सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने एक फैसले में कहा कि एक महिला के पास उसके ‘स्त्रीधन’ का एकमात्र स्वामित्व है। अदालत ने कहा कि तलाक के बाद महिला के पिता के पास उसके पूर्व ससुराल वालों से इन उपहारों को वापस मांगने का अधिकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय ने पितृसत्तात्मक व्यवहार की उस जड़ को सिरे से नकार दिया है जिसमें पुरुष अपनेआप को स्त्रीधन के मालिक समझते हैं। मामले में दिसंबर 1999 में पी. वीरभद्र राव की बेटी की शादी हुई और उसके बाद वह पति के साथ अमेरिका चली गईं। आपसी मतभेदों के कारण, शादी के 16 साल बाद दोनों के बीच 2016 में तलाक़ हो गया। उनकी सभी भौतिक और वित्तीय संपत्ति का निपटान एक सेपरैशन समझौते के माध्यम से किया गया था। इस समझौते के दौरान बेटी ने अपने पति से स्त्रीधन की मांग नहीं की थी। मई 2018 में राव की बेटी ने दोबारा शादी कर ली।
तीन साल बाद, राव ने हैदराबाद में अपनी बेटी के पूर्व ससुराल वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, जिसमें उसके ‘स्त्रीधन’ की वापसी की मांग की गई। पूर्व ससुराल वालों ने एफआईआर को खारिज करने के लिए तेलंगाना उच्च न्यायालय में अर्ज़ी दी जोकि असफल रहा। इसके बाद, उन्होंने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ़ उच्चतम न्यायालय में अपील की। न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी और न्यायमूर्ति संजय करोल की द्विपीठ ने ससुराल वालों के खिलाफ मामला रद्द करते हुए कहा कि पिता के पास अपनी बेटी का ‘स्त्रीधन’ वापस मांगने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि वह पूरी तरह से उसका था। न्यायालय ने आगे कहा कि आम तौर पर स्वीकृत नियम, जिसे न्यायिक रूप से मान्यता दी गई है, वह यह है कि महिला संपत्ति पर पूर्ण अधिकार रखती है।
क्या कहा न्यायालय ने
कोर्ट ने आगे कहा कि जब विवाह में शामिल पक्षों (पति-पत्नी) ने विवाह के निर्वाह में या उसके बाद कभी भी ‘स्त्रीधन’ को एक मुद्दे के रूप में नहीं उठाया था, खासकर तलाक़ के समय तब कोई अन्य व्यक्ति, फिर चाहे वो पिता ही क्यों न हो, उस धन की वापसी की मांग नहीं कर सकता है। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में न्यायशास्त्र को विकसित किया कि, ‘स्त्रीधन’ की एकमात्र मालकिन होने के नाते महिला (पत्नी या पूर्व पत्नी, जैसा भी मामला हो) का ही स्त्रीधन पर एकमात्र अधिकार है। इस संबंध में यह स्पष्ट है कि जिस तरह एक पति को स्त्रीधन पर कोई अधिकार नहीं है, उसी तरह एक पिता को भी स्त्रीधन पर कोई अधिकार नहीं है। जब बेटी जीवित है और अच्छी और पूरी तरह से निर्णय लेने में सक्षम है तो वह खुद अपने ‘स्त्रीधन’ की वसूली के लिए प्रयास कर सकती है। न पिता और न पति कोई भी उस धन की वसूली करने का हक़दार नहीं है।
स्त्रीधन का मूल ही पितृसत्तात्मक है
स्त्रीधन (स्त्री, जिसका अर्थ है महिला, और धन, जिसका अर्थ संस्कृत में भाग्य या संपत्ति है) का शाब्दिक अर्थ है एक महिला की संपत्ति। मनुस्मृति ने पहली बार स्त्रीधन शब्द का प्रयोग संपत्ति के उन हिस्सों को दर्शाने के लिए किया था, जिन पर केवल महिलाओं का स्वामित्व हो सकता है। स्त्रीधन में विवाह से पहले, विवाह के समय, बच्चे के जन्म के दौरान और वैधव्य के दौरान महिलाओं द्वारा प्राप्त सभी चल, अचल संपत्ति उपहार आदि शामिल हैं। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही हिंदू महिलाओं का संपत्ति पाने का कानूनी अधिकार प्रतिबंधित रहा है। मनुस्मृति में भी महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से दूर रखा गया है। मनु महिलाओं के बारे में लिखते हैं – उसके पिता बचपन में उसकी रक्षा करते हैं, उसका पति युवावस्था में उसकी रक्षा करता है और उसके बेटे बुढ़ापे में उसकी रक्षा करते हैं। एक महिला कभी भी स्वतंत्रता के लिए उपयुक्त नहीं होती।
हालांकि महिलाओं को हमेशा पैतृक और वैवाहिक परिवारों से चल या अचल संपत्ति प्राप्त करने से बाहर नहीं रखा गया था। लेकिन संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी का अनुपात उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में बहुत कम था। पितृसत्तात्मक हिंदू समाज महिलाओं को स्त्रीधन के रूप में जानी जाने वाली संपत्ति प्रदान करता था, और यह मुख्य रूप से विवाह उपहार से आता था। हालांकि महिलाओं को पैतृक या वैवाहिक भूमि संपत्ति के संपत्ति अधिकारों से वंचित कर दिया गया था, और भूमि पारिवारिक संपत्ति के उत्तराधिकार पर उनका अधिकार सीमित था।
स्त्रीधन से संबंधित भारतीय क़ानून
एक महिला का अपने स्त्रीधन पर अधिकार कानून के तहत संरक्षित है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 महिलाओं को एक साथ स्त्रीधन प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करती है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 के अनुसार, एक महिला द्वारा निम्नलिखित स्रोतों से प्राप्त संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति है (जब तक कि उपकरण, उपहार, डिक्री, आदेश या पुरस्कार की शर्तों में अन्यथा उल्लेख न किया गया हो)-
- विवाह से पहले, उसके दौरान और बाद में प्राप्त उपहार (चल और अचल दोनों)।
- पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के दौरान उसे विशेष हिस्से के रूप में संपत्ति प्राप्त हुई।
- किसी भी समझौते के लिए प्रतिफल के रूप में प्राप्त संपत्ति।
- सेवा, पेशे, व्यवसाय आदि के माध्यम से अर्जित और संचित की गई संपत्ति।
- भरण-पोषण के बदले प्राप्त संपत्ति।
- स्त्रीधन से खरीदी गई संपत्ति।
- महिला को विरासत में मिली संपत्ति।
- किसी अन्य तरीके से अर्जित संपत्ति, जैसे किसी डिक्री या पुरस्कार के तहत या प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 27 महिलाओं को अपने स्त्रीधन पर पूर्ण स्वामित्व रखने की शक्ति देती है। भले ही स्त्रीधन को उसके पति या उसके ससुराल वालों ने क़ब्ज़ा कर रखा हो या अपनी हिरासत में ले रखी हों। ऐसे में उन्हें ट्रस्टी माना जाएगा और यदि महिला द्वारा अपने स्त्रीधन की मांग की गई तो वह इसे वापस करने के लिए बाध्य है। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 उन मामलों में महिलाओं को अपने स्त्रीधन का अधिकार प्रदान करता है, जहां वह घरेलू हिंसा की शिकार है। स्त्रीधन की वसूली के इन कानून के प्रावधानों को आसानी से लागू किया जा सकता है। मजिस्ट्रेट प्रतिवादी को निर्देश दे सकता है कि वह सर्वाइवर व्यक्ति को उसका स्त्रीधन या कोई अन्य संपत्ति या मूल्यवान वस्तु वापस लौटा दे, जिसकी वह हकदार है। घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 19(ii) कहती है कि एक महिला स्त्रीधन, आभूषण, कपड़े और अन्य आवश्यक वस्तुओं का अधिकार प्राप्त करने की हकदार है।
यदि आभूषण जैसे कुछ महंगे उपहारों का दुरुपयोग महिला के ससुराल वालों या पति द्वारा किया जाता है, तो वह महिला या उसका परिवार भारतीय दंड संहिता की धारा 405 के तहत कानूनी कार्रवाई का सहारा ले सकता है, जिसमें आपराधिक विश्वासघात के लिए सजा शामिल है।
दहेज और स्त्रीधन के बीच अंतर
समय के साथ स्त्रीधन को दहेज के रूप में गलत समझा जाने लगा है। दहेज़ ने स्त्रीधन का सार ले लिया है और स्त्रीधन की आलोचना भी की जाती है। हालांकि दहेज की तुलना में स्त्रीधन पूरी तरह से अलग है। दहेज कोई मूल्यवान वस्तु या संपत्ति या सुरक्षा है जो दुल्हन पक्ष द्वारा शादी से पहले, उसके दौरान या बाद में लड़की या परिवार का शोषण या धमकी के कारण दूल्हे पक्ष को दी जाती है या देने की सहमति व्यक्त की जाती है, जबकि स्त्रीधन किसी भी पक्ष द्वारा महिला को दिया गया स्वैच्छिक उपहार है। कई परिवारों में, आमतौर पर यह देखा गया है कि बेटी के परिवार वाले अपनी बेटी को संपत्ति का अधिकार न देने के लिए दहेज देते हैं ताकि संपत्ति दूसरे घर में न चली जाए। इसी मानसिकता और जागरूकता की कमी के कारण स्त्रीधन की व्याख्या दहेज के रूप में भी की जाती है और यह आज भी प्रचलन में है। यह इतना कठोर हो गया है कि दहेज लेने और देने के मामले में शिक्षित लोगों और गैर-शिक्षित लोगों के बीच कोई अंतर नहीं रह गया है।
स्त्रीधन ने महिलाओं को संपत्ति रखने और स्वतंत्रता हासिल करने का अधिकार दिया है। पहले, महिलाओं पर पूरी तरह से उनके पतियों का क़ब्ज़ा रहता था जो अपनी पत्नियों की संपत्ति को संभालते थे। लेकिन धीरे-धीरे स्त्रीधन से संबंधित कानून विकसित होने लगे। स्त्रीधन कानूनों के विकास का उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षा, अधिकार और संपत्ति के स्वामित्व की भावना प्रदान करना, उनकी सामाजिक स्थिति को पुरुषों के बराबर उठाना था। समय-समय पर भारतीय न्यायालय भी स्त्रीधन पर महिलाओं का पूर्ण अधिकार से सम्बंधित निर्णय देते रहे। इन निर्णयों का महिलाओं को फायदा यह हुआ कि उनका अपने स्त्रीधन पर पूर्ण स्वामित्व होने लगा। पुरुषों को महिलाओं के स्त्रीधन से दूर कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय का हालिया निर्णय महिलाओं के स्त्रीधन के स्वामित्व के मामले में पर केवल पति ही नहीं पिता को भी दूर करता है।