इंटरसेक्शनलजेंडर क्यों दिल्ली जैसे शहर में भी सार्वजनिक जगहों में ब्रेस्टफीडिंग कराना चुनौतीपूर्ण है?

क्यों दिल्ली जैसे शहर में भी सार्वजनिक जगहों में ब्रेस्टफीडिंग कराना चुनौतीपूर्ण है?

बेस्टफीडिंग के दौरान माँ और बच्चे के बीच एकतरह का जुड़ाव हो जाता है। यह जुड़ाव शिशुओं के विकास के लिए बेहद जरूरी भी है। ऐसे समय में बच्चे माँ के साथ ज्यादा महफूज़ महसूस करते हैं और कहीं न कहीं यह मानसिक विकास के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है।

ब्रेस्टफीडिंग या स्तनपान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। ब्रेस्टफीडिंग, जिसे नर्सिंग भी कहा जाता है, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मां का दूध उसके शिशु को सीधे स्तन से पिलाया जाता है, या तो स्तन से दूध निकालकर (पंप करके) शिशु को बोतल से दूध पिलाया जाता है। ब्रेस्ट मिल्क शिशु के विकास और पोषण संबंधित ज़रूरतों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार सभी शिशुओं को 6 माह तक केवल ब्रेस्टफीड कराया जाना चाहिए और इसके बाद 6 महीने के बाद धीरे-धीरे उपयुक्त आहार देना शुरू कर देना चाहिए और 2 वर्ष या उससे अधिक समय तक ब्रेस्टफीडिंग जारी रखा जाना चाहिए।

शिशुओं को ब्रेस्टफीडिंग करवाने से उन्हें कई बीमारियों से बचाया जा सकता है लेकिन 194 देशों का मूल्यांकन करने वाले ग्लोबल ब्रेस्टफीडिंग स्कोरकार्ड ने पाया कि छह महीने से कम उम्र के केवल 40 प्रतिशत बच्चों को विशेष रूप से ब्रेस्टफीड कराया जाता है (ब्रेस्टमिल्क के अलावा कुछ नहीं दिया जाता) और केवल 23 देशों में विशेष ब्रेस्टफीड की दर 60 प्रतिशत से अधिक है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के अनुसार पिछले छः महीने में ब्रेस्टफीडिंग द्वारा पोषण केवल 41.6 प्रतिशत शिशुओं को ही मिल पाया है। इन आंकड़ों में कमी की कई कारण है। इसके तह में जाने पर सबसे बड़ा कारण पब्लिक स्पेस मालूम होता है।

मैं घर से डब्बा में दूध भर के लाती हूं क्योंकि बाहर ब्रेस्टफीड कहां करवाएं यह सोचना पड़ता है। लेकिन बच्चा जब बहुत रोने लग जाता है, तो उसे ब्रेस्टफीडिंग कराना जरूरी हो जाता है। तब मुझे दुकान छोड़कर कहीं किसी कोना तलाशनी पड़ती है ताकि मैं अपने बच्चे ब्रेस्टफीड करा सकूं।

ब्रेस्टफीड के लिए पब्लिक स्पेस की कमी

हमारे देश में पब्लिक स्पेस में ब्रेस्टफीडिंग जगहों की भारी कमी है। ब्रेस्टफीडिंग जोकि एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन फिर भी महिलाएं पब्लिक स्पेस में सहज नहीं हो पाती हैं या जो महिलाएं ब्रेस्टफीड कराना भी चाहे तो उन्हें रोका जाता है। इसपर दिल्ली में चार साल से रह रही आगरा की मूल निवासी 40 वर्षीय नगमा कहती हैं, “मेरा सात माह का एक लड़का है। उसका पालन-पोषण अच्छे से हो पाये उसके लिए मैं और मेरे पति छोटा-मोटा काम करते रहते हैं। पति रिक्शा चलाते हैं तो मैं गुब्बारे बेचने की काम करती हूं ताकि अपना जीवन बसर हो पाए और बच्चे को भी पौष्टिक आहार मिल जाए। छोटे बच्चें के साथ काम करना बहुत मुश्किल हो जाता है। सबसे ज्यादा दिक्कत तब आती है जब बच्चे को ब्रेस्टफीड करना हो। हालांकि मैं घर से डब्बा में दूध भर के लाती हूं क्योंकि बाहर ब्रेस्टफीड कहां करवाएं यह सोचना पड़ता है। लेकिन बच्चा जब बहुत रोने लग जाता है, तो उसे ब्रेस्टफीडिंग कराना जरूरी हो जाता है। तब मुझे दुकान छोड़कर कहीं किसी कोना तलाशनी पड़ती है ताकि मैं अपने बच्चे ब्रेस्टफीड करा सकूं।”

तस्वीर साभार: Economic Times

हर साल एक से सात अगस्त तक विश्व ब्रेस्टफीडिंग सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। इसका उदेश्य महिलाओं को ब्रेस्टफीडिंग के महत्व के प्रति जागरूक करना होता है। नवजात शिशु के लिए ब्रेस्टफीडिंग एक गुणवत्ता पूर्ण भोजन है और उसके विकास में अहम भूमिका निभाता है। डबल्यूएचओ के अनुसार, पिछले 12 वर्षो में, दुनिया भर में छः महीने से कम उम्र की शिशुओं की संख्या में 10 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई है, जिन्हें केवल ब्रेस्टफीडिंग करवाया जाता है। इसका मतलब है कि दुनिया भर में 48 प्रतिशत शिशुओं को अब जीवन में इस स्वस्थ शुरुआत का लाभ मिलता है और ब्रेस्टफीडिंग से लाखों शिशुओं की जान बच गई है। ब्रेस्टफीडिंग पोषण ही नहीं जीवन की वह धारा है जिससे माँ और बच्चे के स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लेकिन कामकाजी महिलाओं के लिए ब्रेस्टफीडिंग करवाना बेहद मुश्किल हो जाता है क्योंकि कामकाजी जगह या पब्लिक स्पेस में सांस्कृतिक रूढ़िवाद की वजह से महिलाएं खुलकर ब्रेस्टफीड नहीं करा सकतीं।  

यूनिसेफ के एक विश्लेषण के अनुसार ब्रेस्टफीडिंग से वंचित शिशुओं की संख्या अभी भी बहुत अधिक है, खासकर दुनिया के सबसे अमीर देशों में। दुनिया भर में, हर साल लगभग 7.6 मिलियन शिशुओं को ब्रेस्टफीडिंग नहीं कराया जाता है।

कितना मुश्किल है सार्वजनिक जगहों में ब्रेस्टफीड कराना

यूनिसेफ के एक विश्लेषण के अनुसार ब्रेस्टफीडिंग से वंचित शिशुओं की संख्या अभी भी बहुत अधिक है, खासकर दुनिया के सबसे अमीर देशों में। दुनिया भर में, हर साल लगभग 7.6 मिलियन शिशुओं को ब्रेस्टफीडिंग नहीं कराया जाता है। द क्विंट के एक खबर के अनुसार, 73 फ़ीसद महिलाएं बच्चों को जन्म देने के बाद ही अपनी नौकरी छोड़ देती हैं। इसके साथ ही 50 फ़ीसद महिलाएं 30 की उम्र में ही बच्चों की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी से इस्तीफा दे देती हैं।

तस्वीर साभार: Scroll.in

केवल 27 फ़ीसद महिलाएं बच्चे के बाद, वापस नौकरी करने के लिए खुकार्यबल में आती हैं। इसके तह में जाने पर कई कारण समझ आते हैं। एक तो, सदियों से यह परंपरा बनाई गई है कि बच्चा संभालने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती और दूसरा, शहर के भीड़भाड़ या यहां तक दफ्तरों में भी में कोई ऐसी जगह नहीं है जहां महिलाएं आराम से ब्रेस्टफीड करवा पाएं या ब्रेस्टमिल्क पम्प कर पाएं। अगर कोई महिला सार्वजनिक स्थान पर ब्रेस्टफीडिंग करवाती नज़र आती हैं, तो उन्हें अश्लील घोषित कर दिया जाता है।

कामकाजी महिलाओं के लिए ब्रेस्टफीडिंग की मुश्किलें

जानकारी के मुताबिक, जिन बच्चों को ब्रेस्टफीड से रोका जाता है, उन्हें बचपन में शुरू होने वाले डायबिटीज की बीमारी अधिक होती है। उनमें अपेक्षाकृत बुद्धि का विकास कम होता है। इसपर दिल्ली में नौकरी तलाश कर रही गोरखपुर उतर प्रदेश की मूल निवासी 25 वर्षीय पुनम कहती हैं, “मैं नौकरी की तलाश में हूं। परिवार में चार लोग हैं। एक छः माह का बच्चा भी है। जब भी काम के तलाश में बाहर जाती हूं, तो साथ में बच्चा भी होता है, जिसके वजह से कई दिक्कतों से जूझना पड़ता है। पब्लिक स्पेस में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहां बैठकर बच्चे को आराम से ब्रेस्टफीड कराया जा सके।”

मैं नौकरी की तलाश में हूं। परिवार में चार लोग हैं। एक छः माह का बच्चा भी है। जब भी काम के तलाश में बाहर जाती हूं, तो साथ में बच्चा भी होता है, जिसके वजह से कई दिक्कतों से जूझना पड़ता है। पब्लिक स्पेस में कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहां बैठकर बच्चे को आराम से ब्रेस्टफीड कराया जा सके।

वह आगे कहती हैं, “कहीं भी बैठो तो लोगों की घूरती निगाह वहां पहुंच ही जाती है। ऐसे में बहुत शर्म का सामना भी करना पड़ता है। पब्लिक स्पेस में ब्रेस्टफीड करवाने की जगह बहुत कम है। समझ नहीं आता है कहां बैठकर सुकून से ब्रेस्टफीड करवा सकें। एक अजीब सी झिझक होती है और जब बच्चे ऐसे समय में रोने लगे तो और भी ज्यादा झुंझलाहट होती है। इसलिए जबतक बच्चा छोटा है, तबतक बाहर जाना कम ही करती हूं और अगर जाना बहुत जरूरी हो तो कोशिश करती हूं डब्बे का दूध पिलाऊँ।”

सिंगल माताओं की समस्या

तस्वीर साभार: Unicef

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दूध को स्टोर कर बाद में शिशुओं को पिलाना गलत नहीं है। लेकिन, इस प्रक्रिया में दूध में पोषक तत्वों के घटने की संभावना बनी रहती है। ठंडा दूध शिशुओं के लिए हानिकारक भी होता है। ऐसे में, जो कामकाजी महिलाएं हैं जो अक्सर ब्रेस्टमिल्क को फ्रिज में रखती हैं और भूख लगने पर बच्चों को देती हैं, उन्हें ज्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है। इस विषय पर दिल्ली में नौकरी कर रही बिहार के छपरा जिला की रहने वाली चंदा कहती हैं, “एक महिला को नौकरी करने के लिए अनेक संघर्ष करने पड़ते हैं। खासकर, सिंगल माँ को। मेरी तीन साल की लड़की है। वो हमेशा से मेरे साथ काम पर गई है और अभी भी जाती है। बच्चों के साथ घर से बाहर निकलना और भी मुश्किल हो जाता है। ख़ासकर तब जब बच्चे के साथ बस या मेट्रो जैसी सार्वजनिक वाहन में सफर कर रहे हों।”

कहीं भी बैठो तो लोगों की घूरती निगाह वहां पहुंच ही जाती है। ऐसे में बहुत शर्म का सामना भी करना पड़ता है। पब्लिक स्पेस में ब्रेस्टफीड करवाने की जगह बहुत कम है। समझ नहीं आता है कहां बैठकर सुकून से ब्रेस्टफीड करवा सकें। एक अजीब सी झिझक होती है और जब बच्चे ऐसे समय में रोने लगे तो और भी ज्यादा झुंझलाहट होती है।

 वह आगे कहती हैं, “दिल्ली एक बहुत भीड़भाड़ वाला शहर है। यहां लोग अपने काम में व्यस्त हैं। लेकिन फिर भी उनकी नज़र एक-दूसरे के हरकतों, कामों पर ज्यादा होता है। बच्चों के साथ बाहर जाने में सबसे ज्यादा दिक्कत तब आती है जब वह भूख से रोने लगे और उन्हें ब्रेस्टफीड करना हो। हालांकि डब्बे में दूध भर के लाती हूं। लेकिन माँ और बच्चे का ऐसा रिश्ता है कि जबतक वह माँ का दूध नहीं पिए तबतक वो चुप नहीं हो पाते हैं। ऐसे में, शहर है तो बहुत सुंदर लेकिन सार्वजनिक स्थान पर ब्रेस्टफीडिंग करवाने में काफी दिक्कत होती है।”

बेस्टफीडिंग के दौरान माँ और बच्चे के बीच एकतरह का जुड़ाव हो जाता है। यह जुड़ाव शिशुओं के विकास के लिए बेहद जरूरी भी है। ऐसे समय में बच्चे माँ के साथ ज्यादा महफूज़ महसूस करते हैं और कहीं न कहीं यह मानसिक विकास के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या हमारा समाज इस बात को नहीं समझता कि ब्रेस्टफीड अश्लीलता नहीं जरूरत है। क्या एक ऐसा समाज नहीं बन सकता जहां महिलाओं को न सिर्फ सार्वजनिक स्थान पर निश्चित होकर ब्रेस्टफीडिंग की जगह मिले, बल्कि खुले में भी बिना झिझक के वे ब्रेस्टफीड करा पाएं। ब्रेस्टफीडिंग के दौरान तथाकथित संस्कृति के नाम पर माँ को कई तरह की बातें समझाई जाती हैं जोकि नवजात शिशु के साथ बाहर निकलने पर उस महिला के लिए परेशानी बढ़ा देता है।

बच्चों के साथ बाहर जाने में सबसे ज्यादा दिक्कत तब आती है जब वह भूख से रोने लगे और उन्हें ब्रेस्टफीड करना हो। हालांकि डब्बे में दूध भर के लाती हूं। लेकिन माँ और बच्चे का ऐसा रिश्ता है कि जबतक वह माँ का दूध नहीं पिए तबतक वो चुप नहीं हो पाते हैं।

साथ ही इससे जुड़े कई ऐसे मिथक होते हैं जिनको माँ को मानने की सलाह दी जाती है। जैसे, घर से बाहर बेस्टफीड नहीं कराना चाहिए, सर पर कपड़ा रखकर बेस्टफीड कराना चाहिए या लेटकर बेस्टफीड नहीं कराना चाहिए। पितृसत्तात्मक सोच और ऐसी धारणाओं के कारण कई माँएं घर से बाहर निकलना ही छोड़ देती हैं। यह बहुत सीधा विषय है। लेकिन इस पर बात नहीं होती है और ना ही बहस ही। लोग ऐसे मुद्दे पर बात करने तक से झेंपते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर ब्रेस्टफीडिंग करवाने की सुविधा होने से बहुत बदलाव न सही लेकिन यह अहम कदम होगा एक सहज समाज बनाने में जहां ब्रेस्टफीडिंग एक टैबू न हो।

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