हाल ही में भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) के किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 35 फीसद से अधिक डॉक्टर, खासकर महिलाएं, रात की ड्यूटी के दौरान असुरक्षित महसूस करती हैं। 45 फीसद डॉक्टरों को ड्यूटी रूम नहीं मिलता, और जो मिलता भी है, वो अक्सर असुविधाजनक होता है। ये पाया गया कि डॉक्टरों के लिए उपलब्ध ड्यूटी रूम के लगभग एक तिहाई में साथ में बाथरूम नहीं था, जिसका मतलब है कि डॉक्टरों को इन सुविधाओं का उपयोग करने के लिए देर रात के समय बाहर जाना पड़ता था। सर्वेक्षण के अनुसार कुछ डॉक्टर आत्मरक्षा के लिए हथियार तक साथ रखने की सोचते हैं। यह सर्वेक्षण 3,800 से ज्यादा डॉक्टरों पर आधारित था। हमारे देश में सार्वजनिक और प्राइवेट स्वास्थ्य व्यवस्था में आम जनता परेशान, भागदौड़ करते, डॉक्टरों के इर्द-गिर्द घूमते दिखते हैं जो किसी भी कीमत पर अपने परिजनों को स्वस्थ देखना चाहते हैं। अक्सर चिकित्सक और जनता के बीच इस तालमेल में चीजें बिखरती नज़र आती है। एक ओर जहां मेडिकल नेग्लिजन्स यानी चिकित्सकीय लापरवाही अक्सर देखने को मिलती है, वहीं ये भी सच है कि हजारों की संख्या में चिकित्सक खुदको सब कुछ भूलाकर इस पेशे में लगे हैं।
भारत में जनसंख्या के मुताबिक न सिर्फ डॉक्टर और नर्स की कमी है बल्कि पैरामेडिकल स्टाफ की भी भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, भारत का डॉक्टर-रोगी अनुपात 1991 में प्रति 1,000 रोगियों पर 1.2 डॉक्टरों के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया था। लेकिन जैसे-जैसे देश की आबादी बढ़ी, यह अनुपात 2020 में लगभग 0.7 तक गिर गया। डब्ल्यूएचओ का बताया गया स्तर 1 है और हमारे देश के बराबर आबादी वाला चीन 2.4 पर है। मार्च 2022 तक ग्रामीण भारत के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में सर्जन, फिजीशियन, स्त्री रोग विशेषज्ञों और बाल रोग विशेषज्ञों की लगभग 80 फीसद कमी थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन छोटे अस्पतालों में 21,920 की आवश्यकता के मुकाबले 4,485 विशेषज्ञ कार्यरत थे। ऐसे में जो बहुत आम दृश्य क्लिनिक और अस्पतालों में देखने को मिलता है, वो है आम जनता का डॉक्टरों के प्रति नाराज़गी और हिंसा। हालांकि हिंसा किसी भी कारण और हालात में की जाए, जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।
कामकाजी जगह पर सुरक्षा की कमी
कामकाजी जगह पर सुरक्षा एक बुनियादी जरूरत है जिसके साथ समझौता नहीं किया जा सकता। सोशल मीडिया पर आए दिन डॉक्टरों के खिलाफ़ हिंसा की घटना सामने आती है, जो तुरंत वायरल हो जाती है। डॉक्टरों के खिलाफ़ हिंसा सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया में एक बढ़ती समस्या है। हाल ही में कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक जूनियर महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद, डॉक्टरों विशेषकर महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल खड़े हुए हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अनुसार 75 फीसद तक डॉक्टरों को काम पर किसी न किसी तरह की हिंसा का सामना करना पड़ा है, जो एशिया के अन्य देशों की दरों के समान है। इस हिंसा में टेलीफोन पर धमकी, धमकी, मौखिक दुर्व्यवहार, शारीरिक लेकिन गैर-हानिकारक हमला, साधारण या गंभीर चोट पहुंचाने वाला शारीरिक हमला, हत्या, बर्बरता और आगजनी शामिल हो सकती है।
क्यों महिला चिकित्सकों के लिए है ज्यादा मुश्किल
कोलकाता के घटना में सुप्रीम कोर्ट ने सुओ मोटो संज्ञान लेते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने तर्क दिया था कि घटना ने पूरे भारत में डॉक्टरों और अन्य महिला कर्मचारियों की खराब सुरक्षा स्थितियों को उजागर किया है। उन्होंने आगे कहा था कि डॉक्टरों, खासकर महिलाओं की सुरक्षा, कार्य स्थितियों में सुधार के लिए सिफारिशें करने के लिए पीठ के अधिकार के तहत देश भर के डॉक्टरों की एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा। भारत में डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा के कई कारण हैं। आजादी के बाद से पांच गुना बढ़ी आबादी पर सरकार द्वारा जीडीपी का करीब 1 प्रतिशत खर्च करना काफी नहीं है। आधुनिक चिकित्सा तेजी से आगे बढ़ रही है, लेकिन देश के अधिकांश मेडिकल कॉलेज और अस्पताल प्रगति के साथ तालमेल नहीं रख पाए हैं। कोलकाता में हुई घटना के मद्देनज़र बात करें, तो पांच साल पहले, पश्चिम बंगाल सरकार ने डॉक्टरों के खिलाफ़ हिंसा पर लगाम लगाने का वादा किया था। रॉयटर्स के अनुसार एक आंतरिक सरकारी ज्ञापन के अनुसार, पश्चिम बंगाल ने सार्वजनिक अस्पतालों को बेहतर सुरक्षा उपकरण, महिला चिकित्सकों की सहायता के लिए महिला गार्ड और नियंत्रित प्रवेश द्वार देने का वादा किया था। लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और है।
रॉयटर्स ने पश्चिम बंगाल और भारत के अन्य स्थानों के सरकारी अस्पतालों में कार्यरत 14 महिला डॉक्टरों से उनके सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में बातचीत की। इस बातचीत के अनुसार खराब कामकाजी परिस्थिति, जिसमें मरीजों के परिवारों द्वारा आक्रामक व्यवहार और आराम की सुविधाओं की कमी के कारण कम रोशनी वाले गलियारों में बेंचों पर सोना कुछ प्रमुख समस्याएं थीं। कुछ डॉक्टरों ने लंबी शिफ्ट के दौरान बिना ताले वाले ब्रेक रूम में झपकी लेने की बात कही, जहां लोग जबरन अंदर घुस आते थे। वहीं अन्य महिलाओं ने बताया कि पुरुष मरीजों ने बिना अनुमति के उनकी तस्वीरें खींची और दावा किया कि वे उनके इलाज के सबूतों का दस्तावेजीकरण कर रहे थे। ये भी देखने वाली बात है कि क्या हिंसा की रिपोर्टिंग में बढ़ोतरी असल में इस स्थिति की व्यापकता में वास्तविक वृद्धि को बताती है, या आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बदौलत सिर्फ़ जागरूकता और रिपोर्टिंग में बढ़ोतरी को दिखाती है।
महिलाएं करती हैं यौन और अन्य हिंसा का अधिक सामना
सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता मामले पर सुनवाई करते हुए कहा था कि चिकित्सकों में महिलाओं को यौन और गैर-यौन हिंसा का विशेष खतरा होता है। पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और पूर्वाग्रहों के कारण, रोगियों के रिश्तेदारों द्वारा महिला चिकित्सा पेशेवरों को चुनौती देने की अधिक संभावना होती है। इसके अलावा, महिला चिकित्सा पेशेवरों को सहकर्मियों, वरिष्ठों और अधिकारियों के कार्यस्थल पर विभिन्न प्रकार की यौन हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। कोर्ट ने कहा कि यौन हिंसा संस्थान के भीतर भी होता है, जैसा कि अरुणा शानबाग के मामले में कई सालों पहले हुआ था। डॉक्टरों के खिलाफ़ हिंसा विशेषकर यौन हिंसा के मामलों में महिलाएं न सिर्फ मरीजों के परिजन बल्कि संस्था में मौजूद डॉक्टर और कर्मचारियों के लिए आसान टारगेट हैं।
2019 में हैदराबाद में 27 वर्षीय पशु चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के बाद भी पूरे देश में आक्रोश की भावना थी। डॉक्टरों के खिलाफ़ हिंसा से जुड़े जोखिम कारकों के एक भारतीय अध्ययन में पाया गया कि युवा डॉक्टरों को अधिक शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। अध्ययन के अनुसार महिला डॉक्टरों को हिंसा का सामना करने की अधिक संभावना है। प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग ने हिंसा की सबसे अधिक हिंसा के दर की सूचना दी। इसके बाद चिकित्सा विभाग और सर्जरी विभाग का स्थान रहा। मौखिक हिंसा हिंसा का सबसे आम रूप पाया गया। आपातकालीन विभाग में, 100 फीसद डॉक्टरों ने किसी न किसी तरह की मौखिक हिंसा की सूचना दी।
डॉक्टरों के खिलाफ़ हुई हिंसा की अलग-अलग घटनाएं
मुंबई में 17 सरकारी अस्पतालों के 2000 से ज़्यादा जूनियर डॉक्टर्स ने डॉक्टरों के खिलाफ़ हुई हिंसा के विरोध में मार्च 2017 में 4 दिनों की हड़ताल की थी। हड़ताल से पहले के हफ़्ते में महाराष्ट्र में एक सरकारी अस्पताल में जूनियर डॉक्टर पर हमले की कम से कम चार अलग-अलग घटनाएं सामने आई थी। हड़ताल कर रहे डॉक्टरों की मुख्य मांग अस्पतालों में उनकी सुरक्षा के लिए सरकार से बेहतर सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराना था। ये सच है कि चिकित्सकीय लापरवाही और खराब स्वास्थ्य व्यवस्था भारत में एक प्रमुख कमी है। लेकिन जहां डॉक्टरों का पेशा महान माना जाता है, वहीं ये समझना जरूरी है कि हर एक चीज़ इनके हाथ में नहीं होती। फरवरी, 2017 में पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुई एक घटना में जहां कथित चिकित्सा लापरवाही के कारण एक मरीज की मौत हुई थी, एक निजी अस्पताल में उग्र भीड़ ने तोड़फोड़ की। इसके बाद, राज्य सरकार ने तुरंत एक नया कानून पेश किया था।
जिन चिकित्सकों को हिंसा का सामना करना पड़ता है, उनमें अवसाद, अनिद्रा, घटना के बाद का तनाव, भय और चिंता जैसी मनोवैज्ञानिक समस्याएं होती है, जिससे काम से अनुपस्थित होने की संभावना होती है। इन घटनाओं के कारण कई चिकित्सकों को क्लिनिक बंद करने पड़ते हैं, घायल होते हैं, खुदको नुकसान पहुंचाते हैं, और एक पेशेवर के रूप में उनकी छवि खराब होती है। कार्यस्थल पर हिंसा से निपटने के लिए कई कानून हैं, लेकिन वे सही तरीके से लागू नहीं होते। देश भर के सरकारी अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में, खास तौर पर पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में, मरीजों के रिश्तेदारों, स्थानीय गुंडों, राजनीतिक नेताओं और यहां तक कि पुलिस द्वारा हिंसा की खबरें आती रही हैं।
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के मुताबिक यहां पैसे की वजह से नहीं, बल्कि चिंता की वजह से हिंसा होती है। लंबे समय तक इंतजार, महत्वपूर्ण जांचों की अनुपलब्धता, रेफरल में अत्यधिक देरी, आपातकालीन और अन्य वार्डों में अस्वच्छ और अत्यधिक भीड़भाड़ की स्थिति कुछ कारक हैं। आधुनिक चिकित्सा न तो सस्ती है और न ही सभी मामलों में बीमारी को ठीक करने में 100 प्रतिशत प्रभावी है। लेकिन ये भी जरूरी है कि चिकित्सा पाठ्यक्रम के अलावा, सभी डॉक्टरों और चिकित्सकीय कर्मचारी मरीजों के प्रति सहानुभूति की भावना रखे।