समाजपर्यावरण सुप्रीम कोर्ट ने क्यों जलवायु परिवर्तन से बचाव को ‘मौलिक अधिकार’ बताया?

सुप्रीम कोर्ट ने क्यों जलवायु परिवर्तन से बचाव को ‘मौलिक अधिकार’ बताया?

सुप्रीम कोर्ट ने जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार को जीवन और समानता के मौलिक अधिकारों का हिस्सा बताया है। न्यायालय ने मौलिक अधिकार पर जलवायु परिवर्तन के गहरे प्रभाव को रेखांकित किया है। लगातार नई-नई गतिविधियों और मानवीय कार्यों के कारण जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उससे मानव स्वास्थ्य पर ही नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के खिलाफ़ अधिकार, जीवन और समानता के अधिकार से जुड़ा हुआ है, जो भारतीय संविधान में दिया गया हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि एक ऐसा पर्यावरण जो स्वच्छ और स्थिर है, जो जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितताओं से प्रभावित नहीं है, वही जीवन के अधिकार को पूरी तरह से साकार बना सकता है। स्वास्थ्य का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है, वो जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित होता है। वायु प्रदूषण, वेक्टर जनित बीमारियों में बदलाव, बढ़ता तापमान, सूखा, फसल की विफलता, तूफान और बाढ़ के कारण खाद्य आपूर्ति में कमी यह सब चीजें जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पन्न होती हैं।

साल 2021 में प्रकाशित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में पाया गया कि 1850-1900 के बाद से हीट-ट्रैपिंग गैसों के मानव उत्सर्जन ने जलवायु को लगभग 2 डिग्री फ़ारेनहाइट (1.1 डिग्री सेल्सियस) तक गर्म कर दिया है। अगले कुछ दशकों में वैश्विक औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस (लगभग 3 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक पहुंचने या उससे अधिक होने की उम्मीद है। ये परिवर्तन पृथ्वी के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करेंगे। लेकिन जलवायु परिवर्तन की समस्या से सबसे ज़्यादा महिलाएं और बच्चे प्रभावित करते हैं क्योंकि वे समाज में अधिक संवेदनशील समूहों में से हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार को जीवन और समानता के मौलिक अधिकारों का हिस्सा बताया है। न्यायालय ने मौलिक अधिकार पर जलवायु परिवर्तन के गहरे प्रभाव को रेखांकित किया है।

जलवायु से कैसे प्रभावित हो सकती है महिलाएं

द थर्ड पोल द्वारा एकत्र किए गए सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2010 से 2019 के बीच बिहार में बाढ़ के कारण पांच लाख से अधिक घर क्षतिग्रस्त हो गए थे। बाढ़ जैसी आपदाओं के समय वहां के लोगों को आश्रयों में या सड़क किनारे अस्थायी शिविर लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अक्सर या तो महिलाएं ऐसी स्थिति में अकेले जूझती है क्योंकि कई बार घर के पुरुष पहले ही शहरों में नौकरी के लिए चले जाते हैं। वहीं ऐसे रेफ्यूजी कैम्प, शिविरों में महिलाएं और बच्चे को यौन हिंसा और मानव तस्करी का खतरा होता है। विश्व स्तर पर विभिन्न अध्ययनों ने महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है।

तस्वीर साभार: UNDRR

साल 2020 के इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे पर्यावरणीय गिरावट से लैंगिक हिंसा के विभिन्न रूपों जैसे यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और जबरन सेक्स वर्क में वृद्धि हो सकती है। दक्षिण एशिया में 2010 के एक अध्ययन में श्रीलंका में लैंगिक हिंसा पर 2004 हिंद महासागर की सुनामी के प्रभाव को देखा गया। वहीं 2020 में प्रकाशित शोध में पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र में बाढ़ और हिंसा के बीच समान संबंधों का पता लगाया गया। दोनों अध्ययनों में पाया गया कि ऐसी घटनाओं के बाद महिलाओं को शारीरिक, भावनात्मक और यौन हिंसा का खतरा बढ़ जाता है।

बाढ़ जैसी आपदाओं के समय वहां के लोगों को आश्रयों में या सड़क किनारे अस्थायी शिविर लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अक्सर या तो महिलाएं ऐसी स्थिति में अकेले जूझती है क्योंकि कई बार घर के पुरुष पहले ही शहरों में नौकरी के लिए चले जाते हैं।

क्या था मामला

यह मुद्दा दरअसल सौर ऊर्जा की ट्रांसमिशन लाइनों के कारण ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) की मौत पर चिंता जताने से जुड़ा हुआ था। जीआईबी राजस्थान का राजकीय पक्षी है। इसे भारत का सबसे गंभीर रूप से लुप्तप्राय पक्षी माना जाता है, जिसकी ओवरहेड बिजली लाइनों से टकराकर मौत हो रही है। जून 2019 में एमके रंजीतसिंह ने जीआईबी के लिए सुरक्षा की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिका में बताया गया था कि जीआईबी के निवास स्थान वाले क्षेत्रों में विशाल निजी और सार्वजनिक नवीकरणीय ऊर्जा बुनियादी ढांचे का निर्माण हुआ जिसके चलते ओवरहेड बिजली लाइनों का निर्माण हुआ।

याचिका के अनुसार ये बिजली लाइनें जीआईबी की मौत का प्राथमिक कारण बन गई हैं। अप्रैल 2021 के फैसले में अदालत ने कहा कि जीआईबी में फ्रंटल विजन की कमी है जिसकी वजह से उन्हें बिजली लाइनों का दूर से पता नहीं चल पाता और उनसे टकराकर उनकी मौत हो जाती है। अदालत ने केंद्र सरकार और राजस्थान और गुजरात समेत अन्य राज्यों को उन क्षेत्रों में बर्ड डायवर्टर लगाने का आदेश दिया जहां पहले से ही ओवरहेड लाइनें मौजूद हैं और पक्षियों की सुरक्षा के लिए गुजरात और राजस्थान के कुछ हिस्सों को कवर करने वाले 99,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में ओवरहेड बिजली लाइनों के बिछाने पर रोक लगा दी और भूमिगत बिजली लाइनों के लगाने की बात की। 

साल 2020 के इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे पर्यावरणीय गिरावट से लैंगिक हिंसा के विभिन्न रूपों जैसे यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और जबरन सेक्स वर्क में वृद्धि हो सकती है।

न्यायलय ने अपने 2021 के फैसले को क्यों पलट दिया

ऊर्जा मंत्रालय, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने 2021 के आदेश को इस आधार पर संशोधित करने के लिए आवेदन दायर किया था कि इसका भारत के बिजली क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और बिजली लाइनों को भूमिगत करना संभव नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले आदेश में सुधार किया है। पहले उन्होंने कहा था कि सभी हाई-वोल्टेज और लो-वोल्टेज बिजली लाइनों को जमीन के नीचे बिछाना है। लेकिन अब उन्होंने यह निर्देश दिया है कि विशेषज्ञों को इलाके की प्रकृति, लोगों की संख्या और वहां के ढांचे की जरूरतों को देखते हुए यह तय करना है कि किन क्षेत्रों में बिजली लाइनों को जमीन के नीचे बिछाना संभव है।

तस्वीर साभार: Times Of India

इससे पहले के निर्देश व्यवहारिक नहीं थे और उनसे जीआईबी पक्षी की रक्षा भी नहीं हो पा रही थी जोकि इस आदेश का मुख्य उद्देश्य था। इसमें एक तरफ न्यायलय ने बिजली लाइन को बिछाने की अनुमति भी दी है, वहीं दूसरी ओर सरकार को जीआईबी की सुरक्षा को ध्यान में रखकर काम करने का आदेश भी दिया है। जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को पहचानने और इससे निपटने की कोशिश करने वाली सरकारी नीति और नियमों के बावजूद भारत में जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई ऐसा कानून नहीं है। लेकिन लोगों को इसके प्रतिकूल प्रभाव के खिलाफ बचाव और सुरक्षा का अधिकार है। संविधान का अनुच्छेद 48ए कहता है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने तथा देश के वनों और वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा और अनुच्छेद 51ए के खंड (जी) के तहत पर्यावरण की रक्षा एवं संरक्षण करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

संविधान का अनुच्छेद 48ए कहता है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने तथा देश के वनों और वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा और अनुच्छेद 51ए के खंड (जी) के तहत पर्यावरण की रक्षा एवं संरक्षण करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने के अधिकार को जीवन और समानता के मौलिक अधिकारों का हिस्सा बताया है। न्यायालय ने मौलिक अधिकार पर जलवायु परिवर्तन के गहरे प्रभाव को रेखांकित किया है। लगातार नई-नई गतिविधियों और मानवीय कार्यों के कारण जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उससे मानव स्वास्थ्य पर ही नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अनुच्छेद 21 आपको उन प्रभावों के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है। ऐसी कोई भी गतिविधि जो आप देख रहे हैं, जिसकी वजह से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव आप पर सीधे-सीधे हो रहा है तो इस स्थिति में अब आप उस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं।

तस्वीर साभार: Indian Express

इसको आपके मौलिक अधिकार जुड़े हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लोगों को हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के तहत जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली तबाही बढ़ती जा रही है, साल-दर-साल इसे एक विशिष्ट अधिकार के रूप में स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है। न्यायालय के इस फैसले ने जलवायु परिवर्तन को लोगों के बीच चर्चा का विषय बना दिया है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लोगों को हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के तहत जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार है।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्या है जरूरी

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमें कार्बन फुटप्रिंट को कम करना होगा। घटते वन क्षेत्र को पुनर्स्थापित करना, प्रतिरोधक कृषि को बढ़ावा देना, बड़े बांधों को मजबूत करना, और बाढ़ संभावित क्षेत्रों को सुरक्षित बनाने की जरूरत है। 2015 में भारत ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होने देने की प्रतिबद्धता जताई गई। भारत ने 2030 तक अपनी जीडीपी से होने वाले उत्सर्जन को 2005 के स्तर के मुक़ाबले 45 फीसद तक कम करने का लक्ष्य रखा है। साथ ही भारत ने वादा किया है कि 2030 तक देश के कुल बिजली उत्पादन का 50 फीसद स्वच्छ ऊर्जा से हासिल किया जाएगा।

इसके साथ ही भारत को अपने विकास प्रतिमान पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। हमें आधुनिकता की तरफ बढ़ते हुए इस बात पर ध्यान देना होगा कि कहीं उस आधुनिकता से हमारे मानवीय अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा। भारत को अभी भी अपनी ऊर्जा और विकास की जरूरतों को पूरा करते हुए जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है। भारत को आगे बढ़ते हुए साक्षरता, प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग और पर्यावरण के प्रति सजगता में सुधार करने के लिए काम करना चाहिए। यह किसी एक सरकार या इंसान की ज़िम्मेदारी से बढ़कर है जिसपर सबका ध्यान और योगदान ज़रूरी है।

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