इंटरसेक्शनलजेंडर शहर के शोर-शराबे वाले वातावरण में कैसा महसूस करती हैं महिलाएं

शहर के शोर-शराबे वाले वातावरण में कैसा महसूस करती हैं महिलाएं

महिलाओं में शोर से उत्पन्न तनाव का प्रभाव पुरुषों की तुलना में अधिक होता है। महिलाएं शोर के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, जिससे वो अधिक चिड़चिड़ापन और थकान महसूस करती हैं। शोर वाले माहौल में महिलाओं के लिए ऐसे काम करना कठिन हो जाता है जिनमें ध्यान, याददाश्त और समस्याओं के समाधान खोजने जैसे काम शामिल हो।

आज हमारा वातावरण पूरी तरह से प्रदूषित हो गया है। मानवीय विकास से वायु, जल, भूमि का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। मानव जनित प्रदूषण में से एक ध्वनि प्रदूषण है जिसका मनुष्य जीवन पर बहुत खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है। ध्वनि प्रदूषण एक अदृश्य खतरा है जिने देखा नहीं जा सकता है लेकिन वह हर वक्त धरती पर मौजूद है। ध्वनि प्रदूषण का हमारे स्वास्थ्य पर बहुत खराब असर पड़ता है। शहर जीवन में लोगों के लिए यह शोर कोई नई बात नहीं। ये कोलाहल उनके जीवन का वह हिस्सा है जिसका उन पर हानिकारक असर पड़ता है। कई अध्ययनों में तो यह बात भी सामने आई है कि ध्वनि प्रदूषण पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है क्योंकि महिलाएं शोर को कुछ अलग तरह से अनुभव करती हैं।

ध्वनि प्रदूषण से रोज करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित होता है। इससे सबसे आम स्वास्थ्य समस्या हियरिंग लॉस यानी बहरापन है। इतना ही नहीं हाई ब्लड प्रेशर, दिल से सबंधित बीमारियां, नींद की समस्या और तनाव आदि का सामना करना पड़ता है। इस तरह की स्वास्थ्य समस्या हर उम्र के लोगों को प्रभावित करती है विशेषतौर पर बच्चों, बुजुर्ग और महिलाओं को। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार ध्वनि प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यह तनाव, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और नींद की समस्याओं का कारण बन सकता है। एक अध्ययन में पाया गया कि ध्वनि प्रदूषण के उच्च स्तर वाले क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में चिंता और अवसाद के मामलों में वृद्धि होती हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ नेब्रास्का-लिंकन के सेथ एंडरसन की मई 2022 की थीसिस के निष्कर्ष में पाया कि ध्वनि प्रदूषण व्यक्ति के विभिन्न भावनाओं, मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक भावनाओं को काफ़ी हद तक प्रभावित करता है।

प्रीति का कहना है, “हमारा घर मेन रोड के पास ही है तो हमेशा यहां शोर-शराबा रहता है। गाड़ियों की आवाज़ कभी बंद नहीं होती है। हम जहां रहते हैं यहां तेज़ आवाज़ में गाने बजाने से किसी को कोई रोक-टोक नहीं है। जब जिसका मन होता है वो तेज़ आवाज़ में गाने बजाने लगता है। और ऐसे में हम किसी को कुछ बोल भी नहीं पाते है।”

कई महिलाओं के लिए ध्वनि प्रदूषण केवल एक पर्यावरणीय समस्या भर नहीं है, बल्कि यह उनके रोज़मर्रा के जीवन में सर्वव्यापी तनाव का कारण है जो उनके दैनिक जीवन को तुलनात्मक रूप से अधिक प्रभावित करता है। हैरत की बात यह है कि इन सबका उन्हें ठीक से पता भी नहीं है। “शोर भी प्रदूषण है” यह कहते हुए 43 वर्षीय गृहिणी प्रीति हमसे पूछती हैं लेकिन शोर से प्रभावित होने के सवाल पर वे कहती हैं, “शोर से दिक्कत तो होती ही है। सबको होती है। सिर दर्द होने लगता है, जब कोई काम करो तो काम में मन नहीं लगता, ध्यान भी नहीं लग पाता है। शोर ज़्यादा हो तब चिढ़ होती है, गुस्सा भी आता है।”

किस तरह का शोर उन्हें ज़्यादा परेशान करता है इसके जवाब में वह थोड़ा परेशान होते हुए कहती हैं, “हमारा घर मेन रोड के पास ही है तो हमेशा यहां शोर-शराबा रहता है। गाड़ियों की आवाज़ कभी बंद नहीं होती है। हम जहां रहते हैं यहां तेज़ आवाज़ में गाने बजाने से किसी को कोई रोक-टोक नहीं है। जब जिसका मन होता है वो तेज़ आवाज़ में गाने बजाने लगता है। और ऐसे में हम किसी को कुछ बोल भी नहीं पाते है।” मनोरंजन से पैदा प्रदूषण ऐसा है जिस पर ध्यान ही नहीं दिया जाता है। आजकल शादी-धार्मिक या प्रसन्नता के मौके पर लोग आतिशबाजी, डीजे आदि बजाते हैं जिसके कारण ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। 

भारत में ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986’ के तहत ध्वनि प्रदूषण के स्रोतों के विनियमन और नियंत्रण के लिए नियम बनाए। इन नियमों में विभिन्न क्षेत्रों (औद्योगिक, वाणिज्यिक, आवासीय, शांत क्षेत्रों) के लिए दिन और रात के दौरान अनुमेय ध्वनि स्तर निर्धारित किए गए हैं। इसके तहत मोटर वाहनों, एयर कंडीशनरों, रेफ्रिजरेटरों और निर्माण उपकरणों जैसे विभिन्न ध्वनि उत्पादक स्रोतों के लिए ध्वनि मानक निर्धारित किए गए हैं।

बहुत से लोग हैं जो शोर से होने वाले प्रदूषण से अनजान हैं, लेकिन उनसे होने वाली परेशानियों का सामना प्रतिदिन करते हैं। ‘जेंडर डिफ़रेंसेस इन कॉग्निटिव परफ़ॉर्मेंस एंड साइकॉफ़िज़ियोलॉजिकल रिस्पॉन्सेस ड्यूरिंग नॉइज़ एक्सपोज़र एंड डिफ़रेंट वर्कलोड्स’ शीर्षक से जारी रिसर्च के मुताबिक़ “महिलाओं में शोर से उत्पन्न तनाव का प्रभाव पुरुषों की तुलना में अधिक होता है। महिलाएं शोर के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, जिससे वो अधिक चिड़चिड़ापन और थकान महसूस करती हैं। शोर वाले माहौल में महिलाओं के लिए ऐसे काम करना कठिन हो जाता है जिनमें ध्यान, याददाश्त और समस्याओं के समाधान खोजने जैसे काम शामिल हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पर्यावरणीय शोर को वायु प्रदूषण के बाद स्वास्थ्य के लिए दूसरा सबसे बड़ा ख़तरा माना है। लेकिन शहरी जनता शोर की इतनी आदी हो चुकी है कि वे शोर से होने वाले नुकसान से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के 2021 के स्टडी के अनुसार लंबे समय तक तक वायु प्रदूषण और ट्रैफिक के शोर के साथ सम्पर्क से हार्ट फेलियर का ख़तरा बढ़ जाता है। इसके अलावा यूएनईपी की ‘एनुअल फ्रंटियर्स रिपोर्ट 2022’ ने भी हृदय रोग, नींद में खलल और बच्चों में संज्ञानात्मक हानि सहित सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्वनि प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों पर सबूत इकट्ठा किए गए हैं।

दिल्ली में पिछले 27 साल से रह रही रीना गुप्ता का कहना है कि वह बहुत ही कम मौक़ों पर घर से बाहर निकलती हैं। शहर में बढ़ते ध्वनि प्रदूषण पर उनका कहना है, “आप दूर का छोड़ो, पड़ोस के बच्चे मानते नहीं कितनी ही मना कर दे लेकिन तेज़ आवाज़ में गाने बजाकर रखते हैं, धम-धम आवाज़ से मेरा सिर दर्द ऐसा होता है कि बिस्तर पकड़ लेती हूं और दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। कितना भी कह लूं कोई सुनता नहीं है।”

दिल्ली की रहने वाली मुस्कान का कहना है, “मैं रोज़ सब्ज़ी लेने नीचे तक जाती हूं और गली के ही ट्रैफिक में फंस जाती हूं। छोटी सी गली है लेकिन इसमें भी बहुत गाड़िया है और हॉर्न पर हॉर्न बजाते रहते हैं। बेवजह हॉर्न की आवाज़ से बहुत चिढ़चिढ़ाहट होती है। कानों में दर्द होना शुरू हो जाता है। इस शहर में ट्रैफिक का शोर इतना है कि पांचवें फ्लोर तक यह रहता है। ‘नॉइज़ एंड हेल्थ’ में प्रकाशित एक स्टडी में पाया गया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने सड़क यातायात के शोर के कारण अधिक परेशानी और नींद में खलल की बात कही है। इतना ही नहीं इससे होने वाले अन्य नुकसान का उनके सेहत पर भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। ‘जर्नल ऑफ़ एनवायर्नमेंटल साइकोलॉजी’ के शोध से संकेत मिलता है कि महिलाओं में शोर से होने वाले तनाव और संबंधित मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की अधिक संभावना हो सकती है।

ट्रैफिक के शोर से ज़्यादा प्रभावित होने वाली दीपशिखा कहती हैं, “औरतें आमतौर पर वाहन चालक के रूप में कम ही देखी जाती हैं इसलिए उन्हें यह समझने में समस्या होती है कि सड़कों पर ट्रैफिक मैनेजमेंट की ऐसी दुर्दशा क्यों हैं? ड्राइवरों में संयम की कमी क्यों हैं? जो वे अकारण हॉर्न बजाते हैं।” दुनिया भर में हुए कई अध्ययनों से बात स्पष्ट होती है कि ध्वनि प्रदूषण से महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बीते वर्ष जनवरी में हुए एक सर्वेक्षण में, 15 भारतीय शहरों के 45 वॉलटियर्स ने शांत और आवासीय क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण की जांच की और पाया कि ध्वनि स्तर 50 डेसीबल की सीमा से लगभग 50 प्रतिशत अधिक था। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ता जा रहा है यातायात शोर और अन्य प्रकार के ध्वनि प्रदूषण बढ़ते जा रहे हैं जो गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करते हैं।

तस्वीर साभारः Research Gate

ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने जागरूकता बढ़ाने की सिफारिश की है। शोरगुल वाली मनोरंजन गतिविधियों से बचें, कारों के बजाय साइकिल या इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग करें, उपयुक्त समय पर काम करें, शोर अवशोषित करने वाली सामग्री से घरों को इन्सुलेट करें जैसी अन्य बातें कही है। भारत में इस दिशा में कुछ कदम उठाए जा चुके है और बड़े स्तर पर अभी उठाने बाकी है। भारत में ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986’ के तहत ध्वनि प्रदूषण के स्रोतों के विनियमन और नियंत्रण के लिए नियम बनाए। इन नियमों में विभिन्न क्षेत्रों (औद्योगिक, वाणिज्यिक, आवासीय, शांत क्षेत्रों) के लिए दिन और रात के दौरान अनुमेय ध्वनि स्तर निर्धारित किए गए हैं। इसके तहत मोटर वाहनों, एयर कंडीशनरों, रेफ्रिजरेटरों और निर्माण उपकरणों जैसे विभिन्न ध्वनि उत्पादक स्रोतों के लिए ध्वनि मानक निर्धारित किए गए हैं। साथ ही ये नियम बिना प्राधिकरण की अनुमति के लाउडस्पीकर, पब्लिक एड्रेस सिस्टम और अन्य ध्वनि उत्पादक उपकरणों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाते हैं। साल 2011 में सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने सात प्रमुख शहरों जैसे बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, लखनऊ और मुंबई में राष्ट्रीय पर्यावरण ध्वनि निगरानी नेटवर्क स्थापित किया।

ध्वनि प्रदूषण नियमों के उल्लंघन के लिए 1,000 से एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। एक नया सेट प्रस्तावित किया। इसके अलावा भी समय-समय पर प्रशासन ने ज़रूरत के हिसाब से अपने स्तर पर कई प्रयास किए हैं जिनमें मुंबई 2008 में मुंबई पुलिस और सुमैरा अब्दुलाली की संस्था ‘आवाज़ फाउण्डेशन’ ने पहली बार ‘नो हॉन्किंग डे’ मनाते 16,000 ड्राइवरों का चालान काटा। इसके बाद 2022 में दिल्ली सरकार ने ट्रैफिक शोर को कम करने के लिए प्रेशर हॉर्न, मॉडिफाइड साइलेंसर और अत्यधिक हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगाया। इसकी अवहेलना करने वाले चालकों को दण्डित करने का भी निर्णय लिया। इसके अलावा बेंगलुरु पुलिस ने 301 धार्मिक और अन्य संस्थानों को लाउडस्पीकर के डेसीबल स्तर को नियंत्रित करने के लिए नोटिस जारी किया। उत्तर प्रदेश में धार्मिक स्थानों से 37,000 से अधिक लाउडस्पीकर हटाए गए और 55,000 लाउडस्पीकरों की आवाज़ कम की गई।

एक सर्वेक्षण में, 15 भारतीय शहरों के 45 वॉलटियर्स ने शांत और आवासीय क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण की जांच की और पाया कि ध्वनि स्तर 50 डेसीबल की सीमा से लगभग 50 प्रतिशत अधिक था। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ता जा रहा है यातायात शोर और अन्य प्रकार के ध्वनि प्रदूषण बढ़ते जा रहे हैं जो गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करते हैं।

ध्वनि प्रदूषण को लेकर लोगों में जागरूकता और कड़े नियमों की आवश्यकता है। सरकार को इस दिशा में गंभीरता से कदम उठाने होंगे ताकि इस भीषण खतरे से बचा जा सकें। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है सरकारों के पास ध्वनि प्रदूषण से निपटन के लिए संसाधन और तकनीक दोनों की कमी है। ‘नॉइज़ पॉल्यूशन इन इण्डिया- ए साइलेंट किलर’ रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आदेशों के बावजूद, एक जांच में पता चला कि राज्य के कानून प्रवर्तन के कई सदस्यों के पास शोर प्रदूषण की निगरानी और उसके समाधान के लिए आवश्यक प्रशिक्षण या संसाधन नहीं हैं। इससे ही पता चलता है कि इस पर्यावरणीय संकट के लिए हम कितने तैयार हैं। ख़ासकर जब महिलाओं की बात आती है तब हम कितना कम विचार कर पा रहे हैं।

इस रिपोर्ट को समाप्त करते हुए हम यह समझते हैं शोर प्रदूषण केवल एक पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि यह हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। विशेष रूप से महिलाओं के लिए यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है। शहरी जीवन की धुन में यह शोर गुम हो जाता है लेकिन इसके असर को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस समस्या का समाधान केवल कानूनों के सख्त कार्यान्वयन और जागरूकता बढ़ाने से ही संभव है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि शहरी जीवन की धुन में यह शोर कम हो, ताकि हर नागरिक, विशेष रूप से महिलाएं, एक सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण में रह सकें। शोर को केवल एक सामान्य बात मानकर नजरअंदाज करना सही नहीं है, क्योंकि यह हमारे स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता पर सीधे असर डालता है।


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