पाठ्यक्रम में पाठ्यपुस्तकों की एक अहम जगह होती है। पाठ्यपुस्तकें विद्यार्थी द्वारा अपने आस-पास किए जाने वाले तमाम बिखरे हुए अनुभवों को एक साथ पिरोकर आकार देती हैं। विद्याथियों की एक महत्वपूर्ण क्रिया इससे जोड़ी हुई होती है जैसे, वे न केवल अपने अनुभवों को पाठ्यपुस्तक से जोड़ पाते हैं बल्कि भीतर व्याकुल हो उठ रहे रोज़ाना के प्रश्नों के उत्तर भी कई बार इसी पाठ्यपुस्तक में खोजते हैं। ऐसी स्थिति में हमें पाठ्यपुस्तकों की अहम जिम्मेदारी और प्रासंगिकता दिखाई देती है। खासकर के ‘सामाजिक अध्ययन’ और ‘सामाजिक विज्ञान’ जैसी पाठ्यपुस्तकों में जो देश के सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पक्षों से विद्यार्थियों को जागरूक कराते हुए मानवीय जीवन और मानवीय संबंधों पर गहराई से रोशनी डालती है।
सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकें स्कूली बच्चों को सीधे तौर पर इन पहलुओं और इनसे जुड़े प्रश्नों की जांच पड़ताल करने की क्रिया से जोड़ने के लिए इन्हें तैयार करती हैं। पर क्या ही होता है तब जब हम इन पाठ्यपुस्तकों से समता का पाठ सीख रहे होते हैं और फिर यही पाठ्यपुस्तकें समता से विषमता की ओर कदम बढ़ाने लग जाएं? क्या होता है तब जब पाठ्यपुस्तकों को सरकार की तथाकथित नव-राष्ट्रवादी विचारधारा और धार्मिक मूल्यों की चेतना को विकसित करने का माध्यम बनाया जाने लगे? हाल फिलहाल में एनसीईआरटी की कक्षा 6 की सामाजिक विज्ञान की तीन अलग-अलग पाठ्यपुस्तकें जैसे इतिहास, भूगोल और नागरिक शास्त्र को एक ही पाठ्यपुस्तक में बदल दिया गया है। इस एक संयुक्त पाठ्यपुस्तक को ‘एक्सप्लोरिंग सोसाइटी – इंडिया एंड बियॉन्ड’ नाम दिया गया है।
इस नयी पाठ्यपुस्तक की पिछली पाठ्यपुस्तकों से तुलना और विश्लेषण करने पर पता चलता है की इसमें कटाई-छंटाई के बाद तमाम पढ़ने और जानने योग्य विषयवस्तुओं को बेहद छोटा कर दिया गया है या तो हटा दिया गया है। शिक्षा मंत्रालय की 21 सदस्यीय समिति ‘राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शिक्षण सामग्री समिति’ (एनएसटीसी) तीन पाठ्यपुस्तकों को एक पाठ्यपुस्तक में विलय करने पर विचार साल भर से कर रही थी। पिछले साल गठित इस समिति से जुडी सरकारी अधिसूचना के मुताबिक, एनएसटीसी देशभर में कक्षा 3 से 12 के लिए स्कूली पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकें और अध्ययन सामग्री विकसित करेगी।
पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु को कम करने के पीछे की मंशा
हालांकि ये बदलाव कई एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में साल भर से हो रहे हैं। इन संशोधित पाठ्यपुस्तक में महत्वपूर्ण संदर्भों की अनुपस्थिति के साथ कई महत्वपूर्ण सामग्रियों में बदलाव शामिल हैं। ये बदलाव तार्किक आधार पर कम, हिंदुत्व की विचारधारा से प्रभावित होते हुए अधिक दिखाई देते हैं। साल 2022 में, एनसीईआरटी द्वारा, इनमें होने वाले बदलावों के पीछे के मुख्य कारण में कोविड-19 के दौरान ख़राब स्कूली हालात को संदर्भित किया गया था, जिसे शुरू में शैक्षणिक बोझ को कम करने के लिए एक अस्थायी उपाय के रूप में बताया गया था। इसलिए, इन संशोधित पाठ्यपुस्तकों को ‘रेशनलाइज़्ड टेक्सटबुक’ कहा गया है। कोविड-19 के मद्देनजर ‘पाठ्यपुस्तकों का युक्तिकरण’ (रेशनलाइज़ेशन ऑफ़ टेक्स्टबुक) की दिशा में सामग्रियों को कम करने का कारण फिर भी कुछ-कुछ हद तक समझ आता है, पर महत्वपूर्ण सामग्रियों को पूरी तरह से हटा देना और उससे जुड़े कई तथ्यों के साथ गड़बड़ करना ‘हिडन करिकुलम’ की ओर इशारा करता है।
‘हिडन करिकुलम’ के माध्यम से ब्राह्मणवाद को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना
स्कूली सेटिंग में, ‘हिडन करिकुलम’ एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें वे सभी अनकहे मानदंड, मूल्य और विश्वास होते हैं जिन्हें विद्यार्थियों में पहुंचाया जा सके जोकि उनके स्कूल और कक्षा के रोज़ाना के जीवन और सामाजिक संबंधों को आकार देते हैं। ‘हिडन करिकुलम’ कई संरचनाओं के माध्यम से विद्यार्थियों पर नियंत्रण बनाए रखकर उन पर अधिकार जमाता है। रोमिला थापर के अनुसार, भारतीय पाठ्यपुस्तकें और स्कूल, सांप्रदायिक और औपनिवेशिक रूढ़िवादिता के साथ काम करते हैं, जिसमें राजनीतिक दल अक्सर अपनी विचारधारा जोड़ने की कोशिश करते हैं। इस बात की ओर हाल ही में हुए शोध भी इशारा करते हैं कि भारत में स्कूली व्यवस्था के भीतर ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व की विचारधारा को कायम करने के उद्देश्यों से पाठ्यपुस्तकों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
‘विविधता में एकता’ अध्याय से कई महत्वपूर्ण विषयवस्तु हटाई गई
कक्षा 6 की पिछली पाठ्यपुस्तक में भारत में विविधता से जुड़े दो अध्याय शामिल थे, जिसमें अध्याय एक में, विविधता को परिभाषा और उसे भाषा, भूभाग, आदि साथ तरह-तरह के उदाहरणों और कहानियों के द्वारा समझाने का प्रयास किया गया था। अध्याय दो में बच्चों को ‘विविधता और भेदभाव’ में अंतर और पूर्वाग्रह, तरह-तरह के स्टीरियोटाइप, असमानता और भेदभाव जैसी चुनौतियों से जागरूक करने जैसी सामग्री शामिल थी। पर वर्तमान में, कक्षा 6 की संशोधित पाठ्यपुस्तक में इनमें से किसी सामग्री की चर्चा नहीं जोड़ी गई है। पाठ्यपुस्तक कक्षाओं में नवीन चर्चाओं और विचारों के रास्ते खोलती हैं। ये चर्चाएं बच्चों को सामाजिक संवेदनशीलता से संबंधित मुद्दों पर विचार करने व समझने और अपने संगी-साथियों के साथ देश-विदेश के तमाम विषयों पर आपसी चर्चाओं का आधार तैयार करती हैं। ऐसी विषयवस्तुओं को किताबों से निकाल देने वाला कदम कक्षा के भीतर की इस लोकतांत्रिक संस्कृति को सीमित करने का प्रयास है।
बाबासाहेब आंबेडकर के ज़िक्र के बिना अधूरी पाठ्यपुस्तक
कक्षा 6 की पिछली पाठ्यपुस्तक के अध्याय दो, ‘विविधता और भेदभाव’ में डॉ. बीआर आंबेडकर के जाति-आधारित भेदभाव से संबन्धित उनका पहला अनुभव, उनका परिचय और जाति-आधारित भेदभाव के उन्मूलन में उनके ऐतिहासिक योगदान और संदर्भों का दो पन्नों में ज़िक्र मिलता था। साथ ही समाज में दलितों और जातिवाद पर भी प्रकाश डाला गया था। इस पूरे अंश को अध्याय के अंत में प्रस्तावना से भी जोड़ा गया था। पर हालिया संशोधित कक्षा 6 की पाठ्यपुस्तक में से न केवल प्रस्तावना बल्कि आंबेडकर के ज़िक्र को पूरी तरह से हटा दिया गया है। वो भी ऐसी स्थिति में जहां आज भी दलित बहुजन लोगों पर जातीय आधार पर भेदभाव और हिंसा किया जा रहा हो। समाजशास्त्र में सबसे महत्वपूर्ण खंड जातिगत भेदभाव के संदर्भ को भी हटा दिया गया है। संशोधित पाठ्यपुस्तक में विविधता से संबंधित अध्याय को ‘अनेकता में एकता, या एक में अनेक’ नाम दिया गया है। इसमें विविधता के विचार को सतही तौर से ऐसे रखा गया है जैसे विविधता के विचार की आज से पहले कभी खोज हुई ही नहीं हो। इसके अलावा, अध्याय की समाप्ति ‘रामायण और महाभारत’ को प्रमुख ऐतिहासिक साहित्य का दर्जा देते हुए उनमें दी गई कहानियों के महिमामंडन के साथ की जाती है।
सामाजिक अध्ययन नहीं बल्कि वेदों का अध्ययन
कक्षा 6 की संशोधित पाठ्यपुस्तक के अध्याय 7, ‘भारत की सांस्कृतिक जड़ें’ में ‘आध्यात्मिक और साधक’, ‘पुर्नजन्म और कर्म’, जैसी संकल्पनाओं का जिक्र किया गया है। परिभाषा में, ‘आध्यात्मिक’ को ‘आत्मा’ और ‘स्पिरिट’ से जोड़ा जाता है। हमारे आस-पास के परिवेश की समझ के दायरे से बाहर, ये अवधारणाएं कक्षा छठीं में पढ़ने वाले बच्चों के लिए उनकी समझ से कितनी परे हैं। इसमें आगे वेदों का मतलब समझते हुए, वैदिक श्लोकों,ऋषियों, देवताओं या देवी (इंद्र, अग्नि, वरुण, आदि) चेतना, ब्रह्म की प्राप्ति, को शामिल किया गया है। अंत में, ‘जनजाति’ शब्द के एक संक्षिप्त अर्थ, जनजाति और हिंदू मान्यता प्रणालियों में समानता दिखाने और उन्हें हिन्दू मान्यताओं से जोड़ने की कोशिश की गई है। ऐसा लगता है कि ‘रेशनलाइज़्ड टेक्सटबुक’ और रेशनलाइज़ेशन ऑफ़ टेक्स्टबुक के नाम पर हिंदुत्व और वैदिक विचारधारा से जुड़ी अवधारणाओं को समाविष्ट करने की पहल की गई हो। सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में अध्यायों की शुरुआत से पहले कई संस्कृत शब्दों को भी शामिल करती है जिसमें संस्कृत शब्दों और अक्षरों के उच्चारण को बढ़ावा देने के लिए एक नोट भी डाला गया है।
पिछले साल हुए पाठ्यपुस्तक में हुए गंभीर बदलाव
इससे पहले पिछले साल भी एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक में हुए गंभीर बदलाव पर गौर करें तो पता चलता है कि कक्षा 7 और 8 की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मिकी के संदर्भ को हटाया गया था। कक्षा 6 की इतिहास की पाठ्यपुस्तक ‘हमारे अतीत- I’ से वर्णों की वंशानुगत प्रकृति, दलित के रूप में वर्गीकृत करने और वर्ण व्यवस्था की अस्वीकृति जैसी विषयवस्तुओं को भी हटाया गया था। मुमकिन है कि इन विषयों को पढ़े जाने वाली सामग्रियों को तैयार करने में एनसीईआरटी को दशकों की मेहनत लगी होगी जिसे आज हटा दिया जाता है तो वहीं कुछ को छोटा कर संक्षिप्त में निपटा दिया जाता है। क्या अब विद्यार्थियों को केवल परीक्षा पास करने के उद्देश्य से तैयार आधी-अधूरी जानकारियों की बुकलेटनुमा पाठ्यपुस्तकें पढ़ने का आदी बनाया जाएगा? यह बदलाव न सिर्फ हाशिये के विद्यार्थियों के लिए अन्याय है जो सरकारी स्कूल में पढ़ रहे हैं। उनके आस-पास न तो सीखने के संसाधन है, न ही ढंग के पुस्तकालय की मौजूदगी है। साथ ही, ये सभी विद्यार्थियों को मानसिक और सामाजिक तौर पर एक ही दिशा में मानसिकता तैयार करने की कोशिश नजर आती है।