समाजख़बर यौन हिंसा पर चयनित राजनीतिक प्रतिक्रियाएं, देश में महिलाएं आखिर कब सुरक्षित होगी?

यौन हिंसा पर चयनित राजनीतिक प्रतिक्रियाएं, देश में महिलाएं आखिर कब सुरक्षित होगी?

देश में जब भी महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, बलात्कार की घटना होती है, तो उसमें न्याय मिलना, अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई, यौन हिंसा की समस्या पर बात हो न हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि हर मामले पर राजनीति ज़रूर होती है। कुछ सरकारी प्रतिनिधि बेहद असंवेदनशील और पितृसत्तात्मक बयान देते हैं।

बीते रविवार को महाराष्ट्र के जलगांव दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंच से संबोधन करते हुए कोलकाता और बदलापुर में हुई बलात्कार की घटनाओं पर पहली बार अपना बयान दिया। उन्होंने कहा, “महिलाओं की सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। मैं देश के सभी राजनीतिक दलों एवं प्रत्येक राज्यों की सरकारों से एक बार फिर कहता हूं कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध अक्षम्य हैं। चाहे अपराधी कोई भी हो, उसे बख्शा नहीं जाना चाहिए। उसको किसी भी रूप में मदद करने वाले बचने नहीं चाहिए।” प्रधानमंत्री के इस बयान के आने के बाद से सोशल मीडिया पर लोग मणिपुर में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, बृजभूषण शरण सिंह, कुलदीप सिंह सेंगर, चिन्मयानंद, राम रहीम, आशाराम बापू से लेकर बिलकिस बनो केस के आरोपियों को उनके अपराध के ख़िलाफ़ मिलने वाली रियायत पर सवाल उठाने लगे हैं।

देश में जब भी महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, बलात्कार की घटना होती है, तो उसमें न्याय मिलना, अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई, यौन हिंसा की समस्या पर बात हो न हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि हर मामले पर राजनीति ज़रूर होती है। कुछ सरकारी प्रतिनिधि बेहद असंवेदनशील और पितृसत्तात्मक बयान देते हैं। इस बात का ताज़ा उदाहरण महाराष्ट्र के बादलापुर का जहां 13-14 अगस्त को दो बच्चियों के साथ स्कूल परिसर में हीं सुरक्षाकर्मी द्वारा किये गए यौन शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही एक महिला पत्रकार से एक पूर्व मेयर वामन म्हात्रे ने यहां तक कह दिया कि ‘तुम ऐसे रिपोर्ट कर रही हो जैसे ये बलात्कार तुम्हारे साथ ही हुआ हो”। पूर्व मेयर की ये बातें बलात्कार जैसे घटना पर भी पितृसत्तात्मक सोच को उजागर करती हैं।

कोलकाता डॉक्टर रेप केस के बाद देश भर में डॉक्टरों, सेलेब्रिटीज़ और आम जनता ने व्यापक विरोध किया और तृणमूल कांग्रेस की सरकार से इसकी जवाबदेही मांगी। जूनियर डॉक्टरों की मांग पर ममता बनर्जी ने केस कोलकाता पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंप दिया। इस मामले पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी सक्रियता दिखाते हुए सुओ मोटो लिया।

कोलकता में नौ अगस्त को आर. जी. कर मेडिकल कॉलेज में हुई घटना पर होने वाले विरोधों की गूंज अभी शांत भी नहीं हुई थी कि महाराष्ट्र के बदलापुर की घटना ने देश की आधी आबादी की सुरक्षा पर सवाल खड़े कर दिए हैं और ये सोचने पर मजबूर किया है कि जब किसी महिला या किसी बच्ची के साथ बलात्कार जैसी घटना होती हैं तब सरकारें कार्रवाई के नाम पर आरोप-प्रत्यारोप करके पहले अपनी राजनीतिक छवि बचाने या फिर चमकाने में क्यों लग जाती है। इसे हम ऐसे देख सकते हैं, जब 14 अगस्त की रात कोलकाता की महिलाओं ने आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज की डॉक्टर के ख़िलाफ़ बलात्कार की घटना के बाद ‘रीक्लेम द नाइट’ मार्च निकाला तो कुछ अज्ञात लोगों की भीड़ ने अस्पताल के कुछ हिस्सों में तोड़फोड़ की। जिसके बाद राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सरकार सवालों के घेरे में आ गईं। विपक्षी पार्टियों ने इसे सरकार की सुरक्षा व्यवस्था में गंभीर चूक बताया तो वहीं ममता बनर्जी ने इस पूरे मामले के पीछे वामपंथी दल और बीजेपी का हाथ होने की बात की। इसी तरह जब महाराष्ट्र के बदलापुर में बच्चियों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा, बलात्कार के विरोध में हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया तो राज्य की एकनाथ शिंदे की सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बरता पूर्ण कार्रवाई की और उसे विपक्ष द्वारा प्रेरित आंदोलन बताया।

इन दोनों परिदृश्यों को देखने के बाद ये कहा जा सकता है कि सरकार किसी कि भी हो, राजनीतिक पार्टियों को महिलाओं की सुरक्षा, उनकी अस्मिता और उनकी जिंदगी को बचाने से ज़्यादा अपनी साख बचाने और और विपक्षी पार्टियों की निंदा करने का मौक़ा मिल जाता है। ये हालात तब है जब महिला सुरक्षा पर सरकारी आंकड़ें ही दिखाते है कि देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की घटनाएं तेजी से बढ़ रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट से ये पता चलता है कि अकेले साल 2022 में पूरे भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध के कुल 4,45,256 मामले दर्ज किए गए। वहीं हर घंटे लगभग 51 एफआईआर रजिस्ट्रर की गई। जबकि ये आंकड़े 2021 में 4,28,278 और 2020 में 3,71,503 थे।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता के तहत महिलाओं के ख़िलाफ़ अधिकांश अपराध, पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा हिंसा का होता है जो 31.4 प्रतिशत है। महिलाओं के अपहरण की दर 19.2 प्रतिशत है और बलात्कार की दर 7.1 प्रतिशत है। रिपोर्ट के मुताबिक 2018 से 2022 तक महिलाओं के विरुद्ध दर्ज अपराधों में 12.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो बढ़ी हुई घटनाओं को दर्शाती है। इसी तरह भारत सरकार के द्वारा जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़े देखें तो भारत में 15-49 वर्ष की लगभग एक-तिहाई महिलाओं ने किसी न किसी रूप में हिंसा का अनुभव किया है।

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

सरकार द्वारा जारी रिपोर्टों और आंकड़ें स्पष्ट करते है कि देश में महिला की सुरक्षा एक अहम मुद्दा है जो सरकारों और नेताओं को प्राथमिकता होनी चाहिए। नेताओं को गंभीरता से इस विषय के बारे में सोचते हुए बातचीत करनी होगी लेकिन असलियत इससे विपरीत है। वैसे तो भारत में कमोबेश हर मामले में राजनीति पार्टियां इस पर राजनीति करती नज़र आती है। लेकिन पक्ष-विपक्ष के इस राजनीतिक दंगल में अक्सर बड़े-बड़े सेलिब्रिटीज़ सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर, पुलिस और ख़ास तौर से मेन स्ट्रीम मीडिया भी मोहरे की तरह नज़र आते हैं।

कोलकाता डॉक्टर रेप केस के बाद देश भर में डॉक्टरों, सेलेब्रिटीज़ और आम जनता ने व्यापक विरोध किया और तृणमूल कांग्रेस की सरकार से इसकी जवाबदेही मांगी। जूनियर डॉक्टरों की मांग पर ममता बनर्जी ने केस कोलकाता पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंप दिया। इस मामले पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी सक्रियता दिखाते हुए सुओ मोटो लिया। ये सारे कदम रेप सरवाइवर के पक्ष में हैं, लेकिन सवाल ये है कि जिस देश में हर दिन 86 महिलाओं का बलात्कार होता है और हर 16 मिनट में दूसरा रेप हो जाता है, वहां पर केवल एक मामले में इतनी सक्रियता दिखा देना इंसाफ़ होगा? जबकि बड़ी संख्या में महिलाएं यौन हिंसा के मामलों में सामने तक नहीं आ पाती हैं। इतना ही नहीं बहुत से बलात्कार के मामलों में राजनीतिक दबाव सर्वाइवर और उसके परिवार पर बनाया जाता है।

अपराधी के राजनीति बैकग्राउंड की वजह से बलात्कार सर्वाइवर और उनके परिवार वालों को ही डराया, धकमकया जाता है इतना ही नहीं कई मामलों में बलात्कार सर्वाइवर के परिवार वालों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी। इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश उन्नाव बलात्कार मामला है जहां 17 वर्षीय लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार में एक मुख्य आरोपी और चार बार विधायक और पूर्व भाजपा नेता कुलदीप सिंह सेंगर पर एफआईआर तक नहीं दर्ज की गई थी, बाद में व्यापक जनविरोध के बाद मामला दर्ज हुआ। इसी तरह के एक और मामला उत्तराखंड में हुआ। जहां बलात्कार के मामले में आरोपी का राज्य सरकार के द्वारा समर्थन प्राप्त होने की वजह से उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

कोलकाता डॉक्टर बलात्कार केस में पूरे देश के डॉक्टरों ने 24 घंटे की हड़ताल की और जुलूस निकाले जबकि वही डॉक्टर कम्युनिटी यूपी के मुरादाबाद में एक डॉक्टर द्वारा दलित नर्स के साथ किये गए बलात्कार पर ख़ामोश नज़र आई।

अक्सर बलात्कार के मामले में मिलने वाला इंसाफ़ जाति, धर्म और क्षेत्रीय राजनीति से प्रेरित नज़र आता है। जिसका उदहारण हाथरस में हुए एक दलित लड़की के साथ तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया। जिसके दो सप्ताह बाद लड़की की मौत हो गई थी। बलात्कार के मामले में राजनीति हस्तक्षेप ही एक वजह है जिस कारण लड़की की मौत के बाद उसके मृत शरीर को घर वालों को न सौंप कर, स्थानीय पुलिस द्वारा रात को अंधेरे में आनन-फानन में अंतिम संस्कार कर दिया गया। जिसके बाद परिवार वाले अब तक इंसाफ़ की राह ही ताक रहे हैं। साल 2002 के बिलकिस बानो केस के 11 आरोपियों को 15 अगस्त 2022 गुजरात सरकार ने “अच्छे व्यवहार” के आधार पर रिहा कर दिया। रिहाई के आदेश को गृह मंत्रालय ने आधिकारिक रूप से मंजूरी दी थी। बलात्कारियों की रिहाई के बाद स्थानीय बीजेपी कार्यकर्ताओं ने माला पहनकर उनका स्वागत किया गया और रही-सही कसर मेन स्ट्रीम मीडिया ने पूरी कर दी।

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

राजनीतिक दल और सेलेब्रिटी कई बार अपने निजी स्वार्थों के कारण किसी विशेष मामले में खुलकर सामने आते हैं। जबकि वही लोग दूसरी घटनाओं पर चुप्पी ओढ़े नज़र आते है। कोलकाता डॉक्टर बलात्कार केस में पूरे देश के डॉक्टरों ने 24 घंटे की हड़ताल की और जुलूस निकाले जबकि वही डॉक्टर कम्युनिटी यूपी के मुरादाबाद में एक डॉक्टर द्वारा दलित नर्स के साथ किये गए बलात्कार पर ख़ामोश नज़र आई। बलात्कार, यौन हिंसा की घटनाओं पर समाज, सरकार का चयनित होकर प्रतिक्रियाएं जाहिर करना महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के प्रति असंवेदनशीलता का प्रतीक है। यह सर्वाइवर की न्याय तक पहुंच को भी बाधित करती है। हाईप्रोफाइल मामलों में तो दबाव की वजह से कार्रवाई हो जाती है जबकि अन्य मामलों में प्राथमिकी दर्ज कराने तक के लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता है।

महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, बलात्कार के मामलों पर सरकार, नेताओं, सार्वजनिक हस्तियों का सेलेक्टिव होकर प्रतिक्रियाएं आना समाज में लैंगिक हिंसा की प्रवृत्ति को और जड़ करता है। मणिपुर में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और उसके वायरल वीडियो पर सियासत के अनुसार प्रतिक्रिया देना या फिर उस विषय में बोलना राजनीति है तो यहां ठहरकर बहुत सोचने की ज़रूरत है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के माहौल को कैसे खत्म किया जा सकता है इस दिशा में कदम उठाने ज़रूरी है। सरकार और समाज को अपने दोहरे रवैये और चयनित प्रतिक्रियाओं से आगे निकल कर लैंगिक हिंसा के विषय पर बात करनी होगी। कठोर कानून के साथ-साथ यह भी देखना होगा कार्यपालिका में ऐसे नेता ना हो जिन पर अपराधिक धाराएं लगी हुई हैं। हाल ही में आए एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और न्यू इलेक्शन वॉच के रिपोर्ट में अनुसार 151 सांसदों, विधायकों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज़ हैं जिनमें 16 पर बलात्कार का आरोप है। ऐसे में निष्पक्ष जांच और त्वरित न्याय की उम्मीद करना बेहद मुश्किल है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, बलात्कार के मामलों का मौजूदा राजनीतिकरण सही नहीं है।

साल 2002 के बिलकिस बानो केस के 11 आरोपियों को 15 अगस्त 2022 गुजरात सरकार ने “अच्छे व्यवहार” के आधार पर रिहा कर दिया। रिहाई के आदेश को गृह मंत्रालय ने आधिकारिक रूप से मंजूरी दी थी।

समाज में यह एक धारणा है कि घटना में राजनीति इंसाफ के लिए ज़रूरी भी है लेकिन घटना को पूरी तरह राजनीतिक बना देना और सलेक्टिव होकर घटनाओं पर चुप्पी तोड़ना पूरी तरह से गलत है। भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए केवल कानूनों को सख्त बनाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, न्यायपालिका की निष्पक्षता और समाज की संवेदनशीलता भी उतनी ही ज़रूरी है। जब तक राजनीति समीकरणों से ऊपर उठकर इस मुद्दे को नहीं देखा जाएगा, तब तक भारत में महिलाओं के लिए एक सुरक्षित माहौल नहीं बन सकता है।


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