खेलों में महिलाओं के ड्रेस कोड ‘परंपराओं’ द्वारा निर्धारित किए जाते हैं जो पुराने और लिंग आधारित दोनों हैं। उनके पहनावे ने लंबे समय से ‘स्त्रीत्व’ की धारणाओं को ‘एथलेटिकिज़्म’ के साथ समेटने की कोशिश की है, लेकिन इस प्रक्रिया ने महिलाओं को उनके खेल कौशल के लिए जाना जाने के बजाय प्रशंसा की वस्तु में बदल दिया है। महिला खिलाड़ियों को अक्सर उनकी खेल क्षमता से ज्यादा उनके शारीरिक रूप पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। लोग उनके खेल की उपलब्धियों की बजाय उनके कपड़ों, लुक, और शारीरिक बनावट पर अधिक बात करते हैं। यह एक पुरुषवादी मानसिकता है जो महिलाओं को उनकी प्रतिभा और क्षमता के बजाय उनके शारीरिक रूप से आंकती है। इसके अलावा, अगर कोई महिला खिलाड़ी प्रेगनेंट हो जाती है, तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि उनका खेल करियर खत्म हो गया है। समय के साथ, महिलाओं के खेल परिधानों में बदलाव आया है, लेकिन अक्सर उनके शरीर को दिखाने और उनके कर्व्स को उजागर करने पर जोर दिया जाता है। इतिहास में कई दफ़ा महिलाओं को अपने खेल के लिए परिधान चुनने की स्वतंत्रता के लिए लड़ना पड़ा है।
खेलों में भी कैसे पितृसत्ता ने तय किया महिलाओं के परिधान
19वीं शताब्दी और वर्तमान समय के बीच खिलाड़ियों के कपड़ों में काफी बदलाव आया है। लेकिन अधिकांश पोशाकें महिलाओं के सेक्सुअलाइजेशन की ओर विकसित हुई हैं, जो अक्सर उनके शारीरिक रूप पर ध्यान केंद्रित करती हैं। इस बदलाव में महिला एथलीटों के लिए छोटे और तंग कपड़े, जैसेकि शॉर्ट्स और टॉप्स, शामिल हैं, जो अक्सर उनके शरीर को प्रदर्शित करते हैं। 19वीं सदी में, महिला खिलाड़ी विभिन्न खेलों जैसे घुड़सवारी, शिकार, और टेनिस के लिए लंबी पोशाकें, जूते और टोपी पहनती थीं। उन्हें शिष्टाचार के नियमों का पालन करना होता था, जिसका अर्थ था कि वे बहुत ज़्यादा कामुक कपड़े नहीं पहन सकती थीं। लेकिन वे पुरुषों की तरह कपड़े भी नहीं पहन सकती थीं। उन्हें अपने पहनावे में संतुलन बनाना होता था ताकि वे शालीन दिखें और साथ ही खेल के लिए उपयुक्त भी दिखें।
20वीं सदी की शुरुआत में, ओलंपिक खेल समिति ने महिला एथलीटों के पहनावे पर सख्त नियंत्रण रखा था, ताकि वे पुरुष एथलीटों का ध्यान भटकाने की स्थिति में न हों। हालांकि, ओलंपिक खेलों के बाद, महिला एथलीटों के कपड़े धीरे-धीरे अधिक व्यावहारिक और आरामदायक होने लगे, भले ही वे अभी भी प्रतिबंधात्मक थे। टेनिस खिलाड़ी सुज़ैन लेंग्लेन ने इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जब उन्होंने छोटे शॉर्ट्स पहनना शुरू किया जो उस समय के लिए एक साहसिक कदम था। इससे महिला एथलीटों के लिए खेल के मैदान में अधिक आराम और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ। 20वीं सदी के अंत में, महिला एथलीटों के कपड़े अधिक आरामदायक थे, जो उनके प्रदर्शन में सुधार करने में मददगार थे। लेकिन इसके बाद जब नए डिजाइनों के साथ, कपड़े अधिक फिट और खुले हुए होने लगे तो महिलाओं के शरीर की बनावट को और अधिक प्रदर्शित करते।
तब इस बदलाव ने व्यावहारिकता से हटकर सौंदर्यबोध की ओर रुख़ किया, जहां महिला एथलीटों के कपड़े सिर्फ उनके प्रदर्शन को सुधारने के लिए नहीं, बल्कि उनके शारीरिक कदकाठी को प्रदर्शित करने के लिए भी डिजाइन किए जाने लगे। यह बदलाव खेल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व और उनके शरीर को आब्जेक्टिफाइ करने के बारे में सवाल उठाता है। 21वीं सदी की शुरुआत में, महिला एथलीटों के कपड़ों के चयन में स्त्रीद्वेषी सोच अभी भी मौजूद है। 2004 में, फीफा के अध्यक्ष सेप ब्लैटर ने कहा था कि महिला फुटबॉलरों को प्रायोजकों को आकर्षित करने के लिए टाइट शॉर्ट्स पहनने चाहिए, जो एक रूढ़िवादी दृष्टिकोण है। इस तरह के बयानों और दबावों के कारण, महिलाओं को अपने अधिकार को मान्यता दिलाने के लिए लगातार लड़ना पड़ता है। ये महिला खिलाड़ियों की निजी चुनाव होना चाहिए कि वे खेल में किस परिधान में सहज महसूस करती हैं।
महिला खिलाड़ियों के लिए शरीर की चर्चा खेल से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों है?
खेलों में भाग लेने वाली महिलाओं के लिए अनिवार्य अंग प्रदर्शन वाले कपड़े एक बड़ी समस्या बन रहे हैं। ऐसे कपड़े उन्हें असहज कर देते हैं और उनके खेल पर ध्यान केंद्रित करने में बाधा डालते हैं। वे अपने पीरियड्स, कपड़े के खराब होने या शरीर के कुछ हिस्सों के दिखने को लेकर चिंतित रहती हैं, जिससे उनके प्रदर्शन पर असर पड़ता है। आत्मविश्वास की कमी के कारण भी खेल प्रभावित होता है। महिला खिलाड़ियों के कपड़ों पर पुरुषों की तुलना में अधिक ध्यान दिया जाता है, जो लिंगभेदी मानसिकता को दर्शाता है।
मीडिया और समाज में महिला एथलीटों को उनके खेल प्रदर्शन की जगह उनके शरीर और लुक पर ज्यादा आलोचना झेलनी पड़ती है। उन्हें सुंदरता के मानकों में फिट होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। एक लेख “द नेकेड ट्रुथ” में कहा गया कि मीडिया उनके प्रदर्शन की बजाय उनके शरीर के प्रकार और लुक पर ध्यान देता है। 2008 के एक अध्ययन के अनुसार, 2004 के ओलंपिक के बीच वॉलीबॉल मैचों में टीवी कैमरे खिलाड़ियों के खेल कौशल से अधिक उनके शरीर पर फोकस करते थे। इसमें 20 फीसद शॉट्स उनकी छाती और 17 फीसद नितंबों पर केंद्रित थे।
भारत में महिला खिलाड़ियों को लेकर नजरिया
महिला खिलाड़ियों के कपड़ों के मामले में लोगों का नजरिया भारत की प्रमुख टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा भी अपवाद नहीं है। 2005 में कट्टर मुस्लिम संगठन सुन्नी उलेमा बोर्ड ने सानिया मिर्ज़ा को पथभ्रष्ट बताते हुए कहा था कि वह युवा मुस्लिम लड़कियों को इस्लाम के रास्ते से हटाने का काम कर रही है। बोर्ड ने सानिया के खिलाफ़ एक फतवा भी जारी किया और उसे मैचों के दौरान पूरे कपड़े पहन कर खेलने के लिए कहा गया और साथ ही उसके कपड़ों को गैर-इस्लामिक करार दिया। बोर्ड के बयान पर सानिया मिर्जा ने कहा था कि अगर वह खेल में जीत हासिल कर रही हैं, तो मेरी स्कर्ट के 6 इंच लम्बे होने या 6 इंच छोटे होने से क्या फर्क पड़ता है? वो कैसे कपड़े पहनती हैं, ये उनका निजी मामला है।
जब खिलाड़ियों ने महिला खिलाड़ियों के परिधानों पर किया विरोध
महिला खिलाड़ियों ने परिधानों के बंधन से बाहर निकलने की कोशिश की है। जैसे, सेरेना विलियम्स, ऐनी व्हाइट और डच बीच हैंडबॉल टीम जैसी महिला एथलीटों ने खेल में महिलाओं के पहनावे के नियमों के खिलाफ़ आवाज उठाई है, जो अक्सर उनके शरीर को प्रदर्शित करने और उनके सेक्सुअलाइज़ करने वाले डिज़ाइन को बढ़ावा देते हैं। सेरेना विलियम्स ने 2018 में एक जंपसूट पहनकर आलोचना का सामना किया, जबकि ऐनी व्हाइट ने 1985 में जंपसूट पहनने के लिए आलोचना की गई थी। डच बीच हैंडबॉल टीम ने 2021 में बिकिनी की जगह शॉर्ट्स पहनने के लिए जुर्माना लगाया गया था, जबकि पुरुषों को शॉर्ट्स पहनने की अनुमति है। इन घटनाओं से पता चलता है कि महिला एथलीटों को अक्सर उनके पहनावे के लिए आलोचना और जुर्माना का सामना करना पड़ता है, जबकि पुरुषों को अधिक विकल्प और स्वतंत्रता होती है। यह रूढ़िवादी दृष्टिकोण है जो महिलाओं को उनके शरीर और पहनावे पर नियंत्रण रखने से रोकता है।
आखिरकार फेडरेशन ने महिला एथलीटों के लिए यूनीफॉर्म्स पर नियमों में बदलाव किया, लेकिन यह अभी भी पुरुषों के लिए नियमों से अलग है। महिला एथलीट अब ‘छोटी, चुस्त शॉर्ट्स’ पहन सकती हैं, लेकिन पुरुषों को शॉर्ट्स पहनने की अधिक स्वतंत्रता है। 2021 में ही टोक्यो ओलंपिक में जर्मनी की महिला जिम्नास्ट की टीम क्वालीफाइंग राउंड के दौरान अन्य प्रतियोगियों द्वारा पहनी गई पारंपरिक बिकनी-कट लियोटार्ड्स के बजाय यूनिटार्ड पहनकर बाहर निकलीं। इस तरह खेलों में महिलाओं के सेक्सुअलाइजेशन के खिलाफ़ एक कड़ा कदम उठाया। महिला एथलीटों के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा है और उनकी यूनिफॉर्म में बदलाव एक महत्वपूर्ण कदम है जो उन्हें अपने खेल पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है। यह नियम दिखाता है कि महिला एथलीटों को अपने शरीर और पहनावे पर अधिक नियंत्रण रखने की आवश्यकता है।
खिलाड़ियों के पहनावे से जुड़े मुद्दे और उनकी पसंद का महत्व
महिला खिलाड़ियों के पहनावे का मुद्दा सिर्फ सौंदर्य या फैशन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनकी स्वतंत्रता, समानता, प्रदर्शन और भागीदारी से जुड़ा है। अगर वे अपने पहनावे में सहज महसूस नहीं करतीं, तो खेल में उनकी भागीदारी कम हो सकती है। खेल महासंघ को महिला एथलीटों को पहनावे की स्वतंत्रता देनी चाहिए ताकि उनकी भागीदारी और प्रदर्शन बेहतर हो सके। महिला एथलीटों की बढ़ती भागीदारी के बावजूद उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। खेल महासंघ को नियमों में बदलाव कर महिला खिलाड़ियों को समर्थन और प्रोत्साहन देना चाहिए, साथ ही उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और लैंगिक समानता सुनिश्चित करनी चाहिए।