मातृभाषा के प्रति मेरी गहन रुचि जन्म से बोली जाने वाली भाषा की वजह से नहीं है, बल्कि ज़ेहन में उतरने वाला सबसे पहला ख्याल मातृभाषा के प्रति रूचि के कारण रहा है। वैश्विक भाषा अंग्रेजी के प्रभुत्व के दौर में मैंने अपनी मातृभाषा हिंदी को एक गंभीर ज़िम्मेदारी की तरह लिया है। हिंदी ने न केवल मेरे विचारों और अनुभवों को आकार दिया, बल्कि दिल्ली के तथाकथित अर्बन फ़ोक् के बीच मातृभाषा से सराबोर अपने अस्तित्व के साथ संवेदनशील बने रहने में भी मदद की।
मेरे लिए तो रोज़मर्रा के अनुभवों को जीने और उन पर विचार करने के लिए फ़क़त मेरी मातृभाषा ही है, जिसे मैंने अपने अकादमिक और प्रोफ़ेशनल जीवन में गर्व से अपनाया। हिंदी साहित्य न पढ़ूँ तो दिल को चैन नहीं पड़ता और दिन अधूरा सा बीता लगता है। सचमुच, दलित होने की पहचान में जीते हुए रोज़ाना जो साहस मिलता है, उसमें इस मातृभाषा का ही योगदान है। मैं अपनी भाषा को लेकर हर रोज़ खट्टे-मीठे सफर तय करती हूं जिनमें इसे लेकर कुछ किस्से कठिनाईयों और चुनौतियों से भरे हुए होते हैं तो कुछ किस्सों में उपलब्धि के लिए यही भाषा एक प्रेरक के रूप में भी साबित होती है। इन्हीं में से कुछ किस्से मैं आपसे यहां साझा कर रही हूं।
मैंने अपनी मातृभाषा के साथ करीब से इंटरैक्ट करते हुए एक बात गहराई से अनुभव की। वह एक बात यह थी कि पाठ्यक्रम के ज़रिये जो हिंदी यहां अलग-अलग विषयों में सिखायी और पढ़ाई गई, वो हिंदी स्कूल और कॉलेज में सम्मानजनक व्यवहार से दूर रही।
जब हिंदी को नहीं बनने दिया एक कमज़ोर हिस्सा
मैंने अपनी सातवीं कक्षा तक स्कूलिंग एक प्राइवेट स्कूल में की। उसके बाद की पूरी स्कूली शिक्षा एक सरकारी स्कूल में पूरी की। एक स्कूल से दूसरे स्कूल तक का यह बदलाव एक किशोरी के लिए अनुभव करना उतना आसान नहीं था। मेरे लिए भाषा, पाठ्यक्रम और परिवेश से लेकर दोस्तों के समहू तक दुनिया बदल देने वाला बदलाव था। स्कूल के भीतर सहपाठी और शिक्षकों के बीच होने वाली आम बातचीत में भी प्राइवेट स्कूलों में अधिकतर अंग्रेजी भाषा पर ज़्यादा ध्यान देने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करता था जहां हिंदी अधिकतर विद्यार्थियों की मातृभाषा है। इसका भान स्कूली परिवेश में ज़रा भी न कराया जाता क्योंकि स्कूल में प्रवेश करते ही शिक्षा व्यवस्था द्वारा हमें किसी प्रमुख भाषा में शिक्षा देने के लिए मजबूर किया जाता है।
पर जब सातवीं क्लास में सरकारी स्कूल भेजा गया तो मुझसे स्कूल में यह तक न पूछा गया कि मैं किस भाषा में पढ़ने को इच्छुक हूं। मुझे हिंदी मीडियम की श्रेणी में डाला गया क्योंकि वहां कोई और दूसरी श्रेणी नहीं था। किताबें जैसे सोशल साइंस और साइंस जैसे विषयों को हिंदी में पढ़ने के लिए कहा गया। दो भाषाओं अंग्रेजी और हिंदी के बीच संघर्ष गहराई से अनुभव किया। शुरुआत में दोनों में सामंजस्य बैठ नहीं पाया। धीरे-धीरे भाषाओं के बीच ये संघर्ष भी कम होने लगे क्योंकि अब क्लास में सब के सामने हिंदी के लम्बे-लम्बे चैप्टर पढ़-पढ़ कर वो कॉन्फिडेंस आने लगा जो पहले आधी-अधूरी सी अंग्रेजी में कभी नहीं आया।
हिंदी में रम जाने की मेरी यह दुनिया बाहरी दुनिया से कोसों दूर थी, जहां अंग्रेजी भाषा की वैश्विक पहचान एक सच्चाई थी। पर तब मैंने एक ही सच्चाई चुनी जो थी हिंदी! फिर क्या था, स्कूल की लाइब्रेरी जाने के मौकों पर मैंने साहित्य से दोस्ती करना भी सीख लिया।
हिंदी में पढ़ना और लिखना दोनों में काफी स्पष्टता आने लगी। मैंने हिंदी को कभी कमज़ोर हिस्से के तौर पर नहीं देखा। पर हां सरकारी शिक्षकों से हमें गँवार और नालायक सुनना आम था जोकि तब कभी समझ में नहीं आया कि इसका कारण हमारा हिंदी मीडियम होना और सामाजिक-आर्थिक परिवेश से कमज़ोर होना था। हिंदी में रम जाने की मेरी यह दुनिया बाहरी दुनिया से कोसों दूर थी, जहां अंग्रेजी भाषा की वैश्विक पहचान एक सच्चाई थी। पर तब मैंने एक ही सच्चाई चुनी जो थी हिंदी! फिर क्या था, स्कूल की लाइब्रेरी जाने के मौकों पर मैंने साहित्य से दोस्ती करना भी सीख लिया।
कॉलेज में भाषा को सशक्तिकरण और समानता से जोड़ना
मैंने अपनी मातृभाषा के साथ करीब से इंटरैक्ट करते हुए एक बात गहराई से अनुभव की। वह एक बात यह थी कि पाठ्यक्रम के ज़रिये जो हिंदी यहां अलग-अलग विषयों में सिखायी और पढ़ाई गई, वो हिंदी स्कूल और कॉलेज में सम्मानजनक व्यवहार से दूर रही। कॉलेज के एक सेमेस्टर में एक विषय ऐसा होता था जिसकी क्लास हमें साइकोलॉजी के स्टूडेंट्स के साथ बैठा कर दी जाती थी। मैं दिल्ली के जिस कॉलेज में पढ़ रही थी वह महिलाओं का एक कॉलेज था। तब मैं पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट की स्टूडेंट थी। पॉलिटिकल साइंस के कोर्स में आधे से ज़्यादा संख्या हिंदी मीडियम के स्टूडेंट्स की थी। साइकोलॉजी डिपार्टमेंट के सभी स्टूडेंट्स अंग्रेजी मीडियम से नाता रखते थे।
मीडियम के इस विभाजन के बीच हायरार्की की जकड़न दोनों ही कोर्स के स्टूडेंट्स के व्यवहार में साफ़-साफ़ झलकती थी। हिंदी मीडियम की तमाम समस्याओं में एक बड़ी समस्या यह थी की शिक्षक का अंग्रेजी भाषा में लेक्चर देना। लेक्चर के दौरान वो सवाल भी पूछे जाते उनमें संख्या भी अंग्रेज़ी में सवालों की थी, जिससे हिंदी मीडियम के स्टूडेंट्स चुपचाप लेक्चर और होने वाली चर्चाओं की समाप्ति बाद क्लास के बाहर आकर एक-दूसरे से यह कहकर नाराज़गी जाहिर किया करते कि आज भी लेक्चर कुछ समझ नहीं आया।
यहां बात हार-जीत का नहीं था, बल्कि शिक्षा के इस कल्चर को ज़िम्मेदारी का एहसास करना और हमारे अवसर को हासिल करना था। मुझे याद है हम सब हिंदी मीडियम लड़कियों के एक-साथ मिलकर इस क़दम ने उस वक़्त हमें किस तरह गर्व और आत्मविश्वास से भर दिया था।
मुझे अक्सर यह बात सताती क्योंकि मैं भी इनमें से एक थी। मैंने हिंदी मीडियम के सभी स्टूडेंट्स के साथ एक ग्रुप बनाया और शिक्षक के सामने हमारी समस्याओं को रखा। क्लास में उनके भीतर आत्मविश्वास और सम्मान को जगाने के लिए किसी पहल का किया जाना ज़रूरी था। हमें इस कदम के साथ कामयाबी मिली। अब शिक्षक सचेत भाव के साथ हिंदी में भी कुछ व्याख्या प्रस्तुत कर रही थी। हिंदी मीडियम की स्टूडेंट्स अंग्रेजी मीडियम के स्टूडेंट्स की तरह प्रश्न कर चर्चाओं का भाग बनने का प्रयास करती। यहां बात हार-जीत का नहीं था, बल्कि शिक्षा के इस कल्चर को ज़िम्मेदारी का एहसास करना और हमारे अवसर को हासिल करना था। मुझे याद है हम सब हिंदी मीडियम लड़कियों के एक-साथ मिलकर इस क़दम ने उस वक़्त हमें किस तरह गर्व और आत्मविश्वास से भर दिया था।
आगे की उच्च शिक्षा में हिंदी मीडियम वाले स्टूडेंट्स के साथ समूह बनाने का यह प्रोत्साहन आगे भी जारी रहा। मैंने अपनी एम.एड. की आखिरी प्रेजेंटेशन दी थी, जिसका शीर्षक था, “Politics of Patronage and Institutionalisation of Language Hierarchy।” प्रेजेंटेशन के अंत में मैंने हिंदी की एक छोटी-सी कविता जोड़ी थी, जिसे मैंने ‘हिंदी और मेरा नाता’ के नाम से शीर्षक दिया था, जिसकी पंक्तियां थी-
जब पैदा हुई तो,
आधार बनी हिंदी,
जब भावुक हुई तो,
ह्रदय का भाव बनी हिंदी,
जब कुछ हासिल किया तो,
सफलता का कारण बनी हिंदी,
जब स्याही गढ़ी तो,
मेरा मर्म बनी हिंदी,
जब संकल्प लिया तो,
और गहरी हुई हिंदी,
जब कभी ध्यान में लीन हुई तो,
आत्मा बनी हिंदी,
जब शिक्षित हुई तो,
मेरी पहचान बनी हिंदी।
हिंदी और नारीवादी चेतना दोनों का सफर हुआ साथ तय
शहरों में मातृभाषाएं गंभीर चुनौतियों से टकराती रही हैं। मैंने इस बात का गहराई से अनुभव तब किया जब दिल्ली जैसे शहर के संभ्रांतवादी नजरिये से मेरा सामना हुआ। जहाँ हिंदी के इस्तेमाल को एहतियात से परहेज करने की मानो किसी परंपरा को बढ़ावा दिया जाता हो। खुद को अभिव्यक्त करने का साहस भाषा पर सबसे पहले निर्भर करता है। इस मामले में मेरे लिए हिंदी भाषा एक साधन बनी। दूसरी कोई भाषा सीख कर द्विभाषी या बहुभाषी होने में कोई आपत्ति नहीं है। पर समस्या तब आती है जब भाषा को सामाजिक स्टेटस और क्लास का एक प्रतीक बना दिया जाए, जिससे अन्य दूसरी भाषा भारी नुकसान उठाती है। हिंदी भाषा की ऐसी ही स्थिति ने मुझमें आलोचनात्मक रूप से सोचने का अवसर दिया। इस भाषा में निरंतर विचार-विमर्श और चिंतन ने मुझमें नारीवादी चेतना को पैदा करने का काम किया। मेरे अनुभवों की इस पृष्ठभूमि ने हिंदी में लिखने के लिए प्रेरत किया। एक दलित होते हुए मैंने केवल अपनी जाति को ही हाशिये पर जीते हुए नहीं देखा बल्कि साथ-साथ एक भाषा को भी हाशिये पर जीते हुए देखा था।