25 मई को अयोध्या (फ़ैज़ाबाद लोकसभा क्षेत्र) में वोटिंग थी। इस सिलसिले में मेरे भाई भी वोट देने के लिए मेरे गांव गए थे। वोट वाले दिन मेरे भाई से बातचीत के दौरान मेरे बड़े अब्बा, जो 80 साल की उम्र के करीब पहुंच रहे हैं, ने चिंताजनक लहज़े में कहा, “कौन हारेगा और कौन जीतेगा यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन सरकार चाहे जिसकी भी बने लोगों के मन में मुसलमानों को लेकर जो सालों से इतनी नफ़रत भर दी गई है, वह इतनी जल्दी नहीं जानेवाली।”
अगर हम मई के बाद के अगले ही महीने, यानी जून, में धर्म के आधार पर हुई नफ़रती हिंसा की घटनाओं पर ध्यान दें, तो मुसलमानों की लिंचिंग की अनेक घटनाएं सामने हैं। इन पर ग़ौर फ़रमाएं तो हम पाएंगे कि उस बुजुर्ग इन्सान का अंदाज़ा कितना सही था। चुनावी नतीजों में भले ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और विपक्षी दलों ने चुनावी नतीजों को लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जीत घोषित किया। लेकिन मुसलमानों के प्रति होनेवाली हिंसा में कोई कमी नहीं आई। बीजेपी ने दसियों साल से कथित रूप से जो मुस्लिम-विरोधी जो एजेंडा अपनाया उसका असर बरकरार है।
कौन हारेगा और कौन जीतेगा यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन सरकार चाहे जिसकी भी बने लोगों के मन में मुसलमानों को लेकर जो सालों से इतनी नफ़रत भर दी गई है, वह इतनी जल्दी नहीं जानेवाली।
4 जून से लेकर अब तक हुई मुसलमानों की लिंचिंग की घटनाएं
चुनावी नतीजे आने के महज़ दो दिन बाद, यानी 7 जून 2024 को रायपुर जिले के आरंग में देर रात ट्रक में भैंसों को सहारनपुर से ओडिशा ले जा रहे तीन मुस्लिम युवकों की कथित रूप से 10-12 युवकों ने पिटाई की। इनमें से एक को उन्होंने महानदी में फेंक दिया और जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बाद में अन्य दो युवकों की भी इलाज के दौरान मौत हो गई। इस घटना के 15 दिन बाद पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ़्तार किया।
18 जून, 2024 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में 35 वर्षीय मुस्लिम युवक को भीड़ ने कथित तौर पर चोर समझकर लाठियों और लोहे की रॉड से पीट-पीटकर मार डाला। मॉब लिंचिंग के शिकार युवक को न्याय दिलाना तो दूर, 29 जून को अलीगढ़ पुलिस ने मृतक और आठ अन्य लोगों के खिलाफ़ डकैती का मामला दर्ज़ कर लिया।
22 जून 2024 को गुजरात के चिखोदरा में 23 साल के युवक क्रिकेट का टूर्नामेंट देखने गए थे, जहां भीड़ ने बेरहमी से पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी। उनका कसूर महज़ इतना था कि वे मुसलमान थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उस टूर्नामेंट में खेल रहे मुसलमान खिलाड़ी बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे, जो कि हिन्दुत्व समर्थकों को नागवार गुज़रा। ट्विटर पर इसका एक वीडियो भी सर्कुलेट हुआ।
कोलकाता में 28 जून को फोन चोरी के शक में भीड़ ने 37 वर्षीय टीवी मैकेनिक कथित रूप से बाँधकर, लाठी और डण्डों से बेरहमी से पिटाई की गई जिसके बाद उनकी मौत हो गई। वहीं 30 जून को झारखण्ड के कोडरमा में मस्जिद के एक इमाम को भीड़ ने कथित तौर पर पीट-पीटकर मार डाला। उनका कसूर सिर्फ़ इतना था कि उनकी बाइक ने एक ऑटो को टक्कर मार दी थी, जिसकी वजह से ऑटो में सवार एक महिला को मामूली चोटें आ गई थीं। हालांकि महिला ने भीड़ से आग्रह भी किया कि वे इमाम को न पीटें, लेकिन भीड़ ने उनकी एक न सुनी।
4 जुलाई को उत्तर प्रदेश के शामली में जलालाबाद के रहनेवाले मुस्लिम युवक की भीड़ ने चोरी के संदेह में पीट-पीटकर हत्या कर दी। बता दें कि 1 जुलाई से बीएनएस लागू हो जाने के बावजूद इस मामले में पुलिस ने धारा 105 यानी गैर इरादतन हत्या की धाराओं में केस दर्ज किया है। ग़ौरतलब है कि 4 जून के बाद से देश में कुल 12 लोग मॉब लिंचिंग का शिकार हुए और इनमें से 8 मुस्लिम थे।
क्यों लिंचिंग आज एक सामान्य अपराध बन गया है
‘लिंचिंग’ अंग्रेज़ी का शब्द है। सरल शब्दों में इसके मायने होते हैं ‘भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या।’ 2014 से पहले भारतवासियों के लिए यह शब्द जाना हुआ नहीं था। लेकिन आज हर कोई इससे परिचित है। बीजेपी के कार्यकाल में भारत में पहली लिंचिंग की घटना साल 2015 में उत्तर प्रदेश में दादरी के पास बिसाहड़ा गांव में 52 वर्षीय व्यक्ति के साथ हुई थी। यह हत्या घर में गोमांस रखने के संदेह पर की गई थी। ग़ौरतलब है कि 2014 में बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के महज़ एक साल के अंदर ही यह नृशंस हत्या हुई।
लिंचिंग की घटनाओं के बढ़ने के तार देश भर में बीजेपी के नेताओं द्वारा लगातार दिए जानेवाले मुस्लिम-विरोधी बयानों से जुड़े हैं। लिंचिंग महज़ किसी व्यक्ति की हत्या भर नहीं होती, यह हत्या से बढ़कर होती है। लिंचिंग भीड़ में सार्वजनिक स्थानों पर खुलेआम की जा रही है। इसके द्वारा अल्पसंख्यकों को यह संदेश दिया जाता है कि वे दबकर रहें और उनके मन में खौफ़ बैठाया जाता है। एक धर्म के खिलाफ राजनीतिक और सामाजिक असहिष्णुता फैलाने में सत्ता पर बैठे लोग भी जिम्मेदार हैं।
लिंचिंग के मामले गर्व का विषय आखिर क्यों
पिछले कुछ सालों में हुए मुसलमानों की लिंचिंग के मामलों पर ग़ौर करने पर हम पाएँगे कि लिंचिंग करनेवालों में गर्व का भाव होता है और तमाशबीन भीड़ उनकी हौसलाअफ़ज़ाई करती है और विशेष धार्मिक जयकार करती हुई नज़र आती है। संवेदनशीलता की सारी हदें पार करते हुए उसी भीड़ में से कुछ लोग इस बर्बरता का वीडियो भी बनाते हैं। यही नहीं लिंचिंग के कुछ मामलों में शामिल आरोपियों का जुर्म साबित हो जाने और उन्हें सजा हो जाने पर सतारूढ़ पार्टी के नेताओं द्वारा उन्हें जमानत दिलाए जाने और फूल-मालाओं से आरोपियों का स्वागत किए जाने के मामले भी हमने देखे हैं।
यह भी ध्यान देने की बात है कि हमें लिंचिंग के उन्हीं मामलों की जानकारी मिल पाती है, जो मीडिया कवरेज का हिस्सा बन जाते हैं, ऐसे भी कई मामले होंगे जो मीडिया कवरेज का हिस्सा ही नहीं बन पाते होंगे। ऐसा भी होता है कि जैसे-जैसे किसी घटना की बारम्बारता बढ़ती है, लोग उसके आदी होते चले जाते हैं। ऐसा ही कुछ लिंचिंग के मामलों के साथ भी हुआ है। बीजेपी के शासन में हुई पहली लिंचिंग की घटना पर जितना मीडिया कवरेज और विरोध हुआ, लिंचिंग की घटनाओं की बारम्बारता बढ़ने के साथ ऐसा कम होता गया।
क्या लिंचिंग पर नया कानून इसे रोकने में मददगार होगा?
अभी तक देश में लिंचिंग को लेकर कोई कानून नहीं था और देश में लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में केन्द्र सरकार को लिंचिंग के लिए एक अलग कानून पर विचार करने का निर्देश दिया था। हाल ही में भारत द्वारा नए कानून पारित किए गए हैं। इन्हीं कानूनों में से एक भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), की धारा 103 के तहत पहली बार नस्ल, जाति, भाषा, जन्म-स्थान, लिंग या समुदाय के आधार पर की गई हत्या को एक अलग अपराध के रूप में मान्यता दी गई है। इसमें ऐसे कृत्य में शामिल लोगों के लिए आजीवन कारावास, जुर्माने और मृत्यु की सजा का प्रावधान है। ये कानून 1 जुलाई से लागू हो चुके हैं। ग़ौरतलब है कि धारा 103 में दिए गए हत्या के आधारों में ‘धार्मिक’ आधार पर हत्या का ज़िक्र नहीं है। इसके साथ ही ‘मॉब लिंचिंग’ की जगह पर ‘मर्डर’ यानी ‘हत्या’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इसकी वजह से लिंचिंग से जुड़े मामलों की कार्रवाई पर असर पड़ सकता है।
लेकिन इससे पहले कि हम लिंचिंग को लेकर कानून लागू होने की खुशी मनाएं, हमें यह सोचना होगा कि कानून तो महिलाओं के साथ होनेवाली घरेलू हिंसा और बलात्कार जैसे अपराधों के लिए भी हैं, फिर भी इन अपराधों में कमी नहीं आई है, तो सिर्फ़ कानून होने से अपराध रुकते नहीं। लिंचिंग जैसे अपराधों से निपटने के लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जाने की ज़रूरत है। इस किस्म के मामलों, जिसमें एक समुदाय के मन में दूसरे समुदाय के प्रति नफ़रत भर दी जाए, को संबोधित करने के लिए लोगों के वैचारिक, मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्तर पर काम करने की ज़रूरत होती है। संवाद और चर्चाएं वैचारिक स्तर पर काम करने का एक तरीका हो सकते हैं ताकि भविष्य में भीड़ इस तरह के आपराधिक कृत्य न करें। लोगों को याद रखना होगा कि भारत एक लोकतंत्र है भीड़तंत्र नहीं। मॉब लिंचिंग से जुड़ा कानून कितना प्रभावी साबित होगा यह तो आनेवाला वक़्त ही बताएगा लेकिन क्या अपराध है और क्या नहीं, कौन अपराधी है और कौन नहीं, किसे कितनी सजा दी जाए इस सबका फैसला करने के लिए हमारे देश में पहले से एक न्याय व्यवस्था मौजूद है, भीड़ को इससे जुड़े फैसले लेने का अधिकार हरगिज़ नहीं है।