वैज्ञानिक सूचना प्रसारक एल्सेवियर के एक सर्वेक्षण के अनुसार, महिला शोधकर्ताओं की वृद्धि दर के मामले में भारत तीसरे स्थान पर है। रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि इस क्षेत्र में लैंगिक समानता वैश्विक स्तर पर ‘अस्वीकार्य रूप से बहुत दूर’ है। ‘शोध और नवाचार में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति-2024 समीक्षा’ नाम के इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दशक में मिस्र और नीदरलैंड के बाद, सक्रिय शोधकर्ताओं में महिलाओं की हिस्सेदारी में देश की वार्षिक वृद्धि दर दो प्रतिशत रही।
रिपोर्ट में विभिन्न विषयों और भौगोलिक क्षेत्रों में 20 वर्ष की अवधि में समावेशिता और विविधता की जांच की गई। इसमें पता चला कि भारत में सक्रिय शोधकर्ताओं में वर्तमान में 33 प्रतिशत महिलाएँ हैं, जबकि जापान में 22 प्रतिशत और मिस्र में 30 प्रतिशत महिलाएँ हैं। रिपोर्ट के अनुसार, भारत वर्तमान में दुनिया भर में अनुसंधान का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। सदियों से विज्ञान के क्षेत्र पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है। महिलाओं को बढ़ावा दिए जाने के बावजूद, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में महिलाओं की संख्या अभी भी सीमित है।
साइंस ग्रैजूइट में बढ़ोतरी के बावजूद स्टेम नौकरियों में कमी
स्टेम में महिलाओं और लड़कियों का कम प्रतिनिधित्व देश में नीति निर्माताओं के लिए एक चिंता का विषय रहा है। लेकिन पहले की तुलना में आज इस प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई है। उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी स्तर के कार्यक्रमों में नामांकन को ट्रैक करता है। इसके अनुसार महिला स्नातकों की संख्या साल 2014-15 में 38.4 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 42.6 प्रतिशत हो गई थी। सीधे शब्दों में कहें तो, भारत में दुनिया में सबसे अधिक महिला स्टेम स्नातक हैं। लेकिन विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, महिला स्टेम स्नातकों के उच्च अनुपात के बावजूद, भारत में स्टेम कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी एक तिहाई से भी कम यानी 27 प्रतिशत है।
विज्ञान में करिअर और सामाजिक रूढ़ियां
विज्ञान में करियर एक लंबी यात्रा है। आम स्नातक से बहुत अलग, जहां महिलाओं को तीन साल की कथित रूप से छूट दी जाती है, ताकि वे शादी के बाजार के हिसाब से पढ़-लिख जाएं। इसके उलट, विज्ञान और रिसर्च में, करिअर के लिए स्नातक, स्नातकोत्तर, पीएचडी और फिर पोस्ट-डॉक्टोरल शोध के बाद ही शुरुआत किया जा सकता है। जब तक महिलाएं अपनी मास्टर्स और पीएचडी या पोस्टडॉक की पढ़ाई पूरी करती हैं, तब तक वे औसतन कम से कम 30-32 साल की हो जाती हैं। इसके बाद इन क्षेत्रों की महिलाएं स्थायी नौकरी की तलाश शुरू करते हैं। अमूमन, भारतीय समाज में महिलाओं पर इस उम्र में शादी करने और ‘घर बसाने’ का अतिरिक्त दबाव होता है।
वहीं, आम तौर पर महिलाओं के लिए, शादी का मतलब है अपने कामकाज और मूल निवास स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाकर न सिर्फ रहना बल्कि नए सिरे से सब कुछ शुरुआत करना। अक्सर शादी के बाद, वे अपने पति और ससुराल वालों के अनुसार अपने करियर के फैसले लेती हैं क्योंकि दो अलग शहरों में रहकर शादी के लिए न तो भारतीय परिवार अमूमन राजी होते हैं न ही यह आसान होता है। द लाइफ ऑफ साइंस में छपे साक्षात्कार में कई महिला वैज्ञानिक इस तथ्य से सहमत हैं कि एक ही क्षेत्र से जीवनसाथी के होने से मदद मिलती है।
खासकर शिक्षा के क्षेत्र में, क्योंकि वे यह समझने में सक्षम होते हैं कि विज्ञान के क्षेत्र में कुछ करने का मतलब क्या होता है। भारतीय पितृसत्तातमक समाज न सिर्फ शादी के मामले में बल्कि बच्चों के मामले में भी एक महिलाओं से उम्मीद करता है कि वे स्वाभाविक रूप से इस विक्लप को चुनेंगी। बच्चे का पैदा होना एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है, जिससे महिलाएं गुजरती हैं। 2010 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि विज्ञान में एकल पुरुषों की तुलना में एकल महिलाएं अधिक हैं। वहीं बिना बच्चों के महिलाओं की संख्या बिना बच्चों के पुरुषों की तुलना में अधिक है। साथ ही, महिलाएं चाहे किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, उनसे घर और बच्चों की देखभाल करने की उम्मीद की जाती है जिससे वह मुक्त नहीं होती।
भारतीय विज्ञान जगत में महिलाओं का संघर्ष
आज रोज़मर्रा की ज़िंदगी में तकनीक के व्यापक इस्तेमाल के कारण स्टेम शिक्षा (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) को मजबूत और समावेशी विकास और सामाजिक कल्याण के लिए एक जरूरी शर्त बना दिया है। महिलाओं और लड़कियों के लिए स्टेम में समान पहुंच और भागीदारी सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा में शामिल है। भारतीय विज्ञान शिक्षा जगत में सभी स्तरों पर महिला शोधकर्ताओं की कमी है। लेकिन न सिर्फ उनका प्रतिनिधित्व कम है, बल्कि उन्हें कम महत्व दिया जाता है, कम मार्गदर्शन दिया जाता है और पुरस्कारों, अनुदानों और करियर को आगे बढ़ाने वाले अन्य कदमों के लिए भी उन्हें अनदेखा किया जाता है। बायसवॉचइंडिया के एकत्रित किए गए आंकड़ों के अनुसार, न सिर्फ महिलाओं को विज्ञान के सम्मेलनों में कम बुलाया जाता है, बल्कि विभिन्न स्टेम विषयों में महिलाओं का अनुपात भी कम और जेंडर्ड है। कुल संकाय सदस्यों में महिला संकाय सदस्यों की संख्या के इस अनुपात को ‘आधार दर’ के रूप में परिभाषित करते हैं।
विज्ञान में महिलाओं का प्रतिनिधत्व और संख्या
बायसवॉचइंडिया ने जून 2020 से अगस्त 2021 के बीच आयोजित विज्ञान और इंजीनियरिंग सम्मेलनों में महिला वक्ताओं के अनुपात की भी गणना की गई है। इसमें पाया गया है कि 293 सम्मेलनों में से 114 यानी 39 प्रतिशत में कोई महिला वक्ता नहीं थीं और 175 यानी 60 प्रतिशत में महिला वक्ताओं का अनुपात संबंधित क्षेत्रों में जेंडर अनुपात से कम था। बायसवॉचइंडिया के पाए गए डेटा के अनुसार महिलाएं स्वाभाविक रूप से उन क्षेत्रों में ज्यादा हैं, जिन्हें विज्ञान में महिलाओं के लिए सामाजिक रूप से स्वीकार्य माना जाता है। उदाहरण के लिए, सभी उप-क्षेत्रों में से जीवविज्ञान में महिला फ़ैकल्टी सदस्य का अनुपात सबसे अधिक है। चूंकि जीवविज्ञान को पारंपरिक रूप से ‘सॉफ्ट साइंस’ माना जाता है। वहीं इंजीनियरिंग, रसायन विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान और भौतिकी में महिला फ़ैकल्टी सदस्य का आधार दर 0.1 के आस-पास है। शोध के मुताबिक यहां तक कि उच्च एनआईआरएफ रैंकिंग वाले प्रतिष्ठित संस्थानों, जैसे कि आईआईएससी और कई आईआईटी में भी महिला संकाय का अनुपात बहुत कम है।
भारत में महिला शोधकर्ता और वैज्ञानिकों की मान्यता और स्थिति
भारत में कुल 56,747 महिला शोधकर्ता हैं जो देश के कुल शोधकर्ताओं का 16.6 प्रतिशत है। तत्कालीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने कहा था कि फिलहाल महिला शोधकर्ता के लिए प्रोत्साहन और छात्रवृत्ति बढ़ाने की सरकार की कोई योजना नहीं है। मान्यता के मामले में, भारत में विज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार- शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार के मामले में लगातार पिछले दो सालों से किसी भी महिला को यह सम्मान नहीं दिया गया। यही नहीं, जब से 1958 में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) ने पहली बार ये पुरस्कार दिए, और असीमा चटर्जी इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को जीतने वाली पहली महिला बनने के छह दशक से भी ज़्यादा समय बीतने बाद, 592 भटनागर पुरस्कारों में से केवल 20 महिला वैज्ञानिकों को मिले हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के लिए लंबे समय से योजनाएं चल रही हैं। लेकिन इसका उद्देश्य विज्ञान में लड़कियों को प्रोत्साहित करना और बच्चों की देखभाल के लिए अपने करियर से ब्रेक लेने के बाद महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में वापस लौटने में सहायता करना है। पुनर्प्रवेश योजनाओं के कारण इन योजनाओं का लाभ उठाने वाली अधिकांश महिला वैज्ञानिकों को स्थायी पद नहीं मिल पाए हैं, जो पहले से ही शैक्षणिक पदों के लिए आयु सीमा के दुष्परिणाम भुगत रही हैं। समाज में एक और धारणा यह है कि महिलाएं विज्ञान और गणित में अच्छी नहीं होतीं। लेकिन भारत में उच्च शिक्षा में विज्ञान विषय चुनने वाली लड़कियों की संख्या कम नहीं है। अमूमन उन्हें विज्ञान लेने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है और इसके बजाय उन क्षेत्रों को चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जो लोगों को लगता है कि उनके लिए तुलनात्मक रूप से आसान है या कम खर्चीला है।
अधिकांश प्रमुख शोध संस्थान शहरी और उन्नत क्षेत्रों में स्थित हैं या शहरों से दूर स्थित हैं। महिलाओं के लिए यात्रा करना और बार-बार शोध संस्थानों तक पहुंचना मुश्किल होता है। यात्रा करने में वित्तीय खर्च होता है, समय लगता है और सुरक्षा संबंधी मुद्दे भी होते हैं। सरकार द्वारा हाल ही में किए गए एक आकलन से पता चला है कि भारत में अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों में 18.6 प्रतिशत महिला शोधकर्ता हैं। शोध के मुताबिक महिलाओं की कम भागीदारी का कारण उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं, जिसके कारण उन्हें अपने करियर में रुकावटों का सामना करना पड़ता है और वे लम्बे समय तक काम से अनुपस्थित रहती हैं।
एक महिला को सफल करियर बनाने के लिए एक बहुत बड़े और मजबूत सपोर्ट सिस्टम की ज़रूरत होती है। इस सिस्टम में आमतौर पर उसके माता-पिता, परिवार के लोग, जीवनसाथी, सहकर्मी, सलाहकार जैसे कई लोग शामिल होने चाहिए। महिलाओं को इस क्षेत्र में प्रवेश करने और बने रहने में सहायता करने के लिए, जागरूकता के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों से लड़ना जरूरी है। इसमें नीतिनिर्माण करने वालों को वैसे नीतियां बनानी होगी, जहां वे महिलाओं को सिर्फ छात्रवृत्ति या उनके शिक्षा का समर्थन करने के अलावा, कार्यस्थलों पर लैंगिक भेदभाव का हल करे और नागरिक समाज, परिवार और समुदाय की जिम्मेदारी भी तय करे।