भारत न सिर्फ़ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है बल्कि भारत के संविधान को दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान होने का दर्ज़ा मिला हुआ है। लेकिन आज भी हमारा समाज संविधान के अनुसार नहीं बल्कि अपनी गहरी जड़ें जमा चुकी सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक संरचना से चलता है। देश के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संरचनाओं में इसका असर देखा जा सकता है। इसमें ब्राह्मणवादी विचारधारा की अहम भूमिका है, जिसने धर्म और परम्परा को आधार बनाकर पितृसत्ता को संस्थागत आधार दिया और मजबूत करने का काम किया। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भारतीय समाज में जाति और लिंग के बीच के संबंध को भी दिखाती है, जिसमें उच्च जाति के पुरुषों का वर्चस्व होता है और अमूमन महिलाएं अदृश्य होती हैं।
आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद आज भी इसका असर समाज में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ शब्द साल 1993 में जानी-मानी नारीवादी उमा चक्रवर्ती का गढ़ा गया था, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि कैसे प्राचीन भारत में विशेष जाति समूहों के माध्यम से संपत्ति और महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण बनाए रखा गया, जिसे राज्य यानी सरकार का समर्थन भी मिला हुआ था। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता महिलाओं और निम्न माने जाने वाले वर्गों को कमतर आँकने और उन पर नियंत्रण रखने के लिए धार्मिक ग्रंथों और सांस्कृतिक मान्यताओं का सहारा लेती है।
‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ शब्द साल 1993 में जानी-मानी नारीवादी उमा चक्रवर्ती का गढ़ा गया था, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि कैसे प्राचीन भारत में विशेष जाति समूहों के माध्यम से संपत्ति और महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण बनाए रखा गया, जिसे राज्य यानी सरकार का समर्थन भी मिला हुआ था।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की ऐतिहासिक और धार्मिक आधार
पारंपरिक धार्मिक समाज वर्ण व्यवस्था से संचालित होता आ रहा है, जिसमें जातियों को चार प्रमुख वर्गों में बांटा गया है। वर्ण व्यवस्था का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ग़ौरतलब है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद सनातन धर्म के प्रमुख आधार स्तंभ माने जाते हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुषसूक्त में वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट उल्लेख है, जिसके तहत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की उत्पत्ति के बारे में लिखा गया है। इसके अनुसार, ईश्वर के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पांव से शूद्र का जन्म हुआ है। मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। द मूकनायक में प्रकाशित डॉ. अम्बेडकर के आलेख ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ में मनुस्मृति को स्त्रियों की दुर्दशा के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार बताया है। मनुस्मृति में महिलाओं को आजीवन पुरुषों के संरक्षण में रहने और इनकी यौनिकता पर नियंत्रण को उचित बताया गया है।

मनुस्मृति समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों, परंपराओं और नियमों क़ानूनों का एक दस्तावेज है। इसे ब्राह्मणवादी पितृसत्तातमक व्यवस्था महिलाओं विशेषकर कथित निम्न जातियों पर अपना नियंत्रण और अधीन बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करती आ रही है। यह महिलाओं को घर-परिवार तक सीमित रखने, पसंदीदा विवाह, संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकारों पर रोक लगाने का काम करती है। इस व्यवस्था में ‘शुद्धता’ और ‘अशुद्धता’ पर ख़ासा बल दिया गया। यह महिलाओं को ‘जाति की शुद्धता’ बनाए रखने के नाम पर उनकी स्वतंत्रता और यौनिकता पर रोक लगाने का काम भी करती है। इस प्रकार इस तरह के धर्म ग्रंथों के माध्यम से सदियों से उच्च जाति के पुरुषों ने ख़ुद को सर्वोच्च स्थान पर रखा और दूसरी जातियों विशेषकर महिलाओं को अपने अधीन कुछ तय भूमिकाओं तक सीमित रखने का काम किया है।
मनुस्मृति समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों, परंपराओं और नियमों क़ानूनों का एक दस्तावेज है। इसे ब्राह्मणवादी पितृसत्तातमक व्यवस्था महिलाओं विशेषकर कथित निम्न जातियों पर अपना नियंत्रण और अधीन बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करती आ रही है। यह महिलाओं को घर-परिवार तक सीमित रखने, पसंदीदा विवाह, संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकारों पर रोक लगाने का काम करती है।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में जाति और जेंडर का संबंध

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भारतीय समाज का एक ऐसा ढांचा है जिसमें जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस संदर्भ में नारीवादी लेखिका और प्रोफेसर उमा चक्रवर्ती का साल 1993 में प्रकाशित शोध उल्लेखनीय है, जिसमें पितृसत्ता, जातिवादी व्यवस्था और सरकार के एक-दूसरे से संबंध के बारे में विश्लेषण किया गया है। जिस तरह से ब्राह्मणवादी व्यवस्था ब्राह्मणों को दूसरी जातियों की तुलना में ऊंचा स्थान देती है, उसी तरह पितृसत्ता महिलाओं की तुलना में पुरुषों को महत्व देती है और महिलाओं को कमतर आँका जाता है। इस प्रकार जहां जातिगत व्यवस्था के आधार पर जो पुरुष निचले पायदान पर होता है, वही पुरुष अपने घर की महिलाओं के मामले में ख़ुद को ऊपर मानता है और उनको अपने अधीन समझता है।
जाति व्यवस्था पर आधारित ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के तहत कथित निचली जातियों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से भी वंचित रखा जाता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। इसी तरह महिलाओं को शिक्षा, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों से दूर पुरुषों के अधीन रखने का प्रयास किया जाता है। इन सब के लिए धार्मिक ग्रंथों, परंपराओं, सभ्यता और संस्कृति का सहारा लिया जाता है। सामाजिक कंडीशनिंग और महिमामंडन करके ऐसी महिलाओं को प्रोत्साहित किया जाता है जो पितृसत्तात्मक संरचना को बनाए रखने मैं अपना योगदान देती हों। महिलाओं की देह, यौनिकता यहां तक कि गर्भ पर भी नियंत्रण पितृसत्ता की ही देन है। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से सभी महिलाएं प्रभावित होती हैं लेकिन कथित निम्न जाति की महिलाओं पर इसका ज़्यादा असर देखने को मिलता है। इनका शोषण जाति और लिंग के मेल से कई गुना बढ़ जाता है।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भारतीय समाज का एक ऐसा ढांचा है जिसमें जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस संदर्भ में नारीवादी लेखिका और प्रोफेसर उमा चक्रवर्ती का साल 1993 में प्रकाशित शोध उल्लेखनीय है, जिसमें पितृसत्ता, जातिवादी व्यवस्था और सरकार के एक-दूसरे से संबंध के बारे में विश्लेषण किया गया है।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का मौजूदा स्वरूप
2018 में ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ टर्म एक बार फिर से चर्चा में आया जब ट्विटर (एक्स) के तत्कालीन सीईओ जैक डोरसे के भारत दौरे के दौरान एक दलित महिला कार्यकर्ता द्वारा उन्हें एक पोस्टर दिया गया, जिसपर ‘स्मैश ब्राह्मनिकल पेट्रियार्की’ लिखा हुआ था। इसपर उस समय काफ़ी विवाद भी हुआ था। विकास के तमाम प्रयासों और दावों के बावजूद आज भी दलित और हाशिये के समुदायों के साथ अत्याचार और शोषण के मामले बढ़ रहे हैं जोकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में भी देखा जा सकता है। इसके अलावा मैन्युअल स्कैवेंजिंग जैसे पेशे आज भी दलितों और हाशिये के समुदायों के कंधों पर टिके हैं। इसकी जड़ें धर्मग्रंथों के माध्यम से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में जमी हुई हैं। द प्रिंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, लगभग सभी मंत्रालयों और विभागों के निदेशक मंडल में अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों की संख्या न के बराबर है। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि पदों के वरीयता स्तर में बढ़ने के साथ इनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जाती है।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता हमेशा से महिलाओं को दोयम दर्ज़े का नागरिक समझती आई है। बाल विवाह, सती प्रथा और विधवाओं के विवाह पर प्रतिबंध जैसे हजारों सामाजिक मानदंड इसी व्यवस्था की देन है। हालांकि कई प्रथाएं पुरजोर विरोध और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से खत्म हुए हैं लेकिन परंपरा और संस्कृति के नाम पर महिलाओं पर आज भी नियमों और दायित्व के दायरे में बांधा जाता है।
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता हमेशा से महिलाओं को दोयम दर्ज़े का नागरिक समझती आई है। बाल विवाह, सती प्रथा और विधवाओं के विवाह पर प्रतिबंध जैसे हजारों सामाजिक मानदंड इसी व्यवस्था की देन है। हालांकि कई प्रथाएं पुरजोर विरोध और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से खत्म हुए हैं लेकिन परंपरा और संस्कृति के नाम पर महिलाओं पर आज भी नियमों और दायित्व के दायरे में बांधा जाता है। इसके अलावा लड़कियों को बचपन से ही घरेलू अवैतनिक कामों में व्यस्त रखना, त्याग, सेवा और समर्पण के नाम पर शोषण करना परंपरा और संस्कृति के नाम पर ही चल रहा है। महिलाओं को एक तरफ तो घरेलू कामों तक सीमित रखने की कोशिश की गई। वहीं दूसरी तरफ उनके काम को अवैतनिक रखा गया है, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सेवाओं तक उनकी पहुंच सीमित रहे और इनके लिए वे पुरुषों पर निर्भर बनी रहें। क़ानून के बावजूद आज भी महिलाओं को संपत्ति आसानी से नहीं मिलती। न ही यह उनका अधिकार समझा जाता है। नौकरी या व्यवसाय करने के बावजूद इन्हें घरेलू कामों, बच्चों, बुजुर्गों, बीमारों और मेहमानों की ज़िम्मेदारियों से छुटकारा नहीं मिल पाता है बल्कि दोहरी ज़िम्मेदारी आ जाती है।
क्या हो सकता है आगे का रास्ता

हालांकि क़ानून बनने और मानसिकता में बदलाव आने से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की पकड़ कुछ हद तक कमज़ोर हुई है, लेकिन इसकी जड़ें समाज में अभी भी मौजूद हैं। क़ानूनी सुधार के साथ-साथ सामाजिक मानसिकता में बदलाव बेहद ज़रूरी है। इसके लिए विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को ख़ासतौर पर काम करना पड़ेगा। साथ ही सरकार और समाज के सभी वर्गों को मिलकर जाति और लिंग आधारित भेदभाव के ख़िलाफ़ एकजुट होकर काम करना होगा। जबतक पुरुष अपने विशेषाधिकार नहीं छोड़ेंगे और समानता की विचारधारा को अपने व्यवहार का मूल हिस्सा नहीं बनाएंगे तबतक कोई भी क़ानून व्यावहारिक रूप से कामयाब नहीं हो पाएगा। हमें तथाकथित ऊंची जातियों के पुरुष बचपन से सीखे गये विशेषाधिकार वाले असमानता के अधिकार को अनलर्न नहीं करेंगे तब तक जाति और लिंग आधारित भेदभाव पूरी तरह से ख़त्म नहीं होंगे।
Bahut kam mahilayen FII se judi hai, mai link share karti hun lekin kisi ke pas samay hi nahi h itna kuchh padhne k liye na hi vo samany buddhi hai nariwad lo samjhen k liye. Tathakathit uchch jati ki ladkiyan aur mahilayen toh sirf reservation ki vajah se sc st se ghrina karti hai, aisa hi purush bhi karte hai. Mahilaye unke adheen rahna hi pasand karti hai. Pahle mai link share karti thi, jisko adhikansh skip kar dete, ab mai slides ka Screen shot status lagati hu taki 50 me se 5-10 mahilayen bhi usko padhe aur samjhe toh pakhand aur adhinta se nikalne ka sochengi, par ye sambhav nahi hai yahan, shadi ke bad mahilao ki life finish ho jati h, vo charadiwari me kaid hokar rah jati hai. 32 ki umr ne bhi aise bandhno k dar se meri shadi karne ki himmat nahi hoti. (Rajasthan)
Sheena, Article padhne aur us par response karne ke liye shukriya.. Aap apne level par jo kaam kar rahi hain wo bhi badi baat hai.. Keep it up.. Take care!