इतिहास दीपा नौटियाल: उत्तराखंड की वो महिला जिसने शराबबंदी के खिलाफ़ महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी#IndianWomenInHistory

दीपा नौटियाल: उत्तराखंड की वो महिला जिसने शराबबंदी के खिलाफ़ महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी#IndianWomenInHistory

उन्होंने तुरंत डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय जाकर उनसे इस मामले पर कार्रवाई की मांग की। जब कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो माई खुद केरोसिन और माचिस लेकर शराब की दुकान पर पहुंची और दरवाजा तोड़कर दुकान में आग लगा दी।

उत्तराखंड में शराब पीना सिर्फ एक व्यक्तिगत मुद्दा नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से जुड़ा हुआ मुद्दा बन गया है। 1965-1971 के बीच कई आंदोलन हुए, जिनके कारण सरकार को शराब को गैरकानूनी घोषित करना पड़ा। मौजूदा समय में उत्तराखंड के टिहरी, चमोली और उत्तरकाशी जिलों में शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध है। वहीं, पौड़ी और पिथौरागढ़ जिलों में शराब लेने के लिए परमिट की आवश्यकता होती है।

इसके उलट, नैनीताल, अल्मोड़ा और देहरादून जिलों में शराब की बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं है। शराब के उत्पादन और बिक्री को रोकने के लिए उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में कई आंदोलन हुए। इन्हीं आंदोलनों में से एक था जिसने दीपा नौटियाल को ‘टिंचरी माई’ बना दिया। इस लेख में हम जानेंगे कि आखिर कौन थीं दीपा नौटियाल, जिन्हें अब लोग टिंचरी माई के नाम से जानते हैं?

शराब के उत्पादन और बिक्री को रोकने के लिए उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में कई आंदोलन हुए। इन्हीं आंदोलनों में से एक था जिसने दीपा नौटियाल को ‘टिंचरी माई’ बना दिया।

दीपा नौटियाल का जन्म और बचपन

दीपा नौटियाल का जन्म साल 1917 में उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के थलीसैंण ब्लॉक के मंजयुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम रामदत्त नौटियाल और माता का नाम रूपा देवी था। जन्म के समय उनका नाम दीपा रखा गया था। लेकिन संघर्षपूर्ण जीवन के बाद वे उत्तराखंड में ‘टिंचरी माई’ के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। हमारे समाज में कई लोग होते हैं, जो दुनियादारी और मोह-माया से सन्यास लेकर एकांत जीवन जीते हैं। लेकिन टिंचरी माई ने सन्यास लिया और अपना जीवन समाज की भलाई के लिए समर्पित कर दिया। दीपा मात्र दो साल की थीं, जब उन्होंने अपनी माँ को खो दिया। इसके बाद, पांच साल की उम्र में उनके पिता का भी निधन हो गया, जिससे वे पूरी तरह अकेली पड़ गईं। उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके दूर के चाचा ने उनकी देखभाल की। बचपन में दीपा काफी शरारती और चंचल थीं। गांव में शिक्षा की कमी के कारण दीपा पढ़ाई नहीं कर पाई थीं। मात्र सात साल की उम्र में उनकी शादी एक 17 साल बड़े व्यक्ति से कर दी गई, जो आर्मी में हवलदार थे।

तस्वीर साभार: Umjb

जब दीपा 19 साल की हुईं, तब उनके पति शहीद हो गए। विधवा होने के बाद दीपा के ससुराल वालों ने उनके साथ बुरा व्यवहार करना शुरू कर दिया। समाज में विधवाओं के साथ अत्याचार होना दुर्भाग्यपूर्ण है। लोग भूल जाते हैं कि वे भी समाज का हिस्सा हैं और उन्हें भी सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है। कुछ समय बाद दीपा ने ससुराल छोड़ दिया और लाहौर चली गईं। वहां उन्हें एक मंदिर में आश्रय मिला, जिसने उनके जीवन को एक नया मोड़ दिया। एक सन्यासी के मार्गदर्शन में उन्होंने सन्यास लिया और अपना जीवन जनकल्याण के लिए समर्पित कर दिया। सन्यास लेने के बाद उनका नाम ‘इच्छागिरी माई’ रखा गया। इसके बाद, वे विभिन्न स्थानों पर जाकर लोगों की समस्याओं का समाधान करने लगीं।

गांव में शिक्षा की कमी के कारण दीपा पढ़ाई नहीं कर पाई थीं। मात्र सात साल की उम्र में उनकी शादी एक 17 साल बड़े व्यक्ति से कर दी गई, जो आर्मी में हवलदार थे।

जब माई ने जवाहरलाल नेहरू से की मुलाकात

तस्वीर साभार: Kafal Tree

1947 में इच्छागिरी माई हरिद्वार के चंडीघाट में रहने लगीं। वहां उन्होंने देखा कि संत और साधु नशे में डूबे रहते हैं, जो उन्हें बहुत दुखी कर गया। इस कारण माई ने यह ठान लिया कि वे समाज में फैली इस बुराई के खिलाफ आवाज उठाएंगी। इसके बाद, माई उत्तराखंड के कोटद्वार के भाबर सिंगड़ी गांव में आकर बस गईं। उस समय गांव में पानी की भारी समस्या थी, जिसके कारण गांव की महिलाओं को दूर-दूर तक पानी लाने के लिए जाना पड़ता था। माई ने प्रशासन से कई बार इस बारे में शिकायत की, लेकिन कोई हल नहीं निकला। तब माई खुद दिल्ली जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी से मिलने जा पहुंची। नेहरू माई के संकल्प और जिद्द को देखकर उनसे मिले और उनकी समस्या सुनी। माई ने नेहरू से गांव की पानी की समस्या हल करने की मांग की। नेहरू जी ने उनसे वादा किया और जल्द ही गांव में पानी की व्यवस्था कर दी गई।

कैसे शराबबंदी के खिलाफ किया संघर्ष

कोटद्वार से माई उत्तराखंड के मोटाधक गांव में रहने आ गईं। यहां माई की मुलाकात एक शिक्षक से हुई, जिन्होंने माई को रहने के लिए स्थान दिया। माई खुद तो पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन उन्हें शिक्षा का महत्व पता था। गाँव में स्कूल न होने के कारण माई ने शिक्षक के साथ मिलकर चंदे से एक स्कूल की स्थापना की, जो आज इंटरमीडिएट तक का स्कूल है। मोटाधक में अपना काम पूरा करने के बाद, माई कुछ समय के लिए बद्रीनाथ और केदारनाथ में रहीं। उसके बाद वे पौड़ी गढ़वाल वापस आईं। एक दिन, माई ने एक व्यक्ति को नशे की हालत में बेसुध पड़ा देखा, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा। उन्होंने तुरंत डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय जाकर उनसे इस मामले पर कार्रवाई की मांग की। जब कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो माई खुद केरोसिन और माचिस लेकर शराब की दुकान पर पहुंची और दरवाजा तोड़कर दुकान में आग लगा दी।

एक दिन, माई ने एक व्यक्ति को नशे की हालत में बेसुध पड़ा देखा, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा। उन्होंने तुरंत डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय जाकर उनसे इस मामले पर कार्रवाई की मांग की। जब कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो माई खुद केरोसिन और माचिस लेकर शराब की दुकान पर पहुंची और दरवाजा तोड़कर दुकान में आग लगा दी।

शराब की दुकान जलाने के बाद माई को कोई पछतावा नहीं था, बल्कि उन्होंने इस पर गर्व किया कि उन्होंने कई परिवारों को बर्बाद होने से बचाया। इस बहादुरी भरे काम के बाद इच्छागिरी माई को ‘टिंचरी माई’ कहा जाने लगा। इसके बाद उन्होंने शराब के खिलाफ़ अपनी लड़ाई को जारी रखा और कई महिलाओं को भी प्रेरित किया। वे पहाड़ों से शराब की लत की इस सामाजिक बीमारी को जड़ से खत्म करना चाहती थीं। समाज की बुराइयों के खिलाफ़ लड़ते हुए, माई ने 19 जून 1992 को अंतिम सांस ली। बिना माता-पिता के, संघर्षमय जीवन जीने वाली दीपा नौटियाल ने यह साबित कर दिया कि जीवन को अपने अनुरूप ढाला जा सकता है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि परिस्थिति चाहे कितनी भी कठिन हो, अगर हमारे इरादे मजबूत हों तो हम जीत सकते हैं।

Source:

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content