शिक्षा तक पहुंच सभी का बुनियादी अधिकार है। आदर्श शिक्षा की बात करें, तो इसे धर्मनिरपेक्षता, लोकतान्त्रिक, मानवतावादी, सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों को सिखाना चाहिए। लेकिन ध्यान दें, तो हमारी शैक्षिक व्यवस्था और शिक्षा हमेशा से देश की राजनीतिक स्थिति और सरकारों के विचारधारा से प्रभावित रही है। भारत में उच्च शिक्षा परिवर्तन के दौर में प्रवेश कर चुकी है। यह एक ऐसा युग है जिसमें रचनात्मकता, कक्षाओं का डिजिटल विस्तार, क्लासरूम शिक्षा के अलावा समग्र विकास जैसे पहलुओं पर जोर दिया जा रहा है। पिछले कुछ दशकों में भारतीय उच्च शिक्षा का तेजी से विस्तार हुआ है। कई नए प्रयोग हुए हैं। लेकिन इसकी गुणवत्ता में अंतरराष्ट्रीय स्तर के बराबर सुधार नहीं हो पाया है।
संस्थानों की संख्या के हिसाब से देश में दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है। लेकिन, नामांकन के मामले में यह तीसरे स्थान पर है। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएसएचई) की 2021-22 की रिपोर्ट के मुताबिक 4.33 करोड़ विद्यार्थी उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकित हैं जो 2020-21 में 4.14 करोड़ और 2014-15 में 3.42 करोड़ से अधिक है। पिछले पांच सालों में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है। लेकिन फिर भी 28.3 फीसद के साथ हम अभी भी विश्व औसत से पीछे हैं और यहां तक कि कुछ विकासशील देशों से भी पीछे हैं। सरकार ने 2035 तक इसे 50 फीसद तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है। सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त को मिलाकर निजी क्षेत्र में 78 प्रतिशत से अधिक कॉलेज हैं। लेकिन यह कुल नामांकन के सिर्फ 67.3 प्रतिशत को ही पूरा करता है।
शिक्षा का हिंदुत्वीकरण करने की कोशिश
हालांकि ये सच है कि शिक्षा का क्षेत्र कभी भी राजनीतिक विचारधारा और पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं रहा है। इतिहास में हर सरकार ने अपने वैचारिक लक्ष्यों और जरूरतों को पूरा करने का प्रयास किया है। लेकिन, आज जिस तरह देश में उच्च शिक्षा संस्थानों के नियमों, पाठ्यक्रमों और विश्वसनीयता के साथ खुले तौर पर समझौता किया जा रहा है, वह शायद ही कभी दर्ज हुआ है। साल 2022 में पूर्व उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने शिक्षा के ‘भगवाकरण’ का बचाव किया था। उन्होंने देशवासियों से ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ छोड़ने की बात कहते हुए, पूछा था कि ‘भगवा’ में क्या गलत है? उन्होंने कहा कि शिक्षा का भारतीयकरण एनईपी का उद्देश्य था। लेकिन, अंग्रेजी-प्रेमी लोगों ने इसे ‘पीछे जाने’ के रूप में बताया है।
भारतीय जनता पार्टी ने साल 2014 में चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय को सकल घरेलू उत्पाद के 6 फीसद तक बढ़ाया जाएगा। केंद्र सरकार ने अपने वादे के बावजूद, 2014 से 2024 के बीच शिक्षा के लिए प्रति वर्ष जीडीपी का औसतन केवल 0.44 फीसद ही आवंटित किया है। शिक्षा में बढ़ते निवेश के बावजूद, देश की 35 फीसद आबादी अभी भी निरक्षर है; सिर्फ 15 फीसद भारतीय छात्र हाई स्कूल तक पहुंच पाते हैं और केवल 7 फीसद स्नातक होते हैं। 2008 तक, देश के पोस्ट-सेकेंडरी हाई स्कूल देश की कॉलेज-आयु वर्ग की आबादी के महज 7 फीसद के लिए पर्याप्त सीटें प्रदान करते हैं। देशभर में 25 फीसद शिक्षण पद खाली हैं और 57 फीसद कॉलेज प्रोफेसरों के पास मास्टर या पीएचडी की डिग्री तक नहीं है।
ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों से दूर होती शिक्षा व्यवस्था
2019 में, शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने कहा था कि हमारे शास्त्रों में गुरुत्वाकर्षण की अवधारणा का उल्लेख न्यूटन द्वारा खोजे जाने से बहुत पहले किया गया था। 2018 में पूर्व मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि चार्ल्स डार्विन का विकास का सिद्धांत ‘वैज्ञानिक रूप से गलत’ था। अलजज़ीरा की रिपोर्ट मुताबिक 2021-2022 के शैक्षणिक वर्ष तक, डार्विन के सिद्धांत को कक्षा 9 और 10 के विद्यार्थियों के लिए परीक्षा के पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। वहीं साल 2022-2023 तक, ‘विकासवाद’ के विषय को स्कूली पाठ्यपुस्तकों से पूरी तरह से हटा दिया गया।
केंद्र सरकार ने 16वीं और 19वीं सदी के बीच देश पर शासन करने वाले मुगलों के संदर्भ भी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से हटाते जा रहे हैं। पाठ्यक्रम को तर्कसंगत बनाने के मद्देनजर एनसीईआरटी ने कक्षा 7 की इतिहास की पाठ्यपुस्तक से कुछ हिस्से हटा दिए, जिसमें दिल्ली सल्तनत के शासकों का उल्लेख था। मुगल सम्राटों की उपलब्धियों के बारे में बताने वाली हिस्सों को भी हटा दी। एनसीईआरटी ने 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ, आपातकाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन, दलित पैंथर्स और भारतीय किसान संघ के विरोध और सामाजिक आंदोलनों पर अध्यायों को भी हटाया।
क्या अंग्रेज़ी से दूरी का मतलब अच्छी शिक्षा है
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर जोर देता है और कहता है कि संस्कृत को उच्च शिक्षा सहित स्कूलों में मजबूती से बढ़ावा देकर मुख्यधारा में लाया जाएगा, जिसमें तीन भाषा फार्मूले में एक विकल्प के रूप में शामिल किया जाएगा। एनईपी ये भी कहता है कि जहां भी संभव हो, कम से कम पाँचवी कक्षा तक, शिक्षा का माध्यम सार्वजनिक और निजी स्कूलों के लिए घरेलू भाषा, मातृभाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा होगी। हालांकि ये सच है मातृभाषा में बच्चे की प्राथमिक शिक्षा; विशेषकर हाशिये के समुदायों के लिए; कारगर साबित हो सकती है। लेकिन किसी कक्षा में एक से ज्यादा मातृभाषा के विद्यार्थी हो सकते हैं। शिक्षकों की नियुक्ति उनके समझी, बोली और लिखी जाने वाली भाषाओं के आधार पर नहीं की जाती है। वहीं अक्सर बच्चे के समझी जाने वाली भाषाओं में संसाधन उपलब्ध नहीं होते हैं।
लड़कियों का नामांकन और फंड के इस्तेमाल में कमी
हालांकि समग्र नामांकन में बढ़ोतरी हुई, लेकिन 11 से 14 वर्ष की आयु के बीच स्कूल में नामांकित न होने वाली छात्राओं का प्रतिशत 2006 में 10 फीसद से घटकर 2022 में 2 फीसद दर्ज हुई। स्क्रॉल में छपी रिपोर्ट मुताबिक लगभग 75 फीसद स्कूलों में पेयजल और शौचालय की सुविधा है, लगभग 40 फीसद में लाइब्रेरी की पुस्तकें हैं और सिर्फ 7 फीसद में कंप्यूटर हैं। द हिन्दू की रिपोर्ट बताती है कि सात में से एक भारतीय प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक से संचालित होती है। बात योजनाओं की करें, तो साल 2022 तक पीएम पोषण योजना और प्रारंभिक शिक्षा कार्यक्रमों के लिए आवंटित बजट का 60 फीसद से भी कम खर्च किया गया। केंद्र सरकार ने प्रमुख योजना ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के तहत साल 2016- 2019 तक 80 फीसद धनराशि मीडिया अभियानों पर खर्च की गई।
पेपर लीक माफिया, ग्रांट्स का रद्द होना और शिक्षा व्यवस्था
पेपर लीक की बढ़ती घटनाओं ने आम जनता को प्रतियोगी और उच्च शिक्षा परीक्षाओं पर सवालिया निशान लगाने पर मजबूर कर दिया है। भारत में पेपर लीक अब आम हो चुकी है। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट के अनुसार कथित रूप से पेपर लीक माफिया के तहत पिछले 7 वर्षों में 15 राज्यों में लगभग 70 पेपर लीक हुए हैं। यूपीएससी, एसएससी जैसे भर्ती परीक्षाओं और एनईईटी, जेईई और सीयूईटी जैसे प्रवेश परीक्षाओं में पेपर लीक, भ्रष्टाचार और विसंगति के रोकथाम के लिए, नरेंद्र मोदी सरकार ने फरवरी में सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम 2024 लागू भी किया।
हालांकि यह नया कानून अपनेआप में व्यापक है, लेकिन इसमें केवल वे परीक्षाएं शामिल हैं, जो केंद्र सरकार अपनी एजेंसियों के माध्यम से आयोजित करती है। इसका मतलब है कि राज्यों में होने वाली पेपर लीक की घटनाएं, जोकि अब आम हो चुकी है, नए अधिनियम के दायरे से बाहर है। हर साल देश भर के कॉलेजों से करोड़ों विद्यार्थी स्नातक होकर कार्यबल में शामिल होते हैं। लेकिन इंडिया स्किल्स रिपोर्ट 2021 में पाया गया कि लगभग 45.9 फीसद युवा रोजगार के योग्य माने जाएंगे। 2020 में यह संख्या लगभग 46.2 फीसद और 2019 में 47.4 फीसद थी।
केंद्र सरकार ने 2022 में मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय फ़ेलोशिप को बंद करने की घोषणा की जो देश में एम.फिल या पीएचडी कर रहे अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के लिए एक फ़ेलोशिप था। केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के लिए प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति कथित ‘ठोस कारणों’ के आधार पर बंद कर दी। द हिन्दू बिजनसलाइन के मुताबिक अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने साल 2023 में, अल्पसंख्यक समुदायों (पढ़ो परदेश) से संबंधित विद्यार्थियों के लिए विदेश में पढ़ने के लिए; शिक्षा ऋण पर ब्याज सब्सिडी की योजना को बंद कर दिया। कॉलेज कैंपस में जातिगत भेदभाव आज भी जारी है। शिक्षा मंत्री के दिसंबर 2023 में लोकसभा में दिए गए जानकारी के अनुसार, पिछले पांच सालों में 2,622 अनुसूचित जनजाति, 2,424 अनुसूचित जाति और 4,596 अन्य पिछड़ा वर्ग के विद्यार्थी केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बाहर हो गए।
भाजपा सरकार अभ्यर्थियों और विद्यार्थियों और शैक्षणिक संस्थानों के प्रति कोई प्रगतिशील रवैया नहीं दिखा पाई है क्योंकि सरकार ने अमूमन संस्थानों की स्वायत्तता का सम्मान नहीं किया। अपने वैचारिक विस्तार और फायदे के लिए देश के शिक्षा व्यवस्था के साथ समझौता होती रही। पिछले कई सालों में विभिन्न राज्यों में, कैंपस में विद्यार्थियों ने विभिन्न कारणों से विरोध प्रदर्शन किए हैं। शिक्षा की राजनीतिकरण किसी भी देश के लिए बेहतर विकल्प नहीं हो सकता। सरकार का प्रयास समग्र रूप से शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता बढ़ाने पर होना चाहिए। सरकार को नई नीतियों और संशोधनों के क्रियान्वयन में भी सख्ती दिखाने की जरूरत है।