समाजख़बर फिल्मों में विकलांगता का असंवेदनशील चित्रण, सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए दिशा-निर्देश

फिल्मों में विकलांगता का असंवेदनशील चित्रण, सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए दिशा-निर्देश

कोर्ट ने कहा है कि ऐसी भाषा जो विकलांगता को व्यक्तिगत बनाती है और अक्षम करने वाली सामाजिक बाधाओं को अनदेखा करती है उससे बचना चाहिए या उसे सामाजिक मॉडल के विपरीत के रूप में पर्याप्त रूप से पहचाना जाना चाहिए। साथ ही रचनाकारों (क्रिएटर्स) को मेडिकल स्थिति के बारे में सही जांच करनी चाहिए।

विकलांगता को हमेशा हमारे समाज में हाशिये पर रखा गया है। यही वजह है कि विकलांगता को परिभाषित करते हुए विकलांग लोगों को कमतर या अलग आंका जाता है। विकलांग लोगों को इसी सोच की वजह से शिक्षा, रोजगार, घर-परिवार और सार्वजनिक जगहों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रह इतने गहरे है कि इसे हीनता, पाप, कर्मों का फल और बेचारगी के तौर पर समझा जाता है। समाज में विकलांगता को लेकर जागरूकता कम होने की वजह से संवेदनशीलता की भारी कमी है। यह धारणा समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों में है। मीडिया के अलग-अलग माध्यमों की भी इसमें बड़ी भूमिका है। सिनेमा, टीवी या विज्ञापन हर जगह विकलांगता को लेकर उस संवेदनशीलता और जानकारी का अभाव नज़र आता है जिसकी आवश्यकता है। 

बीते सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विजुअल मीडिया में विकलांग व्यक्तियों के दिखाने का तरीका संविधान के भेदभाव-विरोधी और गरिमा-पुष्टि करने वाले उद्देश्यों के साथ-साथ विकलांग व्यक्तियों के अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी) अधिनियम, 2016 के अनुरूप है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है विकलांग व्यक्तियों के बारे में नकारात्मक रूढ़िवादिता वाले चित्रण उनकी गरिमा को प्रभावित करते है और उनके ख़िलाफ़ सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देते है। सुप्रीम कोर्ट ने विजुअल मीडिया और फिल्मों में विकलांग व्यक्तियों (पीडब्ल्यूडी) के अपमानजनक चित्रण के ख़िलाफ़ एक दिशानिर्देशों का एक सेट जारी किया है। 

कोर्ट ने कहा है, “विकलांग व्यक्तियों का अपमान करने वाली भाषा उन्हें और अधिक हाशिये पर धकेलती है और उनके सामाजिक सहभागिता में अक्षमता की बाधाओं को बढ़ाती है।”

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच सोनी पिक्चर्स द्वारा निर्मित फिल्म ‘आँख मिचोली’ को दिए गए सर्टिफिकेट को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ कोर्ट ने कहा है, “अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत एक फिल्म निर्माता की रचनात्मक स्वतंत्रता में पहले से ही हाशिए पर पड़े लोगों का मजाक उड़ाने, स्टीरियोटाइप बनाने, गलत तरीके से पेश करने या उनका अपमान करने में शामिल नहीं हो सकती है।” यह फैसला एक याचिका पर आया है जिसमें कहा गया था कि हिंदी फिल्म आँख मिचोली ने विकलांग समुदाय को गलत तरीके से पेश किया है और उनके संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों और सिनैमैटोग्राफ एक्ट, 1952 और आरपीडब्ल्यू एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन किया है। 

सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश

लाइव लॉ में छपी ख़बर के अनुसार कोर्ट ने कहा है, “जब तक फिल्म का समग्र संदेश विकलांग व्यक्तियों के ख़िलाफ़ अपमानजनक भाषा के चित्रण को उचित ठहराता है, तब तक इसे अनुच्छेद 19(2) के तहत लगाए गए प्रतिबंधों से परे नहीं किया जा सकता। विकलांग व्यक्तियों का अपमान करने वाली भाषा उन्हें और अधिक हाशिये पर धकेलती है और उनके सामाजिक सहभागिता में अक्षमता की बाधाओं को बढ़ाती है।” विकलांग समुदाय के मास-मीडिया में रिप्रेजटेंशन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं। कोर्ट ने कहा है कि विकलांगता को कमजोर मानने वाले शब्द संस्थागत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। विकलांग व्यक्तियों के बारे में सामाजिक धारणाओं में बहुत से शब्द अवमूल्यन वाले अर्थ हासिल कर चुके हैं।  

कोर्ट ने कहा है कि ऐसी भाषा जो विकलांगता को व्यक्तिगत बनाती है और अक्षम करने वाली सामाजिक बाधाओं को अनदेखा करती है उससे बचना चाहिए या उसे सामाजिक मॉडल के विपरीत के रूप में पर्याप्त रूप से पहचाना जाना चाहिए। साथ ही रचनाकारों (क्रिएटर्स) को मेडिकल स्थिति के बारे में सही जांच करनी चाहिए। रतौंधी (नाइट ब्लाइंडनेस) जैसी स्थिति के बारे में भ्रामक तरीके से दिखाने से स्थिति के बारे में गलत जानकारी फैल सकती है और ऐसी विकलांगता वाले लोगों के बारे में रूढ़िवाद को बढ़ावा मिल सकता है। बेंच ने कहा है कि विकलांग व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व कम है और लोग विकलांग व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों से अनजान हैं। 

तस्वीर साभार: सुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

मीडिया में उनके जीवन के अनुभवों को दिखाना आवश्यक है। उनकी जीवन की वास्तिविक स्थितियों को दिखाना चाहिए। विजुअल मीडिया में विकलांग समुदाय के लोगों की विविध वास्तविकता को दिखाना चाहिए। न केवल चुनौतियां बल्कि उनकी उपलब्धियों को भी जगह मिलनी चाहिए। इस तरह का संतुलित प्रतिनिधित्व रूढ़ियों को दूर करने और विकलांगता पर अधिक समावेशी समझ को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है। अदालत ने कहा है कि उन्हें न तो मिथको (जैसे पर्सन विद ब्लाइंडनेस अपने रास्ते में किसी चीज से टकरा जाते है) और न ही दूसरी तरफ सुपर क्रिपल की तरह दिखाना चाहिए। फैसला लेने वाली संस्थाओं को भागीदारी के मूल्यों को ध्यान में रखना चाहिए। मीडिया के लिए कॉन्टेंट बनाने वाले व्यक्तियों जिनमें लेखक, निर्देशक, निर्माता और अभिनेता शामिल है उसके लिए ट्रेनिंग और संवेदीकरण प्रोग्राम लागू किए जाने चाहिए। विकलांगता के सामाजिक मॉडल के सिंद्धात, सम्मानजनक भाषा के महत्व और सटीक और सहानुभूतिपूर्ण प्रतिनिधित्व की आवश्यकता शामिल होनी चाहिए। कोर्ट ने सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया है कि विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन के तहत अधिकारियों को संबंधित समूह के जीवित अनुभवों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

फिल्मों, टेलीविजन में विकलांग व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व कम

तस्वीर साभार: सुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

फिल्म, टेलीविजन, विज्ञापन सूचनाओं के वे माध्यम है जिनकी पहुंत बड़ी संख्या में लोगों तक है। लेकिन बात जब प्रतिनिधित्व की आती है तो ये केवल एक बड़े वर्ग को ही अपनी टॉर्गेट ऑडियंस मानते है। यह समझना बहुत ज़रूरी है कि विकलांग लोगों को मुख्यधारा के समाज में लाने के लिए उन जगहों पर अपना स्पेस क्लेम करना होगा जो अन्य लोगों के लिए हैं। सिनेमा में अक्सर विकलांगता को लेकर एक नकारात्मक विचारों का ज्यादा बोलबाला रहा है। फिल्म और टेलीविजन के ज़रिये विकलांगता के प्रति पूर्वाग्रहों को स्थापित करने का काम किया गया है। फिल्म, टीवी, विज्ञापनों में हर जगह बड़े पैमाने पर ग्लैमरस व्यक्तियों, नॉन डिसएब्लड का इस्तेमाल करता है। इतना ही नहीं विकलांग लोगों से जुड़े अभियान या आवश्यकता को भी ऐसे ही लोगों के द्वारा संचालित करते हुए देखा जाता है। यह चलन विकलांग लोगों को अलग-थलग करने और बॉडी शेमिंग जैसी व्यवहारों को बढ़ावा देते हैं। 

भारतीय सिनेमा जगत में तो निर्देशकों ने विकलांगता को बहुत ही अनुचित तरीके से पेश किया है। केवल कुछ गिने-चुने निर्देशक है जिन्होंने विकलांग लोगों के नज़रिये से फिल्में बनाकर विकलांगता के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया है। विकलांग लोगों के जीवन के पहलूओं को संवेदनशीलता और समावेशी सोच के तहत सामने रखा है। उनकी सीमाओं, क्षमताओं और इच्छाओं पर बात की है। हिंदी कमर्शियल या मुख्यधारा के सिनेमा से विकलांगता को लेकर स्टीरियोटाइप को बढ़ावा देने का काम किया गया है। भारतीय फिल्मों, वेब सीरीज और विज्ञापनों में विकलांगता का गलत चित्रण की वजह से समाज में नकारात्मक सोच बनी हुई है। फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य की स्थितियों का मजाक उड़ाते हुए और सहमति का उल्लघंन करने हुए और उपचार को लेकर भी बहुत असंवेदनशील माहौल दिखाया जाता है। सिनेमा रूढ़िवाद को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार है और अक्सर इस वजह से विकालांग लोगों को हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। 

मीडिया के लिए कॉन्टेंट बनाने वाले व्यक्तियों जिनमें लेखक, निर्देशक, निर्माता और अभिनेता शामिल है उसके लिए ट्रेनिंग और संवेदीकरण प्रोग्राम लागू किए जाने चाहिए। विकलांगता के सामाजिक मॉडल के सिंद्धात, सम्मानजनक भाषा के महत्व और सटीक और सहानुभूतिपूर्ण प्रतिनिधित्व की आवश्यकता शामिल होनी चाहिए।

मीडिया के अलग-अलग माध्यमों में विकलांग अभिनेताओं, मीडिया पेशवरों और विशेषज्ञों को हमेशा टीवी, फिल्म में बहुत कम प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है। फोर्ब्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार बीबीसी, आईटीवी, चैनल 4 और स्काई जैसे प्रसारकों द्वारा समर्थित रिपोर्ट में पाया गया है कि विकलांग लोगों ऑफ-स्क्रीन वर्कफोर्स का केवल 5.2 प्रतिशत और ऑन-स्क्रीन कार्यबल का 7.8 फीसदी हिस्सा बनाते हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि दुनियाभर में विकलांग लोगों को इस उद्योग से कैसे बाहर रखा गया है। भारतीय मनोरंजन जगत को तो इस दिशा में अभी लंबा सफर तय करना है अगर वह वास्तव में समावेशी बनना चाहता है। इसका पहला कदम विकलांग लोगों के द्वारा, उनके लिए और उनके साथ ही विकलांगता पर बात करने होगी।


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