9 अगस्त 2024 को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में अपने 36 घंटे शिफ्ट के बाद आराम करने की कोशिश करती, एक जूनियर महिला रेज़िडन्ट डॉक्टर का बलात्कार और फिर हत्या की घटना ने देश भर में आक्रोश को जन्म दिया। पश्चिम बंगाल सहित देशभर में घटना को लेकर विरोध प्रदर्शन अब भी जारी है जहां बड़ी संख्या में लोग महिलाओं की सुरक्षा और घटना पर जल्द न्याय की मांग कर रहे हैं। इस विरोध में पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी, डॉक्टरों से लेकर टॉलीवुड से जुड़े लोग, राजनीतिज्ञ और आम जनता शामिल हुए। लेकिन, पिछले दिनों राज्य में इन सबके बीच कई और घटनाएं हुई जो सुरक्षा की कमी, यौन हिंसा पर राजनीति और यौन हिंसा से जाति, वर्ग और धार्मिक जुड़ाव और चयनात्मक आक्रोश को उजागर करता है।
बात बंगाल की करें, तो ममता बनर्जी खुद विरोध प्रदर्शन में शामिल हुईं, जो राज्य में स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय का भार संभाले हुए है। ‘माँ, माटी, मानुष’ का दावा करने वाली तृणमूल सरकार के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शनों की एक लहर चल रही है, जहां शायद पहली बार राज्य की मुख्यमंत्री को जनता के दबाव का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि यौन हिंसा के खिलाफ़ आक्रोश एक सराहनीय कदम है। लेकिन, जब ये आक्रोश राज्य में सत्ता पर बैठे राजनीतिक दल, जाति, धर्म और वर्ग आधारित हो, तो न सिर्फ हम असल मुद्दे से भटकते हैं बल्कि हाशिये के समुदायों को हम और दरकिनार करते हैं।
मामले में अब तक क्या-क्या हुआ
हालांकि अस्पताल प्रशासन ने पहले महिला की मौत को आत्महत्या करार देने की कोशिश की थी। लेकिन, पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार महिला के शरीर पर कई चोटों के निशान पाए गए। ऑटाप्सी रिपोर्ट से पुष्टि हुई है कि महिला के साथ बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई। घटना में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा के बेंच ने सुनवाई की। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ये सिर्फ कोलकाता के अस्पताल में हुई एक भयावह हत्या का मामला नहीं है, बल्कि यह पूरे देश में डॉक्टरों की सुरक्षा से जुड़ा प्रणालीगत मुद्दा है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सुरक्षा के मामले में, हम इस बात से बहुत चिंतित हैं कि अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों, रेज़िडन्ट और नॉन-रेज़िडन्ट डॉक्टरों और महिला डॉक्टरों के लिए सुरक्षित परिस्थितियों का अभाव है, जो अधिक असुरक्षित हैं।
उन्होंने कहा कि युवा डॉक्टरों को लंबे समय तक काम करना पड़ता है। पुरुष और महिला डॉक्टरों के लिए कोई अलग आराम और ड्यूटी रूम नहीं है और हमें सुरक्षित कार्य स्थितियों के लिए एक मानक राष्ट्रीय प्रोटोकॉल के लिए राष्ट्रीय सहमति विकसित करने की आवश्यकता है। आखिरकार, संविधान के तहत समानता का मतलब क्या है अगर महिलाएं अपने कार्यस्थल पर सुरक्षित नहीं हो सकतीं? मुख्य न्यायाधीश ने आगे कहा कि डॉक्टरों और महिला डॉक्टरों की सुरक्षा राष्ट्रीय हित का मामला है और समानता का सिद्धांत इससे कम की मांग नहीं करता। राष्ट्र किसी और बलात्कार का इंतजार नहीं कर सकता, ताकि वह कुछ कदम उठा सके। राज्य में चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा के लिए कानून तो हैं, लेकिन वे व्यवस्थागत मुद्दों को संबोधित नहीं करते। ये ध्यान देने वाली बात है कि ये कोई एकलौती घटना नहीं है जहां बलात्कार और हत्या की गई है।
बंगाल सरकार का लापरवाह और तानाशाह रवैया
हालांकि बनर्जी ने अपने प्रशासन के खिलाफ़ गुस्से और आक्रोश को राजनीतिक साजिश करार दिया है, लेकिन मामले के आरोप और अनसुलझे पहलू सीधे तौर पर राज्य सरकार की गलतियों की ओर इशारा करते हैं। घटना के तुरंत बाद, सूचना के मिसमैनेजमेंट और कार्रवाई में देरी पुलिस की विश्वसनीयता और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार महिला के माता-पिता को उसका शव देखने के लिए तीन घंटे तक इंतजार करना पड़ा। महिला डॉक्टर के पिता ने दावा किया कि उनकी बेटी का अंतिम संस्कार जल्दबाजी में किया गया, जबकि वहां दो और शव मौजूद थे। पूरे भारत में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों ने सरकारों की संस्थागत उदासीनता और विफलता के प्रति बहुत ही राजनीतिक और सार्वजनिक गुस्से को व्यक्त किया।
14 अगस्त की आधी रात को महिलाओं ने ‘रीक्लेम द नाइट’ के लिए पूरे राज्य विरोध प्रदर्शन किया था। लेकिन यहां भी राज्य सरकार की विफलता तब नज़र आई जब अज्ञात लोगों ने उस रात आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के परिसर में घुसकर कुछ हिस्सों में तोड़फोड़ की, जहां पिछले दिनों एक महिला जूनियर डॉक्टर का शव मिला था। घटना के मद्देनजर मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पश्चिम बंगाल राज्य की शक्ति का प्रयोग न किया जाए। चाहे डॉक्टर हों या नागरिक समाज, उनपर राज्य की शक्ति का प्रयोग बिल्कुल न किया जाए। बनर्जी के मंत्रिमंडल में कई महिला नेता होने के बावजूद किसी ने भी शुरुआती दौर में इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की थी।
लैंगिक हिंसा के मामलों के लिए उपयुक्त कनूनी कार्रवाई की कमी के बीच ममता बनर्जी की ओर से वक्तव्य न रखना या उसमें संवेदनशीलता की कमी कोई नई बात नहीं है। इससे पहले बनर्जी ने साल 2012 के पार्क स्ट्रीट बलात्कार मामले को ‘बनी-बनाई घटना’ करार दिया था। बता दें कि अबतक सिर्फ एक संदिग्ध अपराधी, नागरिक स्वयंसेवक को गिरफ्तार किया गया है। साथ ही, इससे पहले डॉ घोष ने मृत महिला के विषय में विक्टिम ब्लेमिंग करते हुए कहा था कि रात में अकेले सेमिनार हॉल में जाना गैरजिम्मेदाराना था।
अपनी टिप्पणियों के लिए आलोचनाओं का सामना करने के बाद डॉ घोष ने प्रिंसिपल के पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि, राज्य सरकार ने आरजी कर से उनके इस्तीफे के तुरंत बाद, कलकत्ता नेशनल मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपल नियुक्त कर दिया। मुख्य न्यायाधीश ने मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि जब प्रिंसिपल का आचरण जांच के दायरे में है, तो उन्हें तुरंत दूसरे कॉलेज का प्रिंसिपल कैसे नियुक्त किया गया।
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा और पितृसत्ता
महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को कोई भी सरकार पूरी तरह रोक नहीं पाई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट अनुसार साल 2022 में, देश में महिलाओं के खिलाफ़ अपराध के 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, यानी हर घंटे 51 मामले। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में देश में प्रतिदिन औसतन लगभग 90 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गईं। लेकिन, ऐसी यौन हिंसा की घटनाओं के बाद राज्य का हकीकत को न मानकर, विरोधी पार्टियों का हवाला देना गैर जिम्मेदार रवैया दिखाता है। ये न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को बढ़ावा देता है बल्कि महिलाओं को बेझिझक हिंसा की रिपोर्ट दर्ज करने में भी रोकता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच के एक रिपोर्ट अनुसार देश में महिलाएं और लड़कियां अक्सर कलंकित होने के डर से हमलों की रिपोर्ट करने से डरती हैं क्योंकि वे आपराधिक न्याय प्रणाली में संस्थागत बाधाओं को दूर करने में असमर्थ महसूस करती हैं जो सर्वाइवर या गवाहों को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करती है। यह रिपोर्ट बताती है कि सर्वाइवर विशेष रूप से हाशिए के समुदायों के लिए पुलिस शिकायत दर्ज करना मुश्किल होता है। वे अक्सर पुलिस स्टेशनों और अस्पतालों में अपमान सहते हैं। उनको अभी भी चिकित्सा पेशेवरों द्वारा अपमानजनक परीक्षणों से गुजरना पड़ता है और जब मामला अदालतों में पहुंचता है तो वे डरे हुए महसूस करते हैं।
आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना से समझ आता है कि कैसे यौन हिंसा और बलात्कार के मामले व्यवस्थित होते हैं और पुरुष वर्चस्व से उपजते हैं। बलात्कार के मामलों में हम बेहद संवेदनशील मुद्दे को दरकिनार कर रहे हैं। अमूमन, ऐसी घटनाओं में हिंसा की भयवाहता, सर्वाइवर की जाति, उम्र, वर्ग और धर्म जनता को आकर्षित करती है। न्याय की मांग में फांसी की सजा मांगना भी उसी मानसिकता का हिस्सा है, जो समस्या के मूल तक पहुंचना ही नहीं चाहती। ये जरूरी है कि हम समझें जिस तरह सरकार पर दबाव के कारण 2012 में दिल्ली गैंगरेप की घटना में आरोपी को फांसी की सजा दी गई थी, ये एक पितृसत्तातमक समस्या को हल करने का क्विक फिक्स है जो लंबे समय में कारगर नहीं हो सकता।
जब तक हम सत्ता पर बैठे लोगों को जवाबदेह नहीं ठहराते, बलात्कार की संस्कृति को नहीं पहचानते और उसे खत्म करने के लिए आवाज़ नहीं उठाते, तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी। यह ध्यान देना जरूरी है कि भारत में यौन हिंसा की व्यापकता और बढ़ोतरी के मूल में पितृसत्तात्मक रवैया, पुरुषों का वर्चस्व और प्रभुत्व की मानसिकता है। इसलिए, इसका समाधान पितृसत्ता को खत्म करने और सिर्फ महिलाएं ही नहीं, सभी जेंडर के लोगों के लिए अधिकार और लैंगिक समानता की पहल करने से ही हो सकती है।