कब तक लौटेगी, अभी मत जाओ, कैसे जाओगी, पहुंच कर कॉल कर देना, मैं छोड़ देता हूं- ये बहुत सामान्य लाइनें हैं, जिन्हें लड़कियां और महिलाएं बचपन से सुनते हुए बड़ी होती हैं। भारत में ये बहुत आम है कि एक छः साल का लड़का अपनी जवान और बालिग बहन की सुरक्षा के लिए उसके साथ बाहर जाने पर भेजा जाता है। इससे सुरक्षा कितनी होती है, ये सोचने वाली बात जरूर है। लेकिन देश में महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ हिंसा का एक रूप नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्या बन चुकी है। शहर, गांव या अर्ध शहरी जगहें, जब बात महिलाओं की सुरक्षा की आती है, तो एक तरह की समस्याएं नज़र आती हैं।
बचपन में हमें जब ट्रेन से कहीं आना-जाना हो, तो स्लीपर क्लास में टिकट किया जाता था। जबतक छोटे थे, तबतक कोशिश ये रहती थी कि एक मिडल या अपर सीट मिल जाए, ताकी रात के वक्त यौन हिंसा से कुछ हदतक सुरक्षा हो। जब अकेले यात्रा करना शुरू की, तब तो टिकट काउन्टर वाले और ट्रैवल एजेंट से और ज्यादा मिन्नतें किया करती थी। आम तौर पर महिलाओं को शहरों और गांवों में रहने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है। इसमें हिंसा, गरीबी, अवैतनिक देखभाल काम में असमान भागीदारी, सीमित रोजगार के अवसर, और सार्वजनिक और निजी जीवन के निर्णय लेने में एजेंसी की कमी शामिल है।
ऐसा नहीं है कि अकेले नहीं जा सकती। पर हमारे इलाके में 8 बजे के बाद अकेले घर या कहीं बाजार भी जाना ठीक नहीं है। या तो मैं सबके साथ वापस लौटती हूं या फिर कोई पुरुष शिक्षक घर तक छोड़ देते हैं। अगर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो पाती तो मैं कार्यक्रम में नहीं जाती।
बिहार के मुंगेर जिले की रहने वाली 40 वर्षीय विनीता कुमारी (नाम बदला हुआ) अविवाहित हैं और शिक्षिका के तौर पर काम करती हैं। जब भी उनके स्कूल में किसी सहकर्मी के घर से निमंत्रण हो, या स्कूल के कार्यक्रम में देर तक रहना पड़े, तो वह अकेली घर नहीं जा पाती हैं। वह कहती हैं, “ऐसा नहीं है कि अकेले नहीं जा सकती। पर हमारे इलाके में 8 बजे के बाद अकेले घर या कहीं बाजार भी जाना ठीक नहीं है। या तो मैं सबके साथ वापस लौटती हूं या फिर कोई पुरुष शिक्षक घर तक छोड़ देते हैं। अगर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो पाती तो मैं कार्यक्रम में नहीं जाती। स्कूल के प्रोग्राम में मना नहीं कर सकती। लेकिन आम तौर पर वहीं से वापस घर पहुंचाने की व्यवस्था हो जाती है।”
बाहर किन मुश्किलों का सामना करती हैं महिलाएं
विकासशील देशों में महिलाओं के लिए पैदल चलना और सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट परिवहन के प्राथमिक साधन हैं। हालांकि, इन तक पहुंचना बाधाओं से बिना नहीं हो सकता। विशेषकर शुरू के और आखिर के यात्रा में खराब ट्रांसपोर्ट सेवा, भीड़, सार्वजनिक वाहनों के लिए प्रतीक्षा और सुरक्षित पैदल चलने के लिए बुनियादी ढाँचे की कमी महिलाओं के लिए कहीं सफर करना काफी मुश्किल बनाता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, शहरों की लगभग आधी आबादी नुकसान में है क्योंकि शहरों में महिलाओं के लिए वातावरण उचित नहीं है। संयुक्त राष्ट्र बताती है कि यह इस तथ्य के बावजूद है कि पहले से कहीं अधिक लोग, लगभग 4.4 अरब लोग या वैश्विक आबादी का 55 फीसद शहरों में रहते हैं। यह संख्या साल 2050 तक दोगुनी होने वाली है, जिसमें प्रत्येक 10 में से सात लोग शहरी वातावरण में रहेंगे। इसके बावजूद, शहर या गांव महिलाओं की सुरक्षा के अनुसार नहीं डिजाइन किया जाता। जब महिलाओं की समावेशिता की बात आती है, तो एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय शहरों को औसतन 100 में से केवल 37.75 अंक मिले।
महाराष्ट्र में बाइक चलाने पर हमेशा मुझे लड़के टोंट करते थे कि देखो लौंडी गाड़ी चला रही है। जैसलेमेर में काम करते हुए समझ आया कि वहां का माहौल महिलाओं के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं है। मेरे टीम में सिर्फ मुझे लेकर दो लड़कियां थीं और संस्थान की ओर से ही निर्देश दिया गया था कि हम कहीं भी काम से जाएंगे तो कार से ही जाएं।
कैसे महिलाएं अपनी सुरक्षा पर करती हैं ज्यादा खर्च
कोलकाता में महिलाओं के लिए सार्वजनिक परिवहन तक पहुंचने में रोजमर्रा के संघर्ष पर एक शोध किया गया। साइंसडायरेक्ट में छपे इस शोध के अनुसार पैदल चलने, ऑटो-रिक्शा और बसों तक पहुंचने में मुख्य बाधाओं में भारी यातायात, तेज़ गति से चलने वाले वाहन, लापरवाही से वाहन चलाना, अव्यवस्थित ट्रांसफर्स, बसों में भीड़भाड़, असुरक्षित तरीके से चढ़ना और उतरना, और फुटपाथों का अभाव शामिल है। ये बाधाएं महिलाओं को असुरक्षित महसूस कराती हैं, उनके सार्वजनिक वाहन के विकल्प को प्रभावित करती हैं, और यात्रा के समय को बढ़ाती हैं। सार्वजनिक परिवहन की पहुंच में चुनौतियां महिलाओं को अक्सर अप्रभावी और ज्यादा महंगे विकल्प चुनने के लिए मजबूर करती हैं, जिसका असर उनके काम और पारिवारिक जीवन पर पड़ता है। महिलाओं के लिए पुरुषों के समान गतिशीलता सुनिश्चित करने के लिए उचित योजना और डिज़ाइन रणनीतियों और हस्तक्षेपों की जरूरत है।
गतिशीलता पर महाराष्ट्र के सोलापूर की ज्योति पाटाले कहती हैं, “मैं कॉलेज के समय से बाइक चलाती थी। मैं अब हेवी वाहन भी चलाती हूं। महाराष्ट्र में बाइक चलाने पर हमेशा मुझे लड़के टोंट करते थे कि देखो लौंडी गाड़ी चला रही है।” हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा विभिन्न जगहों पर भी निर्भर करता है। इस विषय पर ज्योति कहती हैं, “जैसलेमेर में काम करते हुए समझ आया कि वहां का माहौल महिलाओं के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं है। मेरे टीम में सिर्फ मुझे लेकर दो लड़कियां थीं और संस्थान की ओर से ही निर्देश दिया गया था कि हम कहीं भी काम से जाएंगे तो कार से ही जाएं।”
जब मैं रात में घर लौटती हूं और मुझे पता है कि देर होगी, तो मैं सबसे पहले घरवालों को बताती हूं गाड़ी का नंबर, लोकैशन आदि देती हूं। फिर भी अगर असुरक्षित महसूस होता है तो मैं जिस इलाके से गुजरती हूं, वहां के किसी दोस्त या परिचित को फोन पर बताते हुए चलती हूं कि उसी इलाके से क्रॉस कर रही हूं।
सुरक्षित रहने का मानसिक खामियाजा
सार्वजनिक यात्रा महिलाओं के लिए तनाव भरा और अतिरिक्त मानसिक श्रम की मांग करता है। इसका स्तर इस बात से समझा जा सकता है कि हैदराबाद में राचकोंडा पुलिस ने 27 वर्षीय पशु चिकित्सक के साथ बलात्कार और हत्या की घटना के मद्देनजर यात्रा के दौरान महिलाओं को एहतियाती कदम उठाने के बारे में एक सलाह जारी की थी। इसमें कहा गया था कि महिला को अपने दोस्तों या परिवार के सदस्यों को यात्रा के बारे में बताना चाहिए और यदि संभव हो तो अपना स्थान साझा करना चाहिए। यदि परिवहन का साधन टैक्सी या ऑटो है, तो पुलिस आयुक्त ने सुझाव दिया था कि महिला को ड्राइवर का विवरण नंबर प्लेट के साथ साझा करना चाहिए।
देश में शायद ही कोई पुरुष हो जिसने अपने वाहन का नंबरप्लेट सुरक्षा के मद्देनजर परिजनों से साझा किया होगा या अपना लाइव लोकैशन अपने बचाव के लिए किसी को भेजा होगा। सड़क पर उत्पीड़न, या सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न, दुनिया भर में एक गंभीर समस्या है। दिल्ली में, एक शोध के मुताबिक 16 से 49 वर्ष की 95 प्रतिशत महिलाएं सार्वजनिक स्थानों पर असुरक्षित महसूस करती हैं। महिलाओं को यौन उत्पीड़न से काफी मनोवैज्ञानिक नुकसान होता है और वे इस तरह के घटनाओं से बचने के लिए सक्रिय रूप से सावधानी बरतती हैं और पुरजोर कोशिश करती हैं। एक शोध के अनुसार देश में 40 या उससे कम आयु की 84 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि वे उत्पीड़न या उसके डर के कारण अपने शहर के किसी निश्चित क्षेत्र में जाने से बचती हैं।
अकेली महिला के तौर पर मेरा फील्ड वर्क करना और विभिन्न राज्यों में घूमना मुश्किल है। कभी रात में लौटना हुआ, तो एक दिन ज्यादा रुकना पड़ता है। अगर ये संभव नहीं है, तो रात में वापस आकर किसी के यहां रुकती हूं और सुबह चली जाती हूं। मुझे होटल लेते वक्त भी ध्यान रखना होता है कि रूम बिल्कुल अंदर का न हो, स्टाफ ठीक हो। इन सबमें होटल का खर्चा ज्यादा होता है।
सुरक्षा और आम जीवन में इस चिंता के असर के विषय पर स्पीच थेरपिस्ट के तौर पर काम कर रही दिल्ली की माधवी कश्यप कहती हैं, “निश्चित रूप से खुद की सुरक्षा की चिंता एक अतिरिक्त काम है, जो हमें अपनी सुरक्षा के लिए करना पड़ता है। लेकिन ये हमारे दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। जब मैं रात में घर लौटती हूं और मुझे पता है कि देर होगी, तो मैं सबसे पहले घरवालों को बताती हूं गाड़ी का नंबर, लोकैशन आदि देती हूं। फिर भी अगर असुरक्षित महसूस होता है तो मैं जिस इलाके से गुजरती हूं, वहां के किसी दोस्त या परिचित को फोन पर बताते हुए चलती हूं कि उसी इलाके से क्रॉस कर रही हूं। एक डर तो रहता है कि कुछ भी हो सकता है। शायद इसलिए मानसिक तौर पर तैयार होते हैं कि कुछ हुआ तो उसका सामना करेंगे।”
सुरक्षा की जिम्मेदारी क्या महिलाओं की है
महिलाएं सिर्फ एक-एक सेकंड सावधानीपूर्वक योजना बनाने में ही नहीं बिताती, बल्कि किस जगह क्या पहनना है, कहां किस समय जाना है, कितनी देर तक बाहर रहना है, यह सब सिर्फ सुरक्षित रहने के लिए करती हैं। इस विषय पर ज्योति कहती हैं, “अकेली महिला के तौर पर मेरा फील्ड वर्क करना और विभिन्न राज्यों में घूमना मुश्किल है। कभी रात में लौटना हुआ, तो एक दिन ज्यादा रुकना पड़ता है। अगर ये संभव नहीं है, तो रात में वापस आकर किसी के यहां रुकती हूं और सुबह चली जाती हूं। मुझे होटल लेते वक्त भी ध्यान रखना होता है कि रूम बिल्कुल अंदर का न हो, स्टाफ ठीक हो। इन सबमें होटल का खर्चा ज्यादा होता है।”
सुरक्षा के लिए सिर्फ कानून काफी नहीं
महिलाएं घर से बाहर की गतिविधियों में अपनी इच्छा से भाग लें इसके लिए सड़कों, आस-पास और परिवहन के बुनियादी ढांचे को महिलाओं की जरूरतों के हिसाब से और संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। महिलाओं के लिए सड़कों को सुरक्षित बनाने से सार्वजनिक परिवहन को और अधिक सुलभ बनाना चाहिए। पैदल यात्रा के लिए सही तरीके का फूटपाठ, हर जगह स्ट्रीटलाइटें, बस स्टॉप और स्टेशन जैसे व्यस्त इलाकों में अतिरिक्त सुरक्षा का इंतजाम होनी चाहिए। वर्ल्ड बैंक के दिल्ली में महिलाओं पर किए गए शोध के अनुसार यात्रा लागत पद्धति के आधार पर, महिलाएं सुरक्षित रास्तों से यात्रा करने के लिए हर साल 17,500 रुपये का अतिरिक्त खर्च उठाने को तैयार रहती हैं। इस विषय पर माधवी कहती हैं, “मैं सोलो ट्रैवल करती हूं और सुरक्षा के लिहाज से मैं हमेशा लग्शरी बुकिंग करती हूं। हालांकि इसमें खर्च होता है पर सुरक्षित रहने के लिए ये जरूरी हो जाता है।”
दिल्ली सामूहिक बलात्कार और हत्या के एक साल बाद जस्टिस वर्मा समिति सिफारिश करती है कि सभी सड़कों पर स्ट्रीट लाइट, 24 घंटे सार्वजनिक परिवहन, पुलिस बूथों और कियोस्क की संख्या में वृद्धि और जेंडर के प्रति संवेदनशील पुलिसिंग का प्रस्ताव किया जाए। लेकिन असल में हालात चिंताजनक है। ये भी समझने की जरूरत है कि हमें महिलाओं के लिए नियम बनाने की नहीं बल्कि कुल मिलाकर एक सुरक्षित समाज बनाने की जरूरत है जहां इसकी जिम्मेदारी महिलाओं पर नहीं बल्कि नागरिक समाज, प्रशासन और न्यायायिक व्यवस्था को भी ठहराया जा सके। साथ ही सार्वजनिक सुरक्षा का विषय उच्च या मध्यम वर्ग, उच्च जाति, सक्षम शरीर वाली, किसी सिजेंडर, हेटरोसेक्शुअल महिला तक सीमित नहीं रहना चाहिए।