महिलाएं अल्पसंख्यक नहीं हैं वे बहुसंख्यक हैं। वे हर जगह मौजूद है और हमेशा से रही है लेकिन पुरुषों के द्वारा बनाए समाज ने उन्हें एक व्यवस्था के तहत हमेशा अदृश्य करके रखा गया है। इस ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने हर औसत से औसत चीज पुरुष को ध्यान में रखते हुए डिजाइन की है। हर व्यवस्था में उन्हीं का बोलबाल है और जिसका खामियाजा पुरुषों से इतर लैंगिक पहचान वालों को भुगतना पड़ा है। स्वास्थ्य शोध में इस अंतर का सीधा प्रभाव सेहत पर असर डालता है। उसमें भी जब उम्र के पड़ाव के नज़रिये से चीजों को जानना हो तो वहां वृद्ध महिलाओं को हमेशा पीछे रखा गया है। इसकी वजह प्रयोगशालाओं में लैंगिक पूर्वाग्रह का होना है।
दुनिया में तमाम बीमारियों या मानव जीवन को बढ़ाने को लेकर बड़े स्तर पर शोध कार्य चल रहे हैं। अरब-खरब डॉलर की बड़ी धनराशि इस उद्योग में लगाई जा रही है। विज्ञान के क्षेत्र में इसे सबसे बड़ी चुनौती माना जाता है। लेकिन अगर मानव जीवन को बढ़ाने वाली कोई दवा बनती है तो वह महिलाओं के प्रभावी होगी इसकी संभावना बहुत कम है। वह महिलाओं पर काम करेंगी इसकी संभावना बहुत कम है। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा इसलिए कि दुनिया भर में रिसर्च लैब में पिंजरों में चूहे भरे पड़े हैं जिनमें एक समानता यह है कि वे नर हैं।
विज्ञान लैब में लैंगिक भेदभाव
विज्ञान की दुनिया में महिलाओं को अनेक स्तर पर असमानता का सामना करना पड़ता है। प्रयोग से लेकर उसमें इस्तेमाल किए जाने वाले ऊतकों तक के नमूनों में यह असंतुलन देखने को मिलता है। अनुसंधान जगत में स्थित यह पूर्वाग्रह सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरा है। एनआईएच में महिला स्वास्थ्य पर शोध की एसोसिएट डायरेक्टर जेनीन क्लेटन का कहना है कि यह वास्तव में एक ब्लाइंड स्पॉट है जिससे हमारी जानकारियों में बड़ा अंतर पैदा हो गया हैं, यहां तक कि उन बीमारियों का अध्ययन करते समय भी जो महिलाओं में अधिक प्रचलित है। न्यूरोसाइंस एंड बायोबिहेवियरल रिव्यूज़ में प्रकाशित 2011 के एक अध्ययन के अनुसार, 2009 में तंत्रिका विज्ञान अध्ययनों में नर प्रयोगशाला में स्तनधारियों की संख्या मादाओं की तुलना में 5.5 से 1 अधिक थी।
जीव विज्ञानी डॉ. स्टीवन ऑस्टैड ने कहा है “यह एक गंभीर समस्या है। मादा चूहों पर गहन शोध की कमी का मतलब है कि हम केवल यह जानते हैं कि नर चूहों पर क्या कारगर है, मादा चूहों पर इसका कोई असर नहीं होता है।” पंरागत रूप से शोधकर्ता मादा जानवरों का उपयोग करने से बचते है क्योंकि उन्हें डर था कि हार्मोनल उतार-चढ़ाव और प्रजनन चक्र परिणामों को प्रभावित करेंगे। इतना ही नहीं प्रयोगशालाओं का संचालन भी अधिकतर पुरुषों द्वारा ही है। यह विज्ञान की दुनिया में स्थापित लैंगिक पूर्वाग्रह दिखाता है।
शोध में महिलाओं को प्रशिक्षिण के कई नुकसान है। दवा के बाद की अधिकांश जटिलताएं महिलाओं में होती हैं। इसकी स्वाभाविक वजह है कि नैदानिक (क्लीनकल) परीक्षणों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व कम है। उसी तरह जैसे मौलिक बायोलॉजिकल अध्ययनों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। सैंपल साइज विज्ञान शोध में हमेशा एक मुद्दा रहा है। अधिक सैंपल संख्या अधिक बेहतर परिणाम दे सकते है अधिक नमूने बेहतर बदलावों को दिखाने में मददगार होते हैं लेकिन समय और लगात बढ़ाते हैं साथ ही समय और पैसा भी।
जीवनकाल बढ़ाने वाली दवाओं में केवल नर जानवरों पर शोध
चूहों में जीवनकाल बढ़ाने वाली लगभग 75 फीसदी दवाएं केवल नर चूहों पर ही काम करती हैं। इन दवाओं को नर चूहों पर विकसित किया गया था, फिर बाद में दोनों लिंगों पर परीक्षण किया गया और पाया गया कि मादा चूहों पर इनका कोई असर नहीं हुआ। हालांकि शोधकर्ताओं को पता है कि मादा चूहे दवाओं के प्रति नर चूहों के भिन्न प्रतिक्रिया करते हैं, फिर भी ऐसे पृथक हस्तक्षेपों पर कोई अध्ययन नहीं हुआ है जो महिलाओं को अधिक स्वस्थ और लंबा जीने में मदद कर सकें। इस तरह के अध्ययनों के परिणाम यह स्पष्ट करते है 1990 के दशक में कई अध्ययन किए गए, जिनमें सभी ने एक जैसे आश्चर्यजनक परिणाम दिखाए।
द गार्जियन में प्रकाशित रिपोर्ट में बक इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन एजिंग में सहायक प्रोफेसर जेनिफर गैरिसन ने कहा “बायोमेडिकल रिसर्च और क्लिनिकल रिसर्च में वास्तव में गहरा लैंगिक पूर्वाग्रह है जो तब से चल रहा है जब से हमारे पास बायोमेडिकल रिसर्च है। पुरुष शरीर 100 सालों से जीवनविज्ञान की आधार रेखा रहा है और अगर आप महिला शरीर पर अध्ययन नहीं करते हैं, तो आप उनके बारे में कुछ नहीं सीख पाएंगे।” महिलाओं की स्वस्थ दीर्घायु बढ़ाने में अधिक प्रगति न होने का एक कारण यह है कि इस दिशा में शोध ही नहीं होते है। एक तरह से कहा जा सकता है कि रिसर्चों में इस सवाल का जवाब ढूढ़न में दिलचस्पी नहीं है।
महिलाओं को छोड़ देने से महत्वपूर्ण जानकारी खत्म हो जाती है
नर और मादा में हॉरमोनल उतार-चढ़ाव होता है। लेकिन लिंगों के बीच मूलभूत अंतर भी है महिलाओं और पुरुषों में अलग-अलग लक्षणों के साथ दिखाई देती हैं। महिलाओं को शोध में शामिल न होने से विभिन्नता के पक्ष को नकारा जा रहा है। विज्ञान जहां डेटा का सबसे अधिक वस्तुनिष्ठ और तर्कसंगत मुख्य सिद्धांत और शर्त है उसमें इस तरह के लैंगिक पूर्वाग्रह विज्ञान की समावेशी माहौल को पीछे रखते है। लैंगिक भेदों को समझने के लिए और अधिक प्रयास किए जाने चाहिए ताकि हम ऐसी दवाएं विकसित कर सकें जो दोनों लिंग के लिए फायदेमंद हों। महिलाओं को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। विज्ञान प्रयोगशालाओं में जेंडर बायस का मुद्दा जटिल और बहुस्तरीय है, जिसे सुधारने के लिए व्यापक प्रयासों की आवश्यकता है। इसके लिए संस्थानों, नीतियों, और समाज की साझेदारी की आवश्यकता है ताकि एक समावेशी और समान विज्ञान समुदाय का निर्माण हो सके।
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