इंटरसेक्शनलजेंडर आखिर क्यों महिलाएं ऑटोइम्यून बीमारियों से ज्यादा प्रभावित होती हैं?

आखिर क्यों महिलाएं ऑटोइम्यून बीमारियों से ज्यादा प्रभावित होती हैं?

अगर हम आनुवांशिक और हॉर्मोन से जुड़े कारकों को छोड़ दें, तो हम पाएंगे कि इसे जन्म देनेवाले बहुत से अन्य कारक, जैसे कि पोषण, असल में सामाजिक संरचना की उपज हैं। इस सच्चाई में हमारे इस सवाल का जवाब हमें कुछ हद तक मिल जाएगा कि आख़िर क्यों अधिक संख्या में महिलाएं इससे जूझती हैं।

बीमारियों से हमें बचाने के लिए हम सभी के शरीर में एक तंत्र पाया जाता है जिसे ‘प्रतिरक्षा तंत्र’ कहते हैं। एक स्वस्थ प्रतिरक्षा तंत्र बीमारियों और संक्रमणों से हमें बचाता है, लेकिन कभी-कभी इसमें ख़राबी आ जाती है और यह ग़लती से हमारे शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं, ऊतकों और अंगों पर हमला कर देता है। ये हमले शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकते हैं, शरीर की कार्यप्रणाली को कमज़ोर कर सकते हैं और यहाँ तक कि जानलेवा भी साबित हो सकते हैं। इसे चिकित्सीय भाषा में स्वप्रतिरक्षित बीमारी या ऑटोइम्यून डिजीज कहते हैं। 

इससे दुनिया भर में लाखों लोग जूझते हैं, लेकिन प्रभावित होनेवालों में महिलाओं की संख्या कहीं अधिक है। एक अनुमान के मुताबिक इससे प्रभावित होनेवालों में महिलाओं की संख्या 78 प्रतिशत है। इस विषमता को देखते हुए इसके अन्तर्निहित कारणों और इसे प्रबन्धित करने की प्रभावी रणनीतियों की दिशा में सोचने की ज़रूरत है। हेल्थलाइन में छपी जानकारी के मुताबिक कुछ ऑटोइम्यून बीमारियां शरीर के केवल एक हिस्से को निशाना बनाती हैं, जैसे कि टाइप 1 डायबिटीज से आपके अग्नाशय (pancreas) को नुकसान पहुंचाता है। अन्य, जैसे सिस्टमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस, या ल्यूपस, आपके पूरे शरीर को प्रभावित कर सकती हैं। शोधकर्ताओं ने अब तक 100 से भी ज़्यादा ऑटोइम्यून बीमारियों की पहचान की है। 

लंबे समय तक स्वास्थ्य से संबंधित शोध पुरुषों पर होते थे, जिससे महिलाओं की कई बीमारियां सामने नहीं आ सकीं। जब इन शोधों में महिलाओं को शामिल किया जाने लगा तब जाकर यह बात सामने आई कि महिलाओं में ऑटोइम्यून बीमारी जैसा भी कुछ होता है वरना पहले के समय में महिलाओं में लंबे समय तक बने रहनेवाले दर्द को हिस्टीरिया, उनके मन का वहम, आदि बता दिया जाता था।

ऑटोइम्यून बीमारियां होने की वजह और लक्षण  

तस्वीर साभार: Only my health

ऑटोइम्यून बीमारियां क्यों होती हैं, इसके कारण अस्पष्ट हैं। इसके अलावा ये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती नहीं है और कुछ लोगों को इनके होने का जोखिम अन्य की तुलना में अधिक होता है। कुछ कारक आपके इससे ग्रस्त होने की सम्भावना को बढ़ा सकते हैं। ये कारक कुछ इस प्रकार हैं:

  • आपका स्त्री या पुरुष होना: पुरुषों की तुलना में महिलाओं के इसकी चपेट में आने की संभावना अधिक होती है। वे 15 वर्ष से लेकर 44 वर्ष की आयु के बीच कभी भी इसकी चपेट में आ सकती हैं। 
  • आनुवंशिक कारक: कुछ ऑटोइम्यून बीमारियों का आनुवंशिक आधार होता है। इन विकारों से जुड़े कुछ जीन एक्स गुणसूत्र पर स्थित होते हैं। चूंकि महिलाओं में दो X गुणसूत्र होते हैं, X गुणसूत्र पर स्थित जीन की वजह से वे इन बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती हैं। 
  • पर्यावरण सम्बन्धी कारक: सूरज की रौशनी, पारा, सॉलवेंट जैसे रसायनों या फिर कृषि में इस्तेमाल होनेवाले रसायनों, सिगरेट के धुएं और कुछ जीवाणु संबंधी और कोविड-19 जैसे वायरल संक्रमणों के सम्पर्क में आने से इस बीमारी का जोखिम बढ़ जाता है। 
  • पोषण: ऑटोइम्यून बीमारी का जोखिम और इसकी गम्भीरता इस पर निर्भर करती है कि आप आहार में क्या लेते हैं और उसमें पोषक तत्वों की मात्रा कितनी है। 
  • हॉर्मोन सम्बन्धी वजहें: एस्ट्रोजन महिलाओं में पाया जानेवाला प्रमुख हॉर्मोन होता है। प्रतिरक्षा तंत्र को नियंत्रित करने में इसकी भूमिका होती है। यौवनारम्भ, गर्भावस्था और मेनोपॉज के दौरान एस्ट्रोजन के स्तरों में उतार-चढ़ाव ऑटोइम्यून बीमारियों के होने और इसकी गम्भीरता की वजह बन सकता है। 
  • लम्बे समय चलनेवाला तनाव- लम्बे समय तक चलनेवाला मानसिक और शारीरिक तनाव इम्यून सिस्टम को कमज़ोर कर सकता है। इससे भी ऑटोइम्यून बीमारियों की सम्भावना बढ़ जाती है। 

इसके लक्षण कुछ लोगों में गंभीर, तो कुछ में हल्के हो सकते हैं। ऐसा भी होता है कि कभी लक्षण नजर आएं और न भी नज़र आएं या गायब हो जाएं। इसके आम लक्षणों में जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द होना, हमेशा थकान रहना, वज़न में कमी होना, त्वचा से जुड़ी समस्याएं होना, बार-बार बुखार आना, हमेशा उखड़ा-उखड़ा रहना, त्वचा पर लाल चकत्ते नज़र आना, बालों का गिरना जैसी समस्याएं शामिल हैं। 

पीड़ितों में महिलाओं की संख्या अधिक होने की सम्भावित वजह

तस्वीर साभार: Indian Express

महिलाओं में ऑटोइम्यून बीमारी के बारे में और समझने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने पुणे की स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉक्टर ऐश्वर्या से बात की। वे बताती हैं, “लंबे समय तक स्वास्थ्य से संबंधित शोध पुरुषों पर होते थे, जिससे महिलाओं की कई बीमारियां सामने नहीं आ सकीं। जब इन शोधों में महिलाओं को शामिल किया जाने लगा तब जाकर यह बात सामने आई कि महिलाओं में ऑटोइम्यून बीमारी जैसा भी कुछ होता है वरना पहले के समय में महिलाओं में लंबे समय तक बने रहनेवाले दर्द को हिस्टीरिया, उनके मन का वहम, आदि बता दिया जाता था। उन्होंने बताया कि कई नामी हस्तियां भी इसकी चपेट में आ चुकी हैं। प्रसिद्ध खिलाड़ी वीनस विलियम्स को स्जोग्रेन नाम की ऑटोइम्यून बीमारी हुई थी।”

हमारे समाज में महिलाओं की बीमारियों का सामान्यीकरण भी बहुत किया जाता है। इसकी वजह से बीमारियों की पहचान में ही काफ़ी समय निकल जाता है और इलाज में देरी हो जाती है।

उन्होंने यह भी बताया कि हमारे समाज में महिलाओं की बीमारियों का सामान्यीकरण भी बहुत किया जाता है। इसकी वजह से बीमारियों की पहचान में ही काफ़ी समय निकल जाता है और इलाज में देरी हो जाती है। डॉक्टर ऐश्वर्या ने हमारे समाज में महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति पर बात करते हुए बताया कि हमारे समाज में महिलाएं को अपनी कई इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। वर्तमान समय में इसे भी ऑटोइम्यून बीमारी की एक वजह माना जाता है। 

तस्वीर साभार: Freepik

ऑटोइम्यून बीमारियां होने के सटीक कारण क्या हैं, यह तो शोधकर्ताओं के लिए भी रहस्य का विषय है। लेकिन शारीरिक और मनोवैज्ञानिक तनाव को इनकी संभावित वजह माना जाता है और कुछ अध्ययन भी इसकी पुष्टि करते हैं। कुछ अध्ययनों से भी पता चलता है कि इसके 80 प्रतिशत रोगियों ने बीमारी की शुरूआत से पहले असामान्य स्तर का भावनात्मक तनाव अनुभव करने की जानकारी दी। इस बीमारी में तनाव एक दुष्चक्र की तरह है। यह इस बीमारी के होने में योगदान देता है और इस बीमारी से जूझ रहे लोग अत्यधिक तनाव से गुज़रते हैं। 

अगर हम आनुवांशिक और हॉर्मोन से जुड़े कारकों को छोड़ दें, तो हम पाएंगे कि इसे जन्म देनेवाले बहुत से अन्य कारक, जैसे कि पोषण, असल में सामाजिक संरचना की उपज हैं। इस सच्चाई में हमारे इस सवाल का जवाब हमें कुछ हद तक मिल जाएगा कि आख़िर क्यों अधिक संख्या में महिलाएं इससे जूझती हैं।

महिलाओं में तनाव और ऑटोइम्यून बीमारियों में उसकी भूमिका

अगर हम आनुवांशिक और हॉर्मोन से जुड़े कारकों को छोड़ दें, तो हम पाएंगे कि इसे जन्म देनेवाले बहुत से अन्य कारक, जैसे कि पोषण, असल में सामाजिक संरचना की उपज हैं। इस सच्चाई में हमारे इस सवाल का जवाब हमें कुछ हद तक मिल जाएगा कि आख़िर क्यों अधिक संख्या में महिलाएं इससे जूझती हैं। अगर बीमारी के पैदा होने में भावनात्मक और शारीरिक तनाव की अहम भूमिका है और  ख़ुद इस बीमारी से ग्रस्त लोग इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि बीमारी की शुरुआत से पहले उन्होंने अत्यधिक तनाव का सामना किया, तो सोचने की बात है कि आख़िर महिलाओं को इतना तनाव मिल कहां से रहा है? इस सवाल के जवाब हमारे पितृसत्तात्मक समाज की संरचना में खोजे जा सकते हैं। ज़ाहिर है महिलाओं को इतना तनाव उनके परिवार और समाज के द्वारा और समाज व पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उनके लिए तयशुदा भूमिकाओं, उन पर थोपी गई अपेक्षाओं की वजह से ही मिलता है। 

ऑटोइम्यून बीमारियों का इलाज तो नहीं है, लेकिन दवाओं से इन्हें नियंत्रित ज़रूर किया जा सकता है। इसके साथ ही इनसे बचाव के भी कोई निश्चित तरीक़े नहीं हैं।

महिलाओं में पोषण और उसकी भूमिका  

अगर हम इसके होने में योगदान देने वाले दूसरे अहम कारक पोषण की बात करें, तो हम पाएंगे कि इसमें भी हमारी मौजूदा सामाजिक संरचना महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिसमें किसी महिला से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी छोड़ परिवार के बाकी सभी सदस्यों की खान-पान संबंधी ज़रूरतों का ध्यान रखे। यही नहीं परिवार के सभी सदस्यों के भोजन कर लेने के बाद ही महिलाओं के भोजन करने का रिवाज अभी भी कई परिवारों में प्रचलित है। इसके अलावा परिवार में लड़कियों की पोषण संबंधी ज़रूरतों को प्राथमिकता न दिए जाने की वजह से भी महिलाओं की पोषण संबंधी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं। 

ऑटोइम्यून बीमारियों का इलाज तो नहीं है, लेकिन दवाओं से इन्हें नियंत्रित ज़रूर किया जा सकता है। इसके साथ ही इनसे बचाव के भी कोई निश्चित तरीक़े नहीं हैं। लेकिन कुछ डॉक्टर्स खान-पान पर ध्यान देने, तनाव से बचने, सिगरेट से दूर रहने और व्यायाम करने की सलाह देते हैं। साथ ही, न सिर्फ आम जनता बल्कि चिकित्सकीय दुनिया में भी ऑटोइम्यून बीमारियों के प्रति पूर्वाग्रहों को दूर कर महिलाओं के इस स्वास्थ्य स्थिति को देखे जाने की ज़रूरत है।

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