मुझे आज भी वो जुलाई 2019 की तारीख याद है, जब मुझे काशी हिंदू विश्वविद्यालय से दाखिले का मेल आया था। वह मेरी ज़िंदगी का सबसे खास पल था, क्योंकि उस दिन मैंने अपनी पहली सबसे बड़ी सफलता हासिल की थी। यह सफलता इसलिए सबसे बड़ी थी क्योंकि लड़की होने के नाते, अपने माता-पिता की तीन बेटियों में सबसे बड़ी बहन होने के नाते, और उस परिवार और परिवेश में पढ़ाई करके यहां तक पहुंचना बहुत बड़ी बात थी। मेरी दादी, चाचा, और ताऊ ने हमेशा मेरी शिक्षा से ज्यादा मेरी शादी पर ज़ोर दिया था। पढ़ाई के साथ-साथ इन रूढ़िवादी विचारों के बीच खुद को साबित करना आसान नहीं था।
मुझे आज भी वह शब्द याद हैं, जब मैंने अपने पिता के भाइयों से यह सब सुना था ठेठ बुंदेली भाषा में, “ज्यादा पढ़कर इंदिरा गांधी नहीं बन जाएगी!” उस वक्त मैं कक्षा सात की छात्रा थी और वह बात मेरे मन में बैठ गई। उस ठेठ बुंदेली ताने ने मुझे हर दिन प्रेरित किया और मैंने पढ़ाई और मेहनत पर ज़ोर दिया। यह मात्र एक साधारण ताना नहीं था, बल्कि इसके पीछे उनकी लड़कियों को लेकर एक सोच थी, जो यह दिखा रही थी कि तुम कुछ नहीं कर पाओगी क्योंकि तुम एक लड़की हो। और वह भी एक ऐसी लड़की, जो बुंदेलखंड के एक बीहड़ गांव से आती है। उनके हिसाब से बड़े शहर और शिक्षण संस्थान मेरे लिए बहुत दूर थे, और एक लड़की के लिए वहां तक पहुंचना आसान नहीं था।
मुझे आज भी वो जुलाई 2019 की तारीख याद है, जब मुझे काशी हिंदू विश्वविद्यालय से दाखिले का मेल आया था। वह मेरी ज़िंदगी का सबसे खास पल था, क्योंकि उस दिन मैंने अपनी पहली सबसे बड़ी सफलता हासिल की थी।
उनका यह सोचना बिल्कुल गलत नहीं था, क्योंकि बुंदेलखंड का इतिहास चाहे जैसा भी हो, वर्तमान में वह पिछड़ा हुआ है। जिस जिले से मैं आती हूं, वहां आज तक केंद्रीय विद्यालय नहीं है। ऐसे कई गांव हैं, जहां बस प्राथमिक स्कूल ही हैं। उनमें से एक गांव वह भी है जहां से मैं आती हूं। स्कूल बस नाम के लिए है। बुंदेलखंड में लड़कियों की शिक्षा से ज्यादा उनकी शादी पर ज़ोर दिया जाता है। मैंने यह शादी का दबाव अपनी दसवीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद ही अपनी दादी से सुनना शुरू कर दिया था।
यह दबाव और मेरे परिवार वालों की लड़कियों के प्रति सोच मुझे हर रोज प्रेरित करती थी कि मुझे इस सोच और बंधन को तोड़कर, अच्छे से शिक्षा लेकर कुछ बड़ा हासिल करना है। मेरे यहां कोई इस विश्वविद्यालय के बारे में नहीं जानता था। मेरे गांव से आज तक कोई यहां तक नहीं पहुंचा था। मैं पहली लड़की थी, जो एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिला ले पाई। मेरे गांव में सबसे बड़ी सफलता पुलिस और सेना में सिपाही बनने तक ही सीमित है, क्योंकि मेरे क्षेत्र में शिक्षा का स्तर इतना अच्छा नहीं है कि लोग उच्च शिक्षा के बारे में सोच सकें।
मेरे इस विश्वविद्यालय में दाखिला लेने में सबसे अहम भूमिका मेरे पिता की रही। उन्होंने मेरे लड़की होने को मेरी शिक्षा से कभी नहीं जोड़ा। उन्होंने उस रूढ़िवादी परिवार और समाज की सोच से हटकर मेरी अच्छी शिक्षा पर ज़ोर दिया और हमेशा मुझे जितनी सुविधाएं एक किसान पिता दे सकता है, देने की कोशिश की।
जब मैंने पहली बार अपनी एक दोस्त से इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के बारे में सुना था, तब मैं कक्षा 10 में थी। उसने बताया था कि यहां से पढ़कर लोग अफसर बनते हैं। तभी मेरे बाल मन में आया कि मुझे भी अफसर बनना है। उस समय गांवों में ‘अफसर बिटिया’ नामक टीवी सीरियल बहुत प्रचलित था। मेरे पापा भी उस टीवी वाली अफसर बिटिया में मुझे देखते थे और थोड़ी बहुत मैं भी। पापा हमेशा मम्मी से कहते थे, “मेरी बेटी अफसर बनेगी,” और इस सब ने मुझे हौंसला दिया बीहड़ से निकलकर एक बड़े शहर और संस्थान में पढ़ाई करने का।
मेरे पापा भी उस टीवी वाली अफसर बिटिया में मुझे देखते थे और थोड़ी बहुत मैं भी। पापा हमेशा मम्मी से कहते थे, “मेरी बेटी अफसर बनेगी,” और इस सब ने मुझे हौंसला दिया बीहड़ से निकलकर एक बड़े शहर और संस्थान में पढ़ाई करने का।
मेरे लिए यह मेरी सफलता का पहला अनुभव था, जो बहुत खूबसूरत था। इस सफलता ने मुझे वह सब दिया जिसकी सिर्फ मेरे जैसी गांव की लड़कियां कल्पना कर सकती थी। यह खूबसूरत इसलिए भी था क्योंकि मेरी इस सफलता के कारण मेरी मम्मी, जो हमेशा घर की रसोई और काम में व्यस्त रहती थीं, पहली बार गांव से निकलकर एक बड़े शहर और विश्वविद्यालय आईं। मेरे दीक्षांत समारोह में मैंने अपनी मम्मी को कभी इतना खुश नहीं देखा था। मेरे इस विश्वविद्यालय में दाखिला लेने में सबसे अहम भूमिका मेरे पिता की रही। उन्होंने मेरे लड़की होने को मेरी शिक्षा से कभी नहीं जोड़ा। उन्होंने उस रूढ़िवादी परिवार और समाज की सोच से हटकर मेरी अच्छी शिक्षा पर ज़ोर दिया और हमेशा मुझे जितनी सुविधाएं एक किसान पिता दे सकता है, देने की कोशिश की।