भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी में कई नायक और नायिकाएं शामिल हैं, जिन्होंने अपने बलिदान और संघर्ष से भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ाद कराने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि, जब भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है, तो आमतौर पर महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे नामों का जिक्र होता है। लेकिन इसमें महिलाओं का योगदान अक्सर अनदेखा रह जाता है। ऐसे ही अनसुने नामों में एक नाम है – मैडम भीकाजी कामा। वह एक साहसी और प्रेरणादायक महिला थीं, जिन्होंने न सिर्फ भारत में बल्कि विदेश में भी भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को मजबूती से आगे बढ़ाया। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे मैडम भीकाजी कामा ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कैसे उन्होंने विदेशी धरती पर पहली बार भारत का झंडा फहराया।
जीवन और शिक्षा
मैडम भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को मुंबई के एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल एक प्रमुख व्यापारी और पारसी समुदाय के सम्मानित सदस्य थे। भीकाजी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा एलेक्जेंड्रा गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूशन में पूरी की। बचपन से ही उनमें देश और समाज सेवा की भावना गहरी थी। उनके आस-पास का माहौल और अंग्रेज़ों के अत्याचारों ने उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़ा होने की प्रेरणा दी।
3 अगस्त 1885 को भीकाजी की शादी रुस्तम कामा से हुई, जो एक ब्रिटिश समर्थक वकील थे। रुस्तम का मानना था कि ब्रिटिश शासन के अधीन रहकर ही भारत प्रगति कर सकता है, जबकि मैडम भीकाजी इस विचार से असहमत थीं। वह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ लड़ रही थीं और भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्त देखना चाहती थीं। विचारधाराओं के इस टकराव के कारण उनका विवाह असफल हो गया और दोनों को अलग होना पड़ा।
समाज सेवा क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत
1896 में मुंबई में प्लेग महामारी फैली, जिसने शहर में हाहाकार मचा दिया। इस भयानक महामारी के समय मैडम भीकाजी कामा ने अपनी जान की परवाह किए बिना लोगों की सेवा की। उस समय न तो आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं थीं और न ही सुरक्षात्मक उपकरण, लेकिन कामा ने नर्स के रूप में प्लेग से पीड़ित लोगों की मदद की। हालांकि, बाद में वह खुद भी प्लेग से संक्रमित हो गईं। गंभीर स्थिति को देखते हुए उनके परिवार ने उन्हें 1902 में लंदन भेज दिया, ताकि वह अपना इलाज करवा सकें।
1904 में जब वह प्लेग से ठीक होकर भारत लौटने वाली थीं, तभी उनकी मुलाकात क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुई, जो अपने उग्र राष्ट्रवादी विचारों के लिए जाने जाते थे। उनके माध्यम से ही मैडम भीकाजी की मुलाकात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश समिति के तत्कालीन अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी से हुई। इसके बाद उन्होंने नौरोजी के निजी सचिव के रूप में कार्य किया और स्वतंत्रता संग्राम में और सक्रिय हो गईं।
ब्रिटिश सरकार ने मैडम भीकाजी को भारत लौटने की अनुमति एक शर्त पर दी कि वह लिखित में यह वादा करेंगी कि वह भारत लौटकर किसी भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लेंगी। लेकिन उन्होंने इस शर्त को मानने से इनकार कर दिया और लंदन छोड़कर पेरिस चली गईं। पेरिस में रहते हुए उन्होंने ‘वंदे मातरम’ और ‘तलवार’ जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन किया, जिनमें उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों को खुलकर प्रस्तुत किया।
विदेशी धरती पर तिरंगा फहराना
22 अगस्त 1907 का दिन भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन है, जब मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुए इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में भारत का पहला तिरंगा झंडा फहराया। यह पहला मौका था जब किसी भारतीय ने विदेशी धरती पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक तिरंगा झंडा लहराया। इस कॉन्फ्रेंस में दुनिया भर के 25 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। चूंकि भारत उस समय ब्रिटिश शासन के अधीन था, इसलिए वहां ब्रिटिश झंडा फहराया गया था। इसे देखकर मैडम भीकाजी कामा ने भारतीय स्वतंत्रता के झंडे को फहराया और सभी के सामने यह घोषणा की कि यह झंडा भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
इस झंडे को उन्होंने और विनायक दामोदर सावरकर ने डिज़ाइन किया था। इसमें तीन रंगों की पट्टियां थीं। सबसे ऊपर हरे रंग की पट्टी थी, जिस पर आठ कमल के फूल बने थे, जो उस समय भारत के आठ प्रमुख प्रांतों का प्रतीक थे। बीच की पीली पट्टी पर सफेद रंग से ‘वंदे मातरम’ लिखा हुआ था, और सबसे नीचे लाल पट्टी पर सूरज और चांद के प्रतीक बने थे। हालांकि यह झंडा बाद में आधिकारिक तिरंगा झंडा नहीं बना, लेकिन यह स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बना।
विचारधारा और संघर्ष
भीकाजी कामा का जीवन स्वतंत्रता संग्राम और समाज सेवा के प्रति उनकी अटूट निष्ठा का उदाहरण है। वह महिलाओं के अधिकारों के लिए भी संघर्ष करती रहीं और साम्राज्यवाद के सख्त खिलाफ थीं। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से ब्रिटिश शासन की कठोर आलोचना की और भारत को स्वतंत्र देखने की अपनी इच्छा को कभी नहीं छोड़ा। उनकी विचारधारा में महिलाओं की समानता और स्वतंत्रता के साथ-साथ भारत की आज़ादी का विशेष स्थान था। वह न केवल ब्रिटिश शासन से आज़ादी की पक्षधर थीं, बल्कि वह भारत की महिलाओं को भी उनके अधिकार दिलाने के लिए सक्रिय थीं।
मैडम भीकाजी कामा का जीवन और योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उन्होंने विदेशी धरती पर भारत का झंडा फहराकर यह साबित कर दिया कि भारत के लोग स्वतंत्रता के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनकी साहसिकता और दृढ़ निश्चय हमें यह सिखाता है कि देश की स्वतंत्रता के लिए हर संघर्ष और बलिदान महत्वपूर्ण होता है। उनके द्वारा फहराए गए झंडे ने न सिर्फ भारतीयों को प्रेरित किया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गूंज पहुंचाई। उनका नाम इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी उनके संघर्ष और योगदान को याद रख सकें। 13 अगस्त 1936 को मैडम भीकाजी कामा का निधन हुआ, लेकिन उनके बलिदान और योगदान की गाथा आज भी हमें प्रेरित करती है।