‘औरत’ लेखिका अमृता प्रीतम द्वारा लिखा गया उपन्यास है। अमृता प्रीतम किसी पहचान की मोहताज नहीं है। वह सिर्फ एक लेखिका ही नहीं बल्कि नारी जीवन की अवधारणा का मुक्कमल उदाहरण हैं। लेखिका अमृता प्रीतम के स्वछन्द ख्याल जो कल्पना को पोषते हैं, उन्हें अमृता ने जीवंत किया है। उनके उपन्यास,कहानी और कविताएं इसी अवधारणा के प्रतिबिंब हैं। अमृता की इन्हीं विशेषताओं के कारण पाठक खुद को उनके करीब पाते हैं और जीवन को देखने का एक अलग नजरिया मिलता है। इस उपन्यास में अमृता ने विभिन्न किरदारों के माध्यम से महिला जीवन के अलग-अलग पहलुओं को बड़ी मजबूती से उकेरा है।
इन उपन्यास में उन महिलाओं का जिक्र भी है जिन्हें किताबी शिक्षा तो नहीं प्राप्त हुई है लेकिन वह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलुओं को एक बुद्धजीवी वर्ग की भांति बखूबी समझती हैं। वह अपने अस्तित्व को पहचानती है और अपना जीवन निरर्थक नहीं होने देना चाहती। उपन्यास ‘औरत’ के औरतों को पता है कि उनका जीवन महज रूढ़िवादी विचारों और सामाजिक मापदंडों के हत्थे चढ़ने के लिए नहीं है।
यह उपन्यास इस बात को बताने में अपनी भूमिका बखूबी निभाता है कि सामाजिक व्यवस्था में व्यावहारिक तौर पर महिलाओं की क्या स्थिति है और उन्हीं स्थितियों में जिन महिलाओं ने हिम्मत की है वे अपना अस्तित्व बचा पाने में कामयाब हुई है और एक स्वतंत्र जीवन का आगाज़ किया है।
वह समाज के चौखटे में फिट आने के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन का बलिदान नहीं कर सकती हैं। वह कहती हैं कि इस समाज में मनुष्य को पुरुष के रूप में परिभाषित किया गया है। उस श्रेणी में महिलाओं का कोई अस्तित्व ही नहीं है। उपन्यास के माध्यम से अमृता ने औरत के उसके गर्भ में होने से लेकर उसकी मृत्यु तक के सम्पूर्ण जीवन का एक मर्मस्पर्शी दस्तावेज प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास सम्पूर्ण समाज का दर्पण है। पाठक जब इस उपन्यास को पढ़ना शुरू करते हैं तो जाने कितनी कहानियां सामने यूं घूमने लगती हैं जैसे वे हमारे इर्द-गिर्द घटित हो रहीं हों या हुई हों। इस उपन्यास में पाठकों को धाराप्रवाहिता मिलेगी। उपन्यास औरत अलग-अलग अध्याय में लिखा गया है। प्रत्येक अध्याय महिला के जीवन के किसी पड़ाव को किसी अलग किरदार के रूप में वर्णित हैं और कुछ अध्याय में जाने-माने लेखकों की कहानियों और उपन्यासों का सारांश है।
सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति
हर अध्याय जीवन के किसी न किसी चरण का विवरण है। यह उपन्यास इस बात को बताने में अपनी भूमिका बखूबी निभाता है कि सामाजिक व्यवस्था में व्यावहारिक तौर पर महिलाओं की क्या स्थिति है और उन्हीं स्थितियों में जिन महिलाओं ने हिम्मत की है वे अपना अस्तित्व बचा पाने में कामयाब हुई है और एक स्वतंत्र जीवन का आगाज़ किया है। उपन्यास की शुरुआत होती है कुछ ऐसे अध्यायों से जिसमें लड़कियों और महिलाओं को बेघर कर दिया गया है और वे किसी बालिका गृह में अपना जीवन व्यतीत कर रहीं हैं।
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अध्याय ‘नारी निकेतन’, ‘बालिका गृह’ ‘सेवा कुटीर’ नामक शीर्षकों से लिखा गया है जोकि उन सम्पूर्ण औरतों का घर है जिन औरतों को उनके अपने ही घरों में अपनी जगह नहीं मिली और तुच्छ समझ कर उन्हें निकाल दिया गया। उनमें वे शामिल हैं जो पुत्रों को जन्म नहीं दे सकीं। साथ ही साथ वहां वे लड़कियां हैं जिन्होंने जन्म ले लिया पर उन्हें घर से बेघर कर दिया गया। नारी निकेतन में रह रहे सभी सदस्यों का रख-रखाव विद्यावाती नाम की महिला करती हैं।
वह कहती है कि औरत कहां बेकसूर होती है? बेटी औरत होने का कसूर माथे पर लिखवा कर जन्म लेती है। यह कथन अंदर से झँझोरता है जब आपका होना ही अपराध लगे तब उस ज़िंदगी से कितनी निराशा होगी इसका अनुमान लगा पाना भी कठिन है।
महिलाओं का जीवन और उसके अधूरे सपने
वे भी सामाजिक उपेक्षा का शिकार हैं। वे चाहती हैं वहां रह रही सभी लड़कियों का विवाह हो जाए और उन्हें सानिध्य प्रेम और इज्जत (उनके आत्मसम्मान) के साथ एक मुक्कमल जीवन मिले। अमृता प्रीतम जिक्र करती हैं एक बालिका गृह का जिसमें वे बच्चियां रहती हैं जिसने इस दुनिया में कदम तो रखे हैं लेकिन न ही उनका कोई वर्तमान है न ही कोई सुनिश्चित भविष्य। आगे ऐसे भी बालिका गृह का वर्णन किया गया है जिसमें बच्चियों के जन्म के बाद उनकी मां को छोड़ दिया गया और उन माओं ने उनके पालन पोषण का खर्च न उठाने पाने के कारण उन्हें बालिका गृह में छोड़ दिया ये लड़कियां अपने जीवन से रुष्ट हैं। ना उनके कोई सपने हैं और ना ही उसे पूरा होने की उम्मीद है। एक पुनी चढ़ाई,एक उतारी में दो लोगों के मध्य की बातचीत है जिसमें उनके जीवन के बारे में पूछने पर एक महिला कहती है कि चेतना हो ना हो, अंगों पर जैसे जवानी चढ़ती है, मन पर सपने भी उसी तरह चढ़ते हैं।
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औरत भले ही पढ़ी-लिखी ना हो, पर हाथ-पांव की तरह सपने भी उसके शरीर का अंग होते हैं। यह कथन कितना यथार्थ लगता है सपने जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाते है और यह मानसिक विकास का एक हिस्सा है। लेकिन इस समाज ने महिलाओं को सिर्फ शरीर तक ही समझा है। चाहे घरेलू काम हों, स्त्री-पुरुष का संबंध हो या बच्चे जन्मने हों, महिला की बुद्धिमत्ता को कभी तवज्जो नहीं दी गई। इसी वार्तालाप के दौरान वह कहती है कि औरत कहां बेकसूर होती है? बेटी औरत होने का कसूर माथे पर लिखवा कर जन्म लेती है। यह कथन अंदर से झँझोरता है जब आपका होना ही अपराध लगे तब उस ज़िंदगी से कितनी निराशा होगी इसका अनुमान लगा पाना भी कठिन है।
वह औरत और मर्द के संबंधों के बारे में लिखती हैं कि औरतों से किसी भी मर्द का परिचय किसी रिश्ते का मोहताज होता है, वह उसका जरूर उसका कुछ लगना चाहिए। एक मोहर की तरह एक ठप्पे की तरह।
जीवनभर काम में लगी महिलाओं का कैसे होता है आकलन
दो रोटियां की मोहताज़ी अध्याय में एक बहुत ही सशक्त महिला का उदाहरण दिया गया है जो कहती है कि दो रोटियों की ही तो मोहताज़ी है। ना इतनी तो मांगकर खाने वाले की भी बुरी हालत नहीं होती जितनी घर की औरत की होती है। वह रोटी भी क्या खानी जिसके साथ मार खानी पड़े। वह चाय का घूट एक पीती है तो आँसू सौ पीती हैं। वह महिलाएं जो जीवनभर कामों में लगी होती हैं, लेकिन उसका कोई आकलन नहीं है, वे सिर्फ मौलिक आवशकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं। यही कारण है कि वे घरेलू हिंसा का शिकार बनी रहती हैं। ऐसा नहीं है कि वे अपने आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकती हैं लेकिन पितृसत्तात्मक विचारधारा के पोषकों ने महिलाओं को हमेशा से वस्तु की तरह देखा है।
औरत और मर्द के संबंध
वह औरत और मर्द के संबंधों के बारे में लिखती हैं कि औरतों से किसी भी मर्द का परिचय किसी रिश्ते का मोहताज होता है, वह उसका जरूर उसका कुछ लगना चाहिए। एक मोहर की तरह एक ठप्पे की तरह। मानसिक मित्रता तो मानो ऐसा लिफाफा है, जो समाज के डाकघर में दल ही नहीं जा सकता क्योंकि उसपर किसी रिश्ते का डाक टिकट नहीं लगा रहता, तो फिर मैं बैरंग चिट्ठी कहां पहुंचाती। उपन्यास का यह अंश समाज में महिला और पुरुषों की दोस्ती पर समाज की प्रतिक्रिया क्या होती है, समाज किस तरह महिला का चरित्रचित्रण करता है, उसे बताता है।
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महिला-पुरुष को रिश्ते को बताने के लिए वह उर्दू लेखिका रज़िया सज्जाद ज़हीर की बातों को भी लिखती हैं कि वे महिलाएं जो बुद्धहजीवी हैं जिन्हें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं का ज्ञान है, वह चाहती हैं कि उन्हें भी ऐसे ही साथी मिले। वे उस स्तर की बातें कर सकें जोकि महिलाओं में शिक्षा के अभाव के कारण नहीं मिलता है। इसलिए वह बुद्धिमान मर्दों का साथ कहती हैं लेकिन उन मर्दों के लिए उनका औरतपन पहली चीज होती है। उनका मानसिक स्तर नहीं। यानी महिलाओं का आकलन केवल उनके देह से ही शुरू होता है।
वे महिलाएं जो बुद्धहजीवी हैं जिन्हें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं का ज्ञान है, वह चाहती हैं कि उन्हें भी ऐसे ही साथी मिले। वे उस स्तर की बातें कर सकें जोकि महिलाओं में शिक्षा के अभाव के कारण नहीं मिलता है।
महिलाओं पर कामकाजी या घरेलू होने का टैग
अमूमन समाज औरतों के बाहर जाकर काम न करने के पक्ष में यह स्पष्टीकरण देते हैं कि बाहर जाकर काम करने वाली औरतें गृहस्थी नहीं संभाल सकती और ना ही उनके बच्चों का उचित पालन-पोषण हो पाता है। इस बात को वह खारिज करती हैं और अपनी बात को तर्कसंगत बनाने के लिए अनेक उदाहरण और रिपोर्ट का जिक्र करती हैं जो बेहतरीन माँएं भी साबित हुई हैं। ऐसी महिलाएं जिन्होंने विज्ञान, शिक्षा, कला और राज्य प्रबंध जैसे कामों में अपना योगदान दिया है। वह फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बोउआर के एक कथन का जिक्र करती हैं कि औरतपन एक छलिया हथियार जो महिलाओं को छलते चला आ रहा है। औरत के नाम पर सारे अधिकार उनसे छीन लिए गए। सभ्यता और संस्कृति के नाम पर उन्हें मानसिक गुलाम बना दिया गया और वे पुरुषों के अधीन ही रहीं।
उन्होंने कुछ लिया नहीं, सिर्फ ग्रहण किया जो भी उन्हें दे दिया गया। इसलिए, वह सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं को जो उनपर थोपा जाता है, स्वाभाविक रूप से समझती हैं। हम सबने यह देखा है और महसूस भी किया होगा कि हमारी माँएं जोकि हमारे भविष्य के विषय में सोचती हैं, वह हमारा जीवन अपने से बिल्कुल अलग चाहती हैं। फिर भी हमें सामाजिक मापदंडों का पाठ पढ़ाती हैं ताकि सामाजिक स्वीकृति बनी रहे। इसी प्रकार इस उपन्यास में अनेक उदाहरण हैं, जो बताते हैं किस तरह महिलाओं का शोषण हुआ है। वे जो समझती हैं कि उनका अस्तित्व क्या है वे इस समाज का हिस्सा क्यों बनी हुई हैं, जिन महिलाओं ने इस समाज का त्याग किया, उन्हें कैसी स्थितियों का सामना करना पड़ा। उपन्यास ‘औरत’ के हर पहलुओं का एक अद्भूत साक्ष्य है।