओं की अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसी भाषा विकसित किय जो उनके अनुभवों को दर्ज और मजबूत कर सकें। भारत में महिला आंदोलनों में लैंगिक समानता तक के बड़े बदलाव का पता लगाता है। नारीवादी प्रकाशन धीरे-धीरे महिलाओं के अनुभवों को सामने रखने पर ध्यान देने पर केंद्रित करते हुए तैयार हुआ जिससे हमारे दैनिक जीवन, व्यापक राजनीति और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों पर लैंगिक प्रकृति को देने का एक तरीका पेश किया। 

तस्वीर साभारः mezosfera.org

नारीवादी प्रकाशन ने नारीवाद को लेकर फैली भ्रांतियों को खत्म करने का भी काम किया। 1986 में काली द्वारा पब्लिश नारीवाद और दक्षिण एशिया में इसकी प्रासंगिकता पर कमला भसीन और निगहत सईद खान ने ‘सम क्वेश्चन ऑन फेमिनिज़म एंड इट्स रेवलेंस’ ने नारीवाद को लेकर फैली भ्रांतियों को तोड़ने और कुछ प्रासंगिक सवालों के जवाब देने का प्रयास किया। 1980 के दशक में दौरान पुस्तिकाएं और पैम्फलेट और इस तरह की अन्य सामग्री नारीवादी प्रकाशन के महत्वपूर्ण तरीके थे। नारीवाद प्रकाशन से जारी जानकारी महिलाओं और पुरुषों के लिए नारीवाद को एक विचारधारा के रूप में तलाशने, समझने और अपनाने के तौर पर उभरी। जब नारीवाद प्रकाशन की किताबें दुकानों, कार्यशालाओं आदि जगह पर बांटी गई तो लोगों क के लिए अनदेखा करना मुश्किल रहा। नारीवादी सक्रियता, लेखन और प्रकाशन के बीच गहरे संबंधों ने आलोचनात्मक एकजुटता को मजबूत किया है और विविध आवाज़ों को आकार देने और उन्हें आगे बढ़ाने का काम किया है।


स्रोतः

  1. Pratham books
  2. mezosfera.org
  3. Press(ing) Business: Decoding Feminist Publishing In India

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