समाजमीडिया वॉच विक्टिम ब्लेमिंग और मीडिया के सवालों के कठघरे में सर्वाइवर| #GBVInMedia

विक्टिम ब्लेमिंग और मीडिया के सवालों के कठघरे में सर्वाइवर| #GBVInMedia

ये कुछ चंद उदाहरण हैं जो इस टूलकिट को तैयार करने के दौरान की गई रिसर्च के दौरान हमें मिलें। हिंदी की तीन प्रमुख वेबसाइट्स और तीन अखबारों में प्रकाशित लैंगिक हिंसा से जुड़ी 505 ख़बरों के विश्लेषण के बाद हमने पाया कि विक्टिम ब्लेमिंग की सोच कवरेज का एक ज़रूरी हिस्सा बन चुकी है।

एडिटर्स नोट: यह लेख हमारे अभियान #GBVInMedia के तहत प्रकाशित किया गया है। इस अभियान के अंतर्गत हम अपनी रिपोर्ट ‘लैंगिक हिंसा और हिंदी मीडिया की कवरेज‘ में शामिल ज़रूरी विषयों को लेख, पोस्टर्स और वीडियोज़ के ज़रिये पहुंचाने का काम करेंगे।

लैंगिक हिंसा के लिए जब सर्वाइवर के पहनावे, चरित्र, वह कहां थे, क्यों गए थे, किसके साथ थे जैसे सवाल किए जाते हैं तो यह विक्टिम ब्लेमिंग कहलाता है। आसान शब्दों में कहें तो जब लैंगिक हिंसा के लिए सर्वाइवर को ही दोषी ठहराया जाता है वह विक्टिम ब्लेमिंग है। लैंगिक हिंसा के मामलों में विक्टिम ब्लेमिंग एक अहम पहलू है। विक्टिम ब्लेमिंग सर्वाइवर को दोबारा प्रताड़ित करने जैसा है। इससे न सिर्फ सर्वाइवर का मनोबल टूटता है बल्कि यह उनके न्याय पाने के संघर्ष को भी बढ़ाता है। विक्टिम ब्लेमिंग में सर्वाइवर को आरोपी के बजाय खुद पर उठाए गए सवालों के जवाब देने का भार उठाना पड़ता है। यह अतिरिक्त दबाव सर्वाइवर पर ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज ही डालता है जिसकी नज़रों में लैंगिक हिंसा एक ‘सामान्य’ घटना है। 

विक्टिम ब्लेमिंग की संस्कृति को बढ़ाने में भारतीय मीडिया का भी बड़ा योगदान है। मीडिया जिस तरह से यौन हिंसा की घटनाओं की रिपोर्टिंग करता है उसमें कई बार विक्टिम ब्लेमिंग शामिल होती है। मीडिया की भाषा सर्वाइवर को ही घटना का दोषी बना देती है। हिंदी मीडिया के अख़बार और वेबसाइट्स भी विक्टिम ब्लेमिंग की सोच को बढ़ावा देते नज़र आते हैं।

हिंदी मीडिया में यौन हिंसा की ख़बरों के लिए जिस तरह की भाषा, हेडलाइंस का इस्तेमाल किया जाता है उनमें अक्सर केंद्र में सर्वाइवर को ही रखा जाता है। यौन हिंसा की ख़बरों में कई जगह सर्वाइवर क्या कर रहे थे, कहां थे जैसे बिंदुओं को अहमियत दी जाती है। हिंदी मीडिया की भाषा का मूल्याकंन करने हुई यह स्थिति साफ नज़र आई है जिसमें ख़बरों को इस तरह से दिखाया जाता है कि लैंगिक हिंसा की वजहों में कहीं न कहीं सर्वाइवर खुद भी शामिल थे।

विक्टिम ब्लेमिंग की सोच दर्शाती खबरें

स्रोत: राष्ट्रीय सहारा

ख़बरों के विश्लेषण में राष्ट्रीय सहारा की इस हेडलाइन को जिस तरह से लिखा है उसमें महिला के जीवन और उसके रिश्ते को केंद्र में रखा गया है। पूर्व दोस्त जैसे शब्द का इस्तेमाल करने से महिला के चरित्र को केंद्र बनाया गया है जिससे यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि आरोपी पहले से महिला का दोस्त था। विक्टिम ब्लेमिंग की मानें तो यौन हिंसा जैसे अपराधों से बचने की ज़िम्मेदारी सर्वाइवर्स को खुद उठानी चाहिए। जैसे उन्हें छोटे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, उन्हें रात को बाहर नहीं जाना चाहिए, लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए।

स्रोत: राष्ट्रीय सहारा

ठीक इसी तरह लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली किसी महिला के साथ हिंसा की घटना रिपोर्ट करने के लिए अख़बारों और वेबसाइट्स में सर्वाइवर के रिलेशनशिप स्टेटस को अधिकतर हेडलाइंस में शामिल किया गया है। यहां मीडिया विवाह से अलग किसी रिश्ते में रहने वाली महिला की स्थिति को हिंसा का दोष देने वाली सोच से ग्रसित नज़र आती है। 

स्रोत: एनबीटी

अब लैंगिक हिंसा से जुड़ी इस ख़बर को देखिए जहां एक महिला का लगातार दो साल तक गैंगरेप किया गया है इस तथ्य से पहले हेडलाइन में इस तथ्य को प्रमुखता दी गई है कि सर्वाइवर का अपने पति के साथ रिश्ता ठीक नहीं था। यौन हिंसा के इस मामले में सर्वाइवर की वैवाहिक स्थिति और उसका उसके पति के साथ रिश्ता क्या है यह दोंनो बातें ही गैर-ज़रूरी हैं।

विक्टिम ब्लेमिंग में सर्वाइवर को आरोपी के बजाय खुद पर उठाए गए सवालों के जवाब देने का भार उठाना पड़ता है। लैंगिक हिंसा के मामले में जब आरोपी की जगह सर्वाइवर की जवाबदेही अधिक तय की जाने लगती है तो यह सर्वाइवर के न्याय पाने के संघर्ष को और अधिक बढ़ाता है। उदाहरण के तौर पर इस ख़बर जिस तरीके से इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि सर्वाइवर की अपने पति से अनबन चल रही थी उससे पाठकों को यही संदेश जाएगा कि इसमें ग़लती सर्वाइवर की ही है।

लैंगिक हिंसा से जुड़े मिथ्य और स्त्री विरोधी मानसिकता को चुनौती देने के लिए मीडिया कवरेज में महिलाओं के कपड़े, उनकी आवाजाही, निज़ी जिंदगी से जुड़े पितृसत्तात्मक रूढ़िवाद को चुनौती दी जानी चाहिए। महिला समूहों, सामुदायिक समूहों और सिविल सोसाइटी को एक ऐसा लोकतांत्रित प्लैटफॉर्म बनाना चाहिए जहां लैंगिक हिंसा, इसकी रोकथाम कैसे की जाए आदि मुद्दों पर चर्चा हो सके। साथ ही लैंगिक हिंसा से जुड़ी खबरों की प्रस्तुति संवेदनशील और ज़िम्मेदार तरीके से की जानी चाहिए। साथ ही इन खबरों में यह ज़रूर लिखा जाना चाहिए कि लैंगिक हिंसा एक कानूनी अपराध है- प्रोफेसर विभूति पटेल

दिल्ली में नवंबर के महीने में एक युवती की उसके साथी द्वारा की गई हत्या को मेनस्ट्रीम मीडिया ने लैंगिक हिंसा या इंटिमेट पार्टनर वॉयलेंस के नज़रिये से देखे जाने की जगह बाकी हर एंगल से कवर किया। अब दैनिक भास्कर की इस ख़बर के शीर्षक को देखिए जहां ख़बर लिखनेवाले ने यह पहले से ही तय कर लिया है कि सर्वाइवर की हत्या इसलिए हुई क्योंकि उसने अपने परिवार की बात नहीं मानी, अगर वे परिवार के कहे अनुसार चलती तो उसकी हत्या नहीं होती। ख़बर के पहले पैरा में पीड़िता की मोरल पुलिसिंग की जा रही है कि उसने अपने साथी के लिए अपने परिवार को ठुकरा दिया। यहां उसके साथ हुए अपराध से अधिक उसकी एजेंसी पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

यहां आरोपी को पहले ही मीडिया ने क्लिनचिट दे दी है क्योंकि मीडिया के मुताबिक दोष तो पीड़िता का है जिसने अपने साथी के साथ लिव-इन में रहना चुना। यहां असंवेदनशीलता का स्तर यह है कि पीड़िता की हत्या हो चुकी है लेकिन यहां उसके द्वारा लिए गए फ़ैसले को आधार बनाकर उस पर ही दोष मढ़ा जा रहा है। यहां मीडिया के लिए ज्यादा गंभीर मुद्दा लैंगिक हिंसा, इंटिमेट पार्टनर वॉयलेंस की जगह महिला का अपनी पंसद के साथी के साथ रहना है। ख़बर में लैंगिक हिंसा से अधिक लिव-इन शब्द को केंद्र में रखा गया है। 

ये कुछ चंद उदाहरण हैं जो इस टूलकिट को तैयार करने के दौरान की गई रिसर्च के दौरान हमें मिलें। हिंदी की तीन प्रमुख वेबसाइट्स और तीन अखबारों में प्रकाशित लैंगिक हिंसा से जुड़ी 505 ख़बरों के विश्लेषण के बाद हमने पाया कि विक्टिम ब्लेमिंग की सोच कवरेज का एक ज़रूरी हिस्सा बन चुकी है। विक्टिम ब्लेमिंग की सोच से निजात पाते हुए कैसे लैंगिक हिंसा और इससे जुड़े मुद्दों की कवरेज संवेदनशीलता के साथ की जा सकती है इस बारे में हमने अपनी रिपोर्ट में विस्तार से बात की है।


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