इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत आखिर क्यों ग्रामीण भारत में चिंता का स्तर बढ़ रहा है?

आखिर क्यों ग्रामीण भारत में चिंता का स्तर बढ़ रहा है?

एंजायटी, डिप्रेशन आदि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों को कभी शहरी बीमारी समझा जाता था। लेकिन आज जिस तरह से ग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बढ़ रही हैं वो हैरान करने वाली स्थिति है। 

उदारीकरण के दशकों में समाज जितनी तेजी से बदला है, मनुष्य उतना ही अकेला भी हुआ है। जनसंचार माध्यमों से लेकर इंटरनेट की  तकनीकी दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन मनुष्य को जहां वैश्विक स्तर पर जोड़ा है उसके जीवन को सुविधाओं से सहज किया, वहीं मनुष्य संबंधों को जटिल और दूर भी किया है। इसी बीच आयी कोरोना महामारी ने मनुष्य के अकेलेपन और असुरक्षा बोध को ज्यादा गहरा किया है। ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति पर रिपोर्ट विश्लेषण 2024 के अनुसार ग्रामीण भारत में चिंता का स्तर बढ़ गया है।  रिपोर्ट में लगभग 45 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उन्हें चिंता का सामना करना पड़ा है। भारत के ग्रामीण इलाकों में 45 फीसदी लोग मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से जूझ रहे हैं। ये रिपोर्ट ग्रामीण इलाकों में दरकते मनुष्य के सामूहिक जीवन से कट जाने और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की स्थिति की पड़ताल है।  

एंजायटी, डिप्रेशन आदि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों को कभी शहरी बीमारी समझा जाता था। लेकिन आज जिस तरह से ग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बढ़ रही हैं वो हैरान करने वाली स्थिति है।  इस रिपोर्ट को देखते हुए सवाल उठता है कि आखिर इन दशकों में ऐसा क्या हुआ, किस तरह के हालत बने कि सहज जीवन जीने वाला ग्रामीण समाज जटिल मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की चपेट में जा रहा है।  ग्रामीण जनजीवन और व्यवस्था को देखते हुए जो प्रमुख कारण दिख रहा है वो आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का संकट दिख रहा है। बाजारवाद की संस्कृति ने गांवों को तेजी से पकड़ा है जिसके कारण मनुष्य की जरूरतें तो बढ़ गयी है, लेकिन आमदनी नहीं बढ़ी। आमदनी के उनके स्रोत खेती ,पशुपालन जैसी चीजें जलवायु परिवर्तन से बहुत प्रभावित हुई हैं। साथ ही जो वो श्रम करके खेती में पैदा करते हैं उन्हें आवारा पशुओं और जंगली जानवरों के द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।

एंजायटी, डिप्रेशन आदि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों को कभी शहरी बीमारी समझा जाता था। लेकिन आज जिस तरह से ग्रामीण इलाकों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बढ़ रही हैं वो हैरान करने वाली स्थिति है। 

उनके पास फसल से कुछ धन आता था जिससे वे खेती के संसाधनों का प्रयोग कर सकते थे। लेकिन लगातार खेती नष्ट होने से उनकी आमदनी खत्म होती चली जा रही है। बारिश न होने से जमीनें वैसे भी उपजाऊ नहीं रह जाती और संसाधनों के लिए उनके पास धन नहीं होता। ऐसी स्थिति से उनमें आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का बोध बढ़ता है। भारत के इन बदलते गांवों में सामाजिक प्रतिष्ठा अब एकदम से धन और ताकत पर निर्धारित है। इस व्यवस्था में जीता ग्रामीण मनुष्य किसी भी तरह से उसमें बना रहना चाहता है और धन उसकी सबसे बड़ी जरूरत है। यहां तमाम उत्सव विवाह आदि में अधिक से अधिक पैसे खर्च करने का चलन है। सामाजिकता के कारण आम जनता ऐसा करने पर मजबूर हैं और न कर पाने पर तरह-तरह से नीचा दिखाया जाता है।

खेतिहर जनता के पास आय की कमी और शहरीकरण

खेती की बदहाली से यहां का जीवन इन दशकों में बेहद बदहाल हुआ है। खासकर छोटे और मझोले किसान, खेत मजदूर, बटाई पर खेती करते किसान सब इसके चपेट में आये। गाँव में रोजगार नहीं है तो युवा पलायन के लिए मजबूर हैं। शहरों में भी जो रोजगार हैं, उनमें श्रम का मूल्य इतना कम है कि परिवार पालना मुश्किल होता है। शहरी रोजगार में उन्हें इतनी आमदनी नहीं होती कि पूरे परिवार का खर्च उठा सकें। ऐसे में एक अवसादग्रस्त जीवन उनके हिस्से आता है। अपनी जमीन अपने लोगों से छूटा हुआ उनका जीवन होता है। जब शहरों में भी रोजगार नहीं मिलता तो लौटकर गाँव आना और निराशा भरता है। गरीबी और सामाजिक मर्यादा का बोझ उन्हें अवसाद की तरफ ले जाता है।

तस्वीर साभार: George Institute for Global Health

दिखावे की संस्कृति के बोझ में दबा ग्रामीण मन  दिखावे की संस्कृति में आज पूरा समाज फंसा हुआ है। लेकिन ग्रामीण समाज में ये दिखावा गहरे जड़ लिए हुए है। शहरी परिवेश में तो ज्यादातर अलग-अलग जगहों से आए हुए अलग-अलग संस्कृति के लोग होते हैं। लेकिन, गांवों में उनकी संस्कृति की अपनी जमीन होती है। वंशावलियों की एक जड़ पहचान होती है  जहां हर कोई हर किसी की सात पीढ़ियों से अधिक का इतिहास जानता रहता है। ऐसे जानने वालों में फंसा मनुष्य सब कुछ उन्हीं जानने वालों की जानिब में करता है। जैसे शादी में कम खर्च हुआ तो लोग क्या कहेंगे, मुंडन में कम पैसा खर्च हुआ तो समाज क्या कहेगा, धार्मिक आयोजनों में तो बेहद प्रतिस्पर्धा हो गयी है। कोई दस लाख के बाबा से कथा करायेगा तो कोई बीस लाख के बाबा से। इतने भव्य और खर्चीले उत्सव होते हैं कि उन पैसों का हिसाब हो तो उससे जीवन में कोई बड़ा सार्थक काम हो सकता है।

शहरी रोजगार में उन्हें इतनी आमदनी नहीं होती कि पूरे परिवार का खर्च उठा सकें। ऐसे में एक अवसादग्रस्त जीवन उनके हिस्से आता है। अपनी जमीन अपने लोगों से छूटा हुआ उनका जीवन होता है। जब शहरों में भी रोजगार नहीं मिलता तो लौटकर गाँव आना और निराशा भरता है।

सामाजिकता में खर्च होता ग्रामीणों का पैसा और तनाव

तस्वीर साभार: India Today

शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार पर वो खर्च हो तो काफी कुछ बेहतर हो सकता है। गाँव में शादी के आयोजनों में ख़र्चे को लेकर एक होड़ सी लगी रहती है। यहां व्यर्थ के सामन्ती मूल्यों को इतना महिमामंडित किया जाता है कि मनुष्य उससे इतर जीवन मूल्य सोच भी नहीं सकता। भारत में राजनीतिक रूप से चेतना सम्पन्न लोगों की बेहद कमी है।  गाँवों में जति और ताकत की राजनीति है।  शिक्षा रोजगार स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर कोई बहस नहीं जिसका परिणाम है कि ग्रामीण जीवन तमाम तरह की मानसिक और शारीरिक बीमारियों से ग्रस्त है। आर्थिक स्थिति से ही यहाँ समाजिक प्रतिष्ठा का निर्माण होता है तो लोग आपस में व्यर्थ की प्रतिस्पर्धा में उलझकर अपना मानसिक स्वास्थ्य खराब करते हैं।

शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार पर वो खर्च हो तो काफी कुछ बेहतर हो सकता है। गाँव में शादी के आयोजनों में ख़र्चे को लेकर एक होड़ सी लगी रहती है। यहां व्यर्थ के सामन्ती मूल्यों को इतना महिमामंडित किया जाता है कि मनुष्य उससे इतर जीवन मूल्य सोच भी नहीं सकता।

मानसिक तनाव का एक बहुत बड़ा कारण है बेरोजगारी

ग्रामीण जीवन में जहाँ एक ओर बेरोजगारी बढ़ती ही जा रही है वही मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया में लोग आँख गड़ाये हैं। गाँवों में स्मार्ट फोन का आना एक बहुत बड़ा बदलाव लेकर आया हालांकि ये बदलाव बाहरी रूप से उतने स्पष्ट नहीं दिख रहे हैं जितने भीतर जड़ जमा चुके हैं। यहाँ के लोगों के दिल-दिमाग को बहुत तेजी से स्मार्टफोन ने जकड़ा। लेकिन उसके साथ अवसाद निराशा आना तय था क्योंकि वे दिन रात मोबाइल फोन में चमकीली दुनिया देखते हैं सामने खुरदरा मटमैला यथार्थ होता है जो उनको परेशान करता है। ग्रामीण समाज की बनावट में जो सबसे सुंदर चीज थी सामुहिकता का जीवन वो इन दशकों में बहुत तेजी से खत्म हुआ। आज यहाँ के जीवन में मनुष्य बहुत अकेला हुआ है।

तस्वीर साभार: Unicef

ग्रामीण राजनीति और वर्चस्व के झगड़ों में गवईं जीवन में आपसी सम्बन्धों में बहुत अंतर आ गया है। ये स्थिति मनुष्य को अवसादग्रस्त कर सकती है। विकास और आधुनिकता के नाम पर गांव में आधुनिक चीजें आई है जिससे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हुए हैं। पहले गांव में खेती अलग-अलग होते हुए भी सामुहिक खेती का व्यवहार चलता था जैसे धान की रोपनी से गेहूँ की कटाई मड़ाई आदि कार्य सामुहिक होते थे। इससे जीवन में उल्लास और संग-साथ का राग होता था। तालाब, पोखर,कुआं ऐसी जगहें थी जहाँ लोग अक्सर मिलते बैठते थे। उनके लिए हास-परिहास, बातचीत, बहस की ये जगहें थीं। अब लोग अपने-अपने घरों में स्मार्ट फोन या टीवी के साथ बैठे रहते हैं।

तालाब, पोखर,कुआं ऐसी जगहें थी जहाँ लोग अक्सर मिलते बैठते थे। उनके लिए हास-परिहास, बातचीत, बहस की ये जगहें थीं। अब लोग अपने-अपने घरों में स्मार्ट फोन या टीवी के साथ बैठे रहते हैं।

ग्रामीण मनोरंजन के साधनों का कम हो जाना

ग्रामीण जनजीवन में मनोरंजन के अपने साधन होते थे। नौटंकी, कजरी चइता, बिरहा जैसी विधाएं उनके अपने गीत अपनी कथाएं होती थी। दिनभर के परिश्रम के बाद शाम को लोगों के सुखों-दुखों के वो आख्यान हुआ करते थे जिसे बाजारवाद ने नष्ट कर दिया। आल्हा और दंगल जैसी कला और खेल के गवईं विधाएं नयी संस्कृति से गायब होते जा रहे हैं। जिस तरह से आज भारतीय समाज अपने यथार्थ से मुँह चुरा रहा है या यथार्थ को महज सतही तौर पर देख रहा है उससे ये स्थितियां बनेंगी। इन स्थितियों में फंसे समाज को गहराई से देखें तो आज एक अजीब तरह का समाज बन चुका है। स्वास्थ्य और निष्पक्ष आलोचनात्मक दृष्टि और स्थितियों की सही समीक्षा अगर नहीं है, तो समाज अवसाद, उन्माद, उदासीनता और निराशा की तरफ ही जायेगा।

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