पिछले दशकों में न जाने कितनी खेल आधारित फ़िल्में आई हैं चाहे वो बायोग्राफ़ी हो या खेल ड्रामा, सबकी लगभग वही एक निश्चित सांचे में ढली स्टोरीलाइन। आर. बाल्की की ‘घूमर’ भी उसी परंपरागत स्पोर्ट्स फ़िल्म के सांचे में ढली हुई है जिसकी प्रेरणादायक कहानी भी प्रिडिक्टेबल है। साल 2023 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘घूमर’ एक स्पोर्ट्स ड्रामा फ़िल्म है। आर. बाल्की द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म पहले मेलबर्न के 12वें ‘इंडियन फ़िल्म फेस्टिवल’ में प्रीमियर हुई और फिर अगस्त में ही भारत में रिलीज़ हुई थी।
फ़िल्म हंगेरियन निशानेबाज़ कैरोली टाकस के किरदार से प्रेरित है जिन्होंने अपने दाहिने हाथ में गम्भीर चोट लगने के बावजूद बाएं हाथ से निशानेबाज़ी सीखकर ओलंपिक में दो स्वर्ण पदक जीते। निर्देशक आर. बालाकृष्णन, जिन्हें ‘बाल्की’ नाम से भी जाना जाता है, लीग से हटकर अपनी अपरंपरागत कहानी कहने की शैली के लिए जाने जाते हैं। आर. बाल्की ने एक निशानेबाज़ की प्रेरणादायक कहानी को भारतीय दर्शकों की रुचि के अनुकूल ढालने का प्रयास तो किया लेकिन शायद कहानी को भारतीय सामाजिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में ढालना भूल गए। या कहें कि एक प्रोग्रेसिव कहानी कहने के लिए भारतीय सामाजिक ढांचे को तोड़ने का प्रयास किया है चाहे वो जेंडर की बात हो या उससे जुड़े पूर्वाग्रहों की। कारण जो भी हो लेकिन पर्दे पर ये एक स्पोर्ट्स फ़िल्म से ज़्यादा एक फैंटेसी फ़िल्म लगती है।
फ़िल्म की कहानी बहुत सरल और प्रिडिक्टेबल होने के बावजूद दर्शकों का उत्साह बनाए रखने में सफल होती है। कहानी है एक ऐसी महिला बल्लेबाज़ की जो क्रिकेट में एक उभरता सितारा है और एक कोच जो भारतीय टीम का पूर्व गेंदबाज़ रह चुका है और अब एक ऐल्कोहॉलिक फ्रस्ट्रेटेड फेल्ड क्रिकेटर है। एक महिला खिलाड़ी जिसका भारतीय टीम में खेलने का सपना पूरा होने से पहले ही टूट जाता है। अनीना दीक्षित उर्फ़ ‘अनी’ का किरदार निभा रहीं सैयामी खेर वो उभरता सितारा हैं जिनका चयन इंग्लैंड के ख़िलाफ़ खेलने वाली महिला भारतीय टीम के लिए होता है लेकिन एक दुर्घटना में वो अपना दाहिना हाथ खो बैठती हैं जिसके बाद भारत के लिए खेलने का उनका सपना बस सपना ही रह जाता है। अपने पूरे जीवन में क्रिकेट के अलावा कुछ और न करने वाली राइट आर्म बल्लेबाज़ जब क्रिकेट ही न खेल पाए तब?
अनीना का सपना तो टूटता है, साथ ही वो ख़ुद भी टूट जाती है और एक बेजान ज़िन्दगी से छुटकारा चाहती है कि तभी पदम सिंह सोढ़ी उर्फ़ ‘पैडी’ के किरदार में अभिषेक बच्चन की एंट्री होती है। पैडी भारतीय पुरुष क्रिकेट टीम का एक पूर्व गेंदबाज़ है जो कि अब एक फ्रस्ट्रेटेड फेल्ड क्रिकेटर में बदल गया है। फ़िल्म के शुरुआत में पैडी का अनीना के टीम में सेलेक्ट होने पर उससे सबके सामने पूछता है, “ओ धागा लड़की, सेलेक्ट हो गई? ऊपर से किसी को फ़ोन करवाया या खेलने के लिए किसी को खिलाया?” हालांकि यही फेल्ड क्रिकेटर अनीना में वापस देश के लिए खेलने का जज़्बा जगाता है और उसे गेंदबाज़ी की कोचिंग देकर लेफ़्ट आर्म स्पिनर गेंदबाज़ बनाता है।
इसके अलावा फ़िल्म में अनीना की दादी के किरदार में शबाना आज़मी हैं जो कि अपनी पोती की सबसे बड़ी समर्थक हैं और वो जब-जब स्क्रीन पर आती हैं, अपना जलवा बिखेर जाती हैं। इसके अलावा अनीना के पिता और दो भाई भी हैं। साथ ही एक बचपन का प्रेमी जो अनीना को अपना सपना पूरे करते देखना चाहता है। फ़िल्म के शुरुआत में दो लड़के अपनी बाइक रोककर मैदान में प्रैक्टिस कर रही लड़कियों पर सेक्सिस्ट टिप्पणी करते हैं जिसके जवाब में अनीना अपना बल्ला घुमाकर उन्हें करारा जवाब देती है। फ़िल्म की ये शुरुआत जितनी वास्तविक अनुभव पर आधारित है, फ़िल्म में कई प्रसंग उतने ही अनरियल भी है।
एक ऐसा परिवार जहां औरत रसोई तक सिर्फ़ अपनी पोती के लिए स्मूदी बनाने के लिए जाती है और मर्द रसोई में परांठे बनाकर सबको परोसता है। परिवार की लड़की बचपन से मेल डॉमिनेटिड स्पोर्ट (क्रिकेट) खेलती है, उसी में करियर बना रही है और इस घर में लड़के के फिजिक या ब्यूटी को लेकर टिप्पणी की जाती है न कि लड़की पर। लड़की का बचपन का प्रेमी जिसका हर बार घर में खुशी से स्वागत किया जाता है। क्या ये किसी आम भारतीय घर का नज़ारा है? बिल्कुल नहीं! फ़िल्म की कहानी के नेरेटिव में ये सब इतनी सहजता से घुला-मिला है कि आपकी स्क्रीन से ये सीन निकल भी जाए और आपको कुछ अजीब भी न लगे। कहानी का आधार कितना ही सामान्य हो पर इसे कुछ अनूठे प्रसंगों से भरने का काम किया गया है। चाहे वो पैडी की नई गेंदबाज़ी तकनीक हो या अनीना के फ़ैमिली डायनेमिक्स जो सामाजिक मानदंडों और रूढ़ियों को तोड़ती है।
फ़िल्म जहां एक ओर अनीना की कहानी कहती है जो अपनी इच्छाशक्ति के बदौलत अपने सपने को पूरा करने के लिए तमाम बाधाओं को पार कर अपने लक्ष्य तक पहुंचती है, वहीं दूसरी ओर यह लैंगिक भूमिकाओं और लैंगिक पूर्वाग्रहों पर कटाक्ष भी करती है। हालांकि फ़िल्म इन मुद्दों को लेकर कहीं भी आक्रामक नहीं होती है। लेकिन सटल तरीके से इन मुद्दों को एक्सप्लोर करती है। जैसा शुरुआत में ही एक दृश्य है जब अनीना सड़क पर जीत को मार रही होती है तो कुछ लड़के आकर कहते हैं, “क्या कर रहे हो लकड़ी को मार रहे हो”। इसके जवाब में जीत कहता है कि “अरे लड़की मुझे मार रही है” कि तभी अनीना पूछती है, “मैंने मदद मांगी क्या?” ये समाज की उस मानसिकता को दर्शाता है जहां मर्दों को लगता है कि उन्हें हर लड़की को बचाना है भले यहां उन्हें दिख रहा था कि लड़का पीट रहा है।
आमतौर पर आमजन की यह धारणा रहती है कि महिलाएं क्रिकेट नहीं पसंद करती या उन्हें गेम नहीं समझ आती, उन्हें नम्बर्स (मैथेमेटिक्स) से डील करना नहीं आता या वो तार्किक कम और इमोशनल ज़्यादा होती हैं। लेकिन यहां शबाना आज़मी जी का किरदार बिल्कुल इसके उलट है। इन सब पूर्व धारणाओं का खंडन करती वो एक रोजर फेडरर फैन हैं। क्रिकेट के बारे में उन्हें हर जानकारी है, यहां तक की क्रिकेट के नियमों के बारे में फ़िल्म के सभी मर्दों से ज़्यादा जानती हैं।
इसके उलट अनीना के पिता के किरदार में शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर जो आमतौर पर रसोई में खाना पकाते दिखते हैं, काफ़ी इमोशनल और सुपरस्टिशियस भी हैं, साथ ही परिवार, ख़ास तौर से अनीना के लिए बहुत स्नेह रखते हैं जो कि अक्सर महिलाओं का डिपार्टमेंट समझा जाता है। फ़िल्म का एक सीन है जब अनीना का सेलेक्शन भारतीय टीम में होता है तो घर में एक ओर पिता हैं जो सारे रिश्तेदारों को फ़ोन करके इसकी जानकारी देते नज़र आते हैं तो वहीं दादी मैच का शेड्यूल और उससे जुड़ी सारी जानकारी देख रही होती हैं। ये अगर कोई और भारतीय फ़िल्म होती तो उसमें ये दोनों किरदार बिल्कुल विपरीत काम कर रहे होते।
फ़िल्म में अनीना की माँ जीवित नहीं है लेकिन इस तरह का फ़ैमिली डायनेमिक्स हमें सोचने पर मजबूर करता है कि अगर अनीना की माँ जीवित होती क्या तब भी उसके पिता इसी तरह के किरदार होते? इसके साथ ही समावेशिता को ध्यान में रखते पैडी की बहन के रूप में एक ट्रांसवुमन का सपोर्टिंग रोल भी है जिसे काफ़ी अच्छा स्क्रीन टाइम मिला है। लेकिन इस किरदार में जिस तरह का डेप्थ होना चाहिए था वो नहीं दिखता। बल्कि कई बार ऐसा लगता है जैसे कोच पैडी की अच्छाई के सुबूत के तौर पर इन्हें कहानी में पेश किया गया है।
फ़िल्म के फर्स्ट हाफ़ में सैयामी खेर के किरदार की भूमिका बंधती है जिसके कारण मूवी का पेस थोड़ा स्लो है। लेकिन सेकंड हाफ़ थोड़ी रफ़्तार पकड़ती है जिसमें मैच का रोमांच तो होता ही है और अन्त एक ड्रमैटिक क्लाइमैक्स के साथ होता है। अन्त देखकर लगता है यह फ़िल्म पूरी तरह से दर्शक के मनोरंजन के उद्देश्य से बनाई गई है जिसमें स्टेडियम में खेल के रोमांच के साथ ही दर्शक के भावनात्मक पक्ष को संतुष्ट करने के लिए मैच में कई इमोशनल मोमेंट्स भी डाले गए हैं। सब कुछ इतना ज़्यादा ड्रमैटिक हो जाता है कि कहानी पर विश्वास कर पाना मुश्किल लगने लगता है। इंग्लैंड के ख़िलाफ़ खेल रहे मैच में अनीना का ही एक मात्र योगदान ऐसा दिखाया गया है जैसे वो अगर अकेली नहीं होती तो टीम मैच जीच ही नहीं सकती थी।
जहां एक ओर कहानी के सबप्लॉट में क्रिकेट में बल्लेबाज़ों के मुक़ाबले गेंदबाज़ों के योगदान को कम आंकने वाली मानसिकता पर प्रहार किया गया है और यह बताने का प्रयास रहा है कि क्रिकेट के खेल में जितने बल्लेबाज़ महत्त्वपूर्ण उतने ही गेंदबाज़ भी है। वहीं दूसरी ओर टीम के अच्छे प्रदर्शन का सारा भार अनीना के कन्धों पर डालकर क्रिकेट जैसे खेल में टीम वर्क के सवाल को लेकर फ़िल्म का नरेटिव कंट्राडिकट करता नज़र आता है। और यह पूरा नज़ारा पर्दे पर बहुत मेलोड्रमैटिक दिखता है जहां अनीना अकेले विकेट भी ले रही है, फ़ील्डिंग का भी प्रयास कर रही है और आख़िर में एक हाथ से बल्लेबाज़ी कर टीम को जीता भी रही है। फ़िल्म कई मायनों में प्रोग्रेसिव ज़रूर है लेकिन सिर्फ़ जेंडर्ड रोल्स की अदला-बदली कर हम एक प्रोग्रेसिव समाज की कल्पना नहीं कर सकते जैसा कि इस फ़िल्म में दिखाया गया है। जब लैंगिक समानता की बात आती है तो हम चुनाव के विकल्प पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं और जेंडर्ड रोल्स को तोड़ने की बात करते हैं न कि सिर्फ़ जेंडर्ड रोल्स बदलने की वकालत करते हैं। इस तरह से यह फ़िल्म एक अपनी ही फैंटेसी वर्ल्ड बनाती है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है।