संस्कृतिकिताबें ‘तट की खोज’: एक नारी की आत्म-खोज की कहानी

‘तट की खोज’: एक नारी की आत्म-खोज की कहानी

'तट की खोज' एक उपन्यास के रूप में लेखक ने सामाजिक टिप्पणी की है जो एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति और उनके संघर्षों को उजागर करती है। हरिशंकर परसाई ने इस कृति के माध्यम से स्त्री जीवन की जटिलताओं को सहजता से प्रस्तुत किया है।

ऐसा बहुत कम बार होता है जब वर्षों पहले लिखी किसी किताब को पढ़ते, उसमें घट रही घटनाओं को आप आज भी अपने आसपास होते देख रहे होते हैं। मानो लेखक ने जस का तस इन्हीं किस्सों को लिख दिया हो। हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित लघु उपन्यास ‘तट की खोज’ ऐसी एक रचना है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। ‘तट की खोज’ में शीला के माध्यम से हरिशंकर परसाई ने स्त्री की भारतीय समाज में स्थिति, उनकी आकांक्षाओं और समाज में उनकी अपनी पहचान के संघर्ष को पाठकों के सामने खोलकर रख दिया है। इसमें उन्होंने महिलाओं के जीवन में आने वाली बाधाओं और उससे उबरते हुए उनके व्यक्तित्व के विकास को दर्शाने का प्रयास किया है। चूंकि शीला की कहानी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत एक महिला की आन्तरिक यात्रा और उसके मानसिक विकास की कहानी है।

उपन्यास की नायिका शीला कहने को तो बी.ए. में पढ़ रही है, पर असल में वो अपनी शादी होने का इंतज़ार कर रही है। लेकिन भारतीय समाज में जहां एक ओर “शादी होना लड़की के सभी गुणों से सम्पन्न होने के अलावा उसके पिता की आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करता है।” वहीं दूसरी ओर पुरुष अपने कुल, वैवाहिक जीवन के सुख, संरक्षण के लिए शादी करता है। समाज की यही विडंबना है। और अपनी लेखनी से परसाई इस पर चोट करते नज़र आते हैं। इस उपन्यास में परसाई समाज में पैर पसारे ढोंग और विरोधाभास को उजागर करने का काम करते हैं। चाहे वो लड़कियों को सिर्फ़ इसलिए पढ़ाना कि वो ससुराल पक्ष को आकर्षक लग सके या फिर “लड़की के काॅलेज में पढ़ने से पिता कुछ समय के लिए ज़िल्लत से बच जाता है। लोगों से यह कहने के बदले कि विवाह नहीं हो पा रहा है, वह यह कह सकने की सुविधा पा लेता है कि अभी पढ़ रही है।”

‘तट की खोज’ में शीला अपने जीवन में एक ठोस दिशा की तलाश में है। उपन्यास में उसके माध्यम से परसाई ने यह दर्शाया है कि कैसे एक महिला को समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। शीला की यह खोज न केवल भौतिक बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी है।

उपन्यास में कई किरदार है। जैसे महेंद्रनाथ जो बहुत सज्जन समझे जाने वाले व्यक्ति हैं, जो बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन अक्सर परीक्षा के घड़ी में भाग खड़े होते हैं। ऐसे ढोंगी जीवन जीने वाले लोगों को बेनकाब करती है ये कहानी। इसी तरह से कहीं न कहीं शीला में भी ये विरोधाभास है जो तब नज़र आता है जब वह अपनी दोस्त विमला से कहती है, ‘‘हमें बिना पैसे के कोई लेने को तैयार नहीं है, तो हमें विवाह करने से इनकार कर देना चाहिए। अगर हमारी एक पीढ़ी इसी प्रकार विद्रोह कर दे, तो लोगों की अक्ल ठिकाने आ जाए।’’ जिस पर सीधा हृदय छिन्न-भिन्न करने वाला विमला का जवाब आता है, “हां जी, जब तक कोई गुण-ग्राहक नहीं मिला, तभी तक बातें करती हो। जिस दिन कोई हृदय अर्पण करेगा, भाग्य सराहोगी और चुपचाप अनुगामिनी हो जाओगी।’’ 

इसी तरह से शीला के आस-पड़ोस में ऐसे लोग रहते हैं जो खुद तो नैतिक रूप से चौपट हैं लेकिन शीला के चरित्र पर टिका-टिपण्णी करते और उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाते नज़र आते हैं। विमला की भाभी जैसे लोग भी हैं जो पैसे को ही सब कुछ मानते हैं। उनके अनुसार पैसा है तो व्यक्ति सभी गुणों से संपन्न है और अगर पैसा नहीं तो व्यक्ति किसी काम का नहीं है। पैसे के आगे उन्हें कोई कमी नज़र नहीं आती। 

तस्वीर साभारः Goodreads

‘तट की खोज’ में शीला अपने जीवन में एक ठोस दिशा की तलाश में है। उपन्यास में उसके माध्यम से परसाई ने यह दर्शाया है कि कैसे एक महिला को समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। शीला की यह खोज न केवल भौतिक बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी है। वह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है और यह संघर्ष उसके व्यक्तिगत विकास का आधार बनता है। जैसा कि वह एक जगह कहती भी है, “मैं अपने लिए एक तट की खोज कर रही हूं, जहां मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकूं।” यह पंक्ति न केवल शीला की मानसिक स्थिति को दर्शाती है, बल्कि यह उस व्यापक सामाजिक सन्दर्भ को भी उजागर करती है, जिसमें महिलाएं अक्सर असुरक्षित महसूस करती हैं और अनिश्चितता में जीती हैं।

यह ऐसा समाज है जहां लड़कियों को घर में कैद रखने के पैरोकार कई मिलते हैं लेकिन घर में भी लड़कियां सुरक्षित हैं क्या? शीला से ही सुनते हैं, “मैं सुन्दरी भी थी, ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि सहपाठी तरुणों से लेकर मुंहबोले काका, मामा, दादा सब मुझे बड़ी लोलुपता से घूरते थे। कुछ लोग पिता जी से मिलने आते, तो वे पिता जी से बातें करने में ध्यान कम लगाते, परदे तथा दरवाजे के बीच से मुझे देख सकने का प्रयास करने में अधिक प्रयास करते है।” यहां परसाई का सूक्ष्म व्यंग्य समाज की स्थूल सच्चाई के रूप में सामने आती है।

शीला अपनी आकांक्षाओं, पारिवारिक-सामाजिक अपेक्षाओं और आदर्शों के बीच जूझती नज़र आती है, जिसके कारण उसे कई बार निराश होना पड़ता है। शीला जिस महेंद्रनाथ को एक सच्चा और अच्छा व्यक्ति समझकर प्रेम करती है, उससे भी उसे निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि उस खोखले आदर्शों वाले व्यक्ति में सच का सामना करने की भी हिम्मत नहीं होती। जहां वो अपनी चुप्पी तोड़कर बिगड़ी स्थिति ठीक कर सकता था, वहां वो उस स्थिति से पलायन का निर्णय लेता है। महेंद्रनाथ की यह प्रवृत्ति उसे एक सामान्य पुरुष के बराबर खड़ा करती है, जो समाज के दबावों से जूझता है। यह घटना शीला के भीतर एक द्वंद्व पैदा करती है जो उसके एक मानसिक संघर्ष में बदल जाता है, “कभी-कभी प्रेम की अपेक्षा घृणा का सम्बन्ध अधिक मज़बूत होता है।” शीला के लिए प्रेम और घृणा दोनों ही उसके जीवन के अहम हिस्से हैं। 

इसके तुरन्त बाद जब शीला के पिता का निधन हो जाता है तब भी आसपास के लोग उनकी अर्थी उठाने के लिए भी नहीं जुटते। यहां लेखक समाज के हर उस व्यक्ति से सवाल करते हैं कि ये कैसा समाज है जहां व्यक्ति के मरने के बाद भी उससे दुश्मनी निकाली जाती है। यह सब घटना शीला को अन्दर से झकझोर कर रख देती है लेकिन इसके बाद भी शीला मज़बूत बनी रहती है। हालांकि इन सबका नकारात्मक प्रभाव उसके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है, जिसका दंश वो काफ़ी समय तक झेलती है। पिता के निधन के बाद उसके साथ विमला और उसका भाई मनोहर उसके साथ खड़े रहते हैं। महेंद्रनाथ के बाद शीला मनोहर से सहज प्रेम कर बैठती है। महेंद्रनाथ के विपरीत मनोहर एक ऐसा चरित्र है जो जिसके कथनी और करनी में अन्तर नहीं है और न ही वो कोई आदर्शवादी है। वो केवल यथार्थ की बात करता है और शीला को भी इसी तरह से जीने की सलाह देता है। शीला के प्रति मनोहर के भावनात्मक सम्बन्धों में जटिलता है, जो कहानी को और भी दिलचस्प बनाती है।

उपन्यास के अन्त में शीला अपने जीवन के कड़वे अनुभवों से तंग आकर मोहल्ला छोड़कर चल देने का निर्णय लेती है। वो यह मानने से इनकार कर देती है कि लड़की की जीवन रूपी कश्ती के लिए ससुराल ही एक तट है। और वो अपने लिए एक तट की खोज में निकल पड़ती है। शीला के जीवन की यात्रा और उसके व्यक्तिगत विकास को हम तीन चरणों में देख सकते हैं- पहला जब वह अपने पिता के लिए एक आदर्श बेटी और बहु बनने के लिए संघर्ष करती है, लेकिन इस प्रक्रिया में वह खुद को खो देती है। दूसरा जब शीला अपनी पहचान को समाज की सीमाओं से परे देखना शुरू करती है और तीसरा जब अपनी आन्तरिक यात्रा में वह अपने अस्तित्व की खोज कर रही होती है।

यह ऐसा समाज है जहां लड़कियों को घर में कैद रखने के पैरोकार कई मिलते हैं लेकिन घर में भी लड़कियां सुरक्षित हैं क्या? शीला से ही सुनते हैं, “मैं सुन्दरी भी थी, ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि सहपाठी तरुणों से लेकर मुंहबोले काका, मामा, दादा सब मुझे बड़ी लोलुपता से घूरते थे।

उपन्यास में शीला का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वह एक ओर जहां अपने सपनों और आकांक्षाओं की खोज में लगी है, वहीं दूसरी ओर वह समाज की मर्यादाओं से भी जूझती है। उसका व्यक्तित्व धीरे-धीरे विकसित होता है और वह अपने आप को समझने में सक्षम होती है। यह प्रक्रिया समाज और परिवार की उन धारणाओं पर प्रश्न उठाता है जो महिलाओं को अपनी पहचान खोजने से रोकती हैं। शीला इन धारणाओं से मुक्त होने का लगातार प्रयास करती है और अपने आपको खोजने की कोशिश करती है।

हरिशंकर परसाई ने इन विषयों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक को न केवल शीला के संघर्षों का एहसास होता है, बल्कि वह समाज की उन धारणाओं पर भी विचार करने के लिए प्रेरित होता है जो महिलाओं की स्वतंत्रता और उनकी पहचान को बाधित करती हैं। ‘तट की खोज’ एक उपन्यास के रूप में लेखक ने सामाजिक टिप्पणी की है जो एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति और उनके संघर्षों को उजागर करती है। उपन्यास की नायिका शीला का सफ़र हर महिला के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो अपने सपनों और आकांक्षाओं की खोज में है। 


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