भारत के कैंपस में बढ़ते मानसिक स्वास्थ्य संकट और ज़रूरी सपोर्ट सिस्टम का अभावभारत में विद्यार्थियों के बीच बढ़ते मानसिक स्वास्थ्य संकट ने कैंपस में सहायता प्रणालियों की जरूरत को उजागर किया है। 2022 में ‘यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन’ (यूजीसी) ने हर कैंपस में मानसिक स्वास्थ्य के लिए विशेष सेल बनाने के निर्देश दिए थे, लेकिन स्थिति अभी भी चिंताजनक है। अधिकांश विद्यार्थियों का कहना है कि उनके कैंपस में ऐसी सुविधा नहीं है या इसकी जानकारी नहीं है। जिन कैंपसों में सहायता उपलब्ध है, वहां भी स्थिति आदर्श नहीं है।
वाइली की ‘द स्टूडेंट मेंटल हेल्थ लैंडस्केप’ (फरवरी-मार्च 2024) सर्वेक्षण के अनुसार, कॉलेज कैंपसों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं, जिससे अधिकांश विद्यार्थी प्रभावित हो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 80 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी भावनात्मक संघर्ष का सामना कर रहे हैं, जबकि एक चौथाई विद्यार्थी गंभीर रूप से संघर्ष कर रहे हैं। 58 प्रतिशत विद्यार्थियों ने मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में गिरावट का अनुभव किया, 59 प्रतिशत एंग्ज़ाइटी, 58 प्रतिशत बर्नआउट, और 43 प्रतिशत अवसाद से ग्रस्त पाए गए।
मानसिक स्वास्थ्य और विद्यार्थियों जीवन के बीच संबंध
कॉलेज जीवन स्कूल के सख्त नियमों के बाद विद्यार्थियों के लिए आज़ादी का पहला अनुभव होता है। यहां वे नए दोस्तों से मिलते हैं, पढ़ाई के साथ घूमते-फिरते हैं, और कैंपस की सोसायटीज़ से जुड़कर अपने व्यक्तित्व को निखारते हैं। यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण समय होता है, लेकिन यह बदलाव अक्सर चुनौतीपूर्ण भी हो सकता है। कॉलेज की आज़ादी के साथ ज़िम्मेदारियां और नौकरी पाने का दबाव भी आता है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। अकादमिक या निजी कारणों से विद्यार्थियों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिनके बारे में वे अक्सर किसी से बात भी नहीं कर पाते। ख़ासकर लड़कियां और एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के विद्यार्थी इस समय मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का सामना करते हैं, जिन पर खुलकर बात नहीं हो पाती।
मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषा और महत्व
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य मानसिक तंदुरुस्ती की एक ऐसी स्थिति है, जो लोगों को जीवन के तनावों से निपटने, अपनी क्षमताओं को पहचानने, अच्छी तरह से सीखने और काम करने तथा अपने समुदाय में योगदान करने में सक्षम बनाती है। हम कैसे सोचते हैं, कैसा महसूस करते हैं और कैसे काम करते हैं, इसमें मानसिक स्वास्थ्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह यह निर्धारित करने में मदद करता है कि हम तनाव को कैसे संभालते हैं, दूसरों से कैसे जुड़ते हैं और अपने लिए ज़रूरी फैसले कैसे लेते हैं। कॉलेज छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है क्योंकि लोगों को लगता है कि तनाव और दबाव केवल वयस्कों का मामला है।
या इस दौर में तनाव आम है। दरअसल, दिक्कत यही है कि हम ऐसा सोचते हैं। कॉलेज विद्यार्थियों में आत्महत्या से मौत की उच्च दर का सीधा संबंध तनाव और अवसाद जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पिछले पांच सालों में 130 मेडिकल छात्रों की आत्महत्या से मौत हुई। यह जानने के बाद, जब राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग’ (एनएमसी) ने मई 2024 में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण शुरू किया, तो उसमें 37,000 मेडिकल विद्यार्थियों ने कहा कि वे संभावित खतरनाक मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं, जिसमें एंग्ज़ाइटी और काम के दबाव से लेकर अत्यधिक तनाव तक शामिल हैं।
भारत के कैंपस में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का प्रकोप
दुनिया भर के कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं में तेजी से वृद्धि हो रही है। चाहे वह संख्या के दृष्टिकोण से हो या समस्या की गंभीरता के स्तर पर। ऐसे तेज़ी से हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों, माइग्रेशन, सामाजिक नेटवर्क के टूटने और नशीले पदार्थों के उपयोग के कारण हो सकता है। शैक्षणिक कारक जैसे कि कठिन पाठ्यक्रम, बढ़ती प्रतिस्पर्धा, शैक्षणिक कठिनाइयां और शिक्षकों की कम योग्यता भी तनाव का कारण हो सकते हैं। भारत और दुनिया के अधिकांश कॉलेजों में वर्तमान में विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को संबोधित करने के लिए आवश्यक ढांचा मौजूद ही नहीं है।
लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक के छात्र रह चुके 21 वर्षीय अर्पित कहते हैं, “विद्यार्थी जीवन में मानसिक तनाव होना आम बात है। पढ़ाई या करियर को लेकर विद्यार्थी अक्सर तनावग्रस्त हो जाते हैं। मुझे भी कई बार किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता महसूस हुई, जो इस तनाव को कम करने में सहयोग कर सके। लेकिन मेरे कैंपस में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर फिलहाल किसी भी प्रकार का कोई संगठन या सहयोग नहीं है। हालांकि, कई बार औपचारिकतावश मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सेमिनार आयोजित होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अगर इसको लेकर एक पूरी तरह से समर्पित संगठन या सेल होता, तो हमारे लिए कभी भी जाकर बात करना सुलभ और आसान होता।”
विद्यार्थी जीवन में मानसिक तनाव होना आम बात है। पढ़ाई या करियर को लेकर विद्यार्थी अक्सर तनावग्रस्त हो जाते हैं। मुझे भी कई बार किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता महसूस हुई, जो इस तनाव को कम करने में सहयोग कर सके। लेकिन मेरे कैंपस में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर फिलहाल किसी भी प्रकार का कोई संगठन या सहयोग नहीं है।
अर्पित जैसे कई अन्य विद्यार्थियों से बात करने पर पता चलता है कि कुछ प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कॉलेजों के अलावा, अन्य सामान्य कॉलेजों में इस तरह की सुविधा नहीं है, जो विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए समर्पित होकर काम कर सके। यहां तक कि प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों में भी इस तरह के प्रबंध नहीं हैं, तो ग्रामीण क्षेत्रों के कॉलेजों में ऐसी व्यवस्था की उम्मीद करना और भी मुश्किल है। पत्रकारिता में मास्टर्स की पढ़ाई कर रहीं 24 वर्षीय कोमल (बदला हुआ नाम) कहती हैं “स्कूल से निकलकर जब एक बच्चा कॉलेज में आता है तो उसे मेंटल हेल्थ जैसा कुछ है भी, इस बारे में उतना पता नहीं होता। वैसे आजकल तो फिर भी काफ़ी अवेयरनेस है, लेकिन फिर भी सोसायटी में अब भी एक टैबू है। अगर कॉलेज में इस बारे में अवेयरनेस बढ़ाई जाए, तो इसे लेकर और एक्सेप्टिंग होंगे।”
क्या किए गए प्रयास और सुधार की जरूरत
भारत में कई संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है। लेकिन कुछ प्रमुख संस्थानों ने सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। उदाहरण के लिए, IIT ने वेलनेस सेशन, जागरूकता अभियान, और बाहरी ई-परामर्श सेवाओं के साथ टाईअप्स किए हैं ताकि विद्यार्थियों को तनाव, अवसाद और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने में मदद मिल सके। इसके अलावा, केरल सरकार ने ‘जीवनी‘ नाम से एक व्यापक कॉलेज मानसिक स्वास्थ्य प्रोजेक्ट शुरू किया है, जो सभी सरकारी कला और विज्ञान कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करता है। हालांकि, जेंडर के लिहाज़ से ये भी ‘वन साइज़ फीट्स ऑल’ एप्रोच का नतीजा है। इसलिए, यह देखना होगा कि ये प्रयास कितने प्रभावी साबित होते हैं। भारतीय कॉलेजों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए एक व्यापक और समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इसमें जेंडर-विशिष्ट ज़रूरतों को संबोधित करना भी शामिल है।
इस विषय पर आईआईएमसी की प्रोफेसर शाश्वती गोस्वामी कहती हैं, “मेंटल हेल्थ को लेकर अवेयरनेस की कमी है, लेकिन यह प्रक्रिया अब शुरू हो गई है। बच्चे अक्सर इन मुद्दों पर खुलकर बात नहीं कर पाते और टीचर्स से घबराते हैं। स्टिग्मा और कई पहलू हैं, जो इसे और जटिल बनाते हैं। टीचर्स बच्चों के अनुभवों को बहाना समझकर नकार देते हैं, जो एक बड़ी समस्या है। प्रतिष्ठित संस्थानों के शिक्षक भी ऐसा कहते हैं कि बच्चे बहाने बनाकर असाइनमेंट्स लेट कर रहे हैं। सोसाइटल एक्सेप्टेंस में अभी समय लगेगा। गाइडलाइन्स जारी करने से स्थिति नहीं सुधरेगी, क्योंकि ये केवल सुझाव हैं। इसलिए, हमें कानून की मांग करनी चाहिए, ताकि इसे सबके लिए अनिवार्य किया जा सके।”
स्कूल से निकलकर जब एक बच्चा कॉलेज में आता है तो उसे मेंटल हेल्थ जैसा कुछ है भी, इस बारे में उतना पता नहीं होता। वैसे आजकल तो फिर भी काफ़ी अवेयरनेस है, लेकिन फिर भी सोसायटी में अब भी एक टैबू है। अगर कॉलेज में इस बारे में अवेयरनेस बधाई जाए, तो इसे लेकर और एक्सेप्टिंग होंगे।
जेंडर-विशिष्ट मानसिक स्वास्थ्य सहायता की ज़रूरत
मनोरोग एक जेंडर-न्यूट्रल प्रोफेशन होने के बावजूद, इसमें हेल्थ प्रोफेशनल्स के अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं या वे उन अनुभवों से अनजान हो सकते हैं, जो एक महिला या ट्रांस व्यक्ति ने झेले हैं। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता में जेंडर-विशिष्ट ज़रूरतों को संबोधित करना आवश्यक हो जाता है। इसके लिए विभिन्न प्रयास किए जा सकते हैं। जैसेकि संस्थानों में विविधता को समझते हुए, मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रणालियों को विकसित करना। उदाहरण के लिए, संस्थानों में केवल एक काउंसलर उपलब्ध कराना काफी नहीं है, बल्कि एक पूरी व्यवस्था स्थापित करना आवश्यक है, जो जेंडर बाइनरी के बाहर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को समझें और समाधान करें।
समाज और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण
भारतीय समाज में मानसिक स्वास्थ्य का विषय एक अलग-थलग कर दिया गया मुद्दा है, जिसके बारे में न तो लोगों के बीच जागरूकता है और न ही स्वीकार की भावना। इसके ऊपर से इससे जुड़े मिथक और शर्म की वजह से हमेशा परिवार और समाज इन समस्याओं के निपटारे की बजाय इन्हें छुपाने की कोशिश करते हैं। यह स्थिति को और गंभीर बना देता है। भारत के कॉलेज कैंपसों में मानसिक स्वास्थ्य समस्या का बढ़ता प्रकोप एक गंभीर मुद्दा है, जिसे तत्काल संबोधित करने की आवश्यकता है। मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रणालियों को विकसित करने में संस्थानों को और अधिक सक्रिय भूमिका निभानी होगी। साथ ही, समाज को मानसिक स्वास्थ्य के प्रति अपनी दृष्टिकोण बदलनी होगी, ताकि युवा पीढ़ी को इन समस्याओं से लड़ने में मदद मिल सके।