शकुंतला परांजपे का जीवन उन स्त्रियों में गिना जाता है, जिन्होंने अपने समय के हर सीमित दायरे को तोड़कर खुद की पहचान बनाई। समाज की रूढ़ियों को चुनौती देना और अपनी बौद्धिक क्षमता को सिद्ध करना, एक ऐसा संघर्ष था जो महिलाओं के लिए सदियों से चला आ रहा था। लेकिन शकुंतला परांजपे उन चुनिंदा स्त्रियों में से थीं, जिन्होंने इस संघर्ष को न केवल समझा, बल्कि उसे जिया और उसे बदलने का साहस दिखाया। उनका जन्म 17 जनवरी 1906 में एक ऐसे परिवार में हुआ था, जहां शिक्षा और ज्ञान का उच्च स्थान था।
उनके पिता, रघुनाथ परांजपे, जो भारत के पहले सीनियर रैंगलर बने, गणित और शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे। उनका जीवन शिक्षा और बुद्धिमत्ता के आदर्शों से भरा था, जिसने शकुंतला के विचारों और कार्यों को भी प्रभावित किया। उन्होंने बचपन से ही शिक्षा का महत्व समझा और इसे अपनी शक्ति बनाया। इसके बाद, उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के न्युन्हम कॉलेज से गणित में स्नातक किया और लंदन विश्वविद्यालय से शिक्षा में डिप्लोमा प्राप्त किया। उनकी शिक्षा ने उन्हें न केवल एक मजबूत बौद्धिक आधार दिया बल्कि समाज में एक नए दृष्टिकोण के साथ काम करने की प्रेरणा दी।
समाज की रूढ़ियों को चुनौती दी
परांजपे का जीवन केवल उनकी शिक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने समाज की उन रूढ़ियों को चुनौती दी जो महिलाओं को सीमित कर देती थीं। उन्होंने अपने समय की सामाजिक समस्याओं का गहन अध्ययन किया और समाज के हाशिये पर खड़ी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को अपनी प्राथमिकता बनाया। समाज सुधार की दिशा में उनका योगदान व्यापक और गहन था, जिसमें महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक सशक्तिकरण पर विशेष ध्यान दिया गया।उनका सबसे उल्लेखनीय योगदान परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में रहा। 1930 के दशक में, जब इन विषयों पर बात करना वर्जित था, उन्होंने इस मुद्दे को समाज के सामने लाने का साहस दिखाया।
अपने चचेरे भाई, रघुनाथ धोंडो कर्वे के साथ, उन्होंने पुणे में महिलाओं के लिए गर्भनिरोधक साधनों को सुलभ बनाने का काम किया। उनके प्रयासों ने भारत में परिवार नियोजन के विचार को एक जनांदोलन का रूप दिया। इसके साथ ही, उन्होंने स्वास्थ्य कार्यक्रमों के साथ परिवार नियोजन को जोड़ने के अपने प्रयासों को बढ़ाया और ‘समाज स्वास्थ्य’ जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से जागरूकता फैलाने का काम किया। इस दौरान उन्हें और कर्वे को व्यापक सामाजिक उपहास का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने प्रयासों से पीछे नहीं हटे। उन्होंने महिलाओं को यह समझाने का प्रयास किया कि जनसंख्या नियंत्रण न केवल उनके स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह पूरे परिवार की भलाई के लिए भी आवश्यक है।
परांजपे का भारतीय नारी परिषद (All India Women’s Conference) के साथ जुड़ाव उनके समाज सुधार के प्रयासों का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह संगठन उस समय के समाज में महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्थिति को सुधारने के लिए एक प्रमुख मंच बना, और शकुंतला ने इस मंच का प्रभावी उपयोग किया। उन्होंने इस मंच के माध्यम से महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, और कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने के साथ-साथ, उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया। शकुंतला के नेतृत्व में परिषद ने महिलाओं के लिए कई कार्यक्रमों की शुरुआत की, जिसमें उनके कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूकता, गर्भनिरोधक उपायों की जानकारी और शिक्षा को बढ़ावा देना शामिल था। उन्होंने महिलाओं के खिलाफ होने वाली सामाजिक और घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई और इस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए सरकार पर दबाव डाला।
परांजपे का मानना था कि समाज में बदलाव तभी आ सकता है, जब महिलाएं खुद सशक्त हों और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों। उनकी सोच और कार्यशीलता ने भारतीय नारी परिषद को महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में एक अग्रणी संगठन बना दिया। परांजपे का समाज सुधार में योगदान केवल नारी सशक्तिकरण तक सीमित नहीं था। उन्होंने समाज के अन्य कमजोर वर्गों, विशेषकर बच्चों और वंचित समुदायों के कल्याण के लिए भी काम किया। उनकी सोच और कार्यशीलता का दायरा व्यापक था, जिसमें समाज के हर तबके की भलाई के लिए उनके प्रयास शामिल थे। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
लेखन के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को चुनौती दी
सामाजिक सुधारों के अलावा, परांजपे का साहित्य और फिल्म के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनकी पुस्तकें और लेखन समाज की वास्तविकताओं को उजागर करते थे, और उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को चुनौती दी। उनके साहित्य में न केवल उनके विचारों की स्पष्टता थी, बल्कि उन्होंने समाज में सुधार के लिए अपने अनुभवों का भी बेबाकी से वर्णन किया। इसके साथ ही, शकुंतला ने फिल्मों में भी काम किया और 1930 के दशक से 1950 के दशक तक कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। उनकी सबसे प्रसिद्ध फिल्म ‘कुंकु’ (मराठी शीर्षक) जो महिलाओं के शोषण और सामाजिक बंधनों पर आधारित थी। इस फिल्म ने समाज में महिलाओं की स्थिति पर व्यापक चर्चा की शुरुआत की।
परांजपे का राजनीतिक जीवन भी उनके समाज सुधार के कामों की तरह ही प्रेरणादायक और प्रभावशाली था। महाराष्ट्र विधान परिषद की सदस्य के रूप में, उन्होंने समाज के वंचित वर्गों की आवाज को प्रमुखता से उठाया। उनका ध्यान हमेशा उन मुद्दों पर रहा, जो आमतौर पर अनसुने रह जाते थे, जैसे महिलाओं के अधिकार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं का सुधार। उनकी राजनीतिक सोच स्पष्ट थी—सभी के लिए समानता और न्याय। इस सोच के साथ, उन्होंने राज्यसभा में भी अपनी सेवाएं दीं और समाज में व्यापक परिवर्तन की दिशा में काम किया। वह उन दुर्लभ नेताओं में से थीं, जिन्होंने राजनीति को जनसेवा का माध्यम बनाया और कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
पुरस्कार और सम्मान
शकुंतला परांजपे को उनके असाधारण कामों के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें सामाज सुधार और महिलाओं के अधिकारों के क्षेत्र में योगदान के लिए विशेष रूप से सम्मानित किया गया। 1991 में, उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से नवाजा गया, जो उनके कामों की व्यापक पहचान थी। इसके अलावा, शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भी उन्हें कई सम्मानों से नवाज़ा गया। शकुंतला परांजपे की विरासत आज भी समाज में गहराई से महसूस की जाती है। उन्होंने अपने जीवन में जो काम किए, वे एक स्थायी प्रभाव छोड़ गए हैं।
उनकी सामाजिक सुधार की गतिविधियां विशेषकर महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा के क्षेत्र में, आज भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं। उनके काम ने न केवल तत्कालीन समाज को प्रभावित किया, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी एक नई दिशा दी। उनकी नारी सशक्तिकरण की सोच ने महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया और उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की प्रेरणा दी। शकुंतला परांजपे का मानना था कि सशक्तिकरण केवल शिक्षा और अवसर प्रदान करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह महिलाओं को अपनी स्थिति को समझने और समाज में प्रभावी भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित करने की बात है।
उनकी सोच ने भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका को नया आयाम दिया और आज की पीढ़ी को यह सीखने का अवसर दिया कि सामाजिक सुधार और सशक्तिकरण के लिए निरंतर प्रयास जरूरी हैं। शकुंतला परांजपे की विरासत यह सिखाती है कि सच्चे बदलाव के लिए साहस, समर्पण, और एक स्पष्ट दृष्टिकोण की जरूरत होती है, और यह कि एक व्यक्ति के प्रयास बड़े पैमाने पर बदलाव ला सकते हैं। उनकी जीवन यात्रा आज भी हमें लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मजबूत करने की प्रेरणा देती है।