अगस्त 2019 में, सर्वोच्च न्यायालय ने फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की योजना को केंद्रीय प्रायोजित योजना के रूप में स्वीकार किया। अदालतों में लंबित मामलों की सुनवाई में हो रही देरी को देखते हुए यह आवश्यक कदम उठाया गया। इसके अंतर्गत 414 पॉस्को न्यायालयों सहित कुल 761 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए गए। हालांकि, कई बार ये विशेष न्यायालय भी नियमित न्यायालयों जैसी चुनौतियों का सामना करते हैं। इन्हें नए बुनियादी ढांचे के बजाय मौजूदा अदालतों को ही नामित किया जाता है, जिसके कारण न्यायाधीशों पर अधिक काम का दबाव पड़ता है। उनके पास सहायक स्टाफ और अन्य आवश्यक संसाधनों की भी कमी होती है, जिससे काम की गति धीमी हो जाती है।
लेकिन हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार साल 2023 में, फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने देशभर में 94 प्रतिशत यौन हिंसा के मामलों का निपटारा किया। फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना भारतीय सरकार द्वारा की गई थी ताकि देश में बढ़ रहे यौन अपराधों और लंबी अदालती प्रक्रियाओं के कारण सर्वाइवरों को जल्द से जल्द न्याय मिल सके। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का मुख्य उद्देश्य यौन अपराधों, विशेष रूप से बलात्कार और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों (POCSO अधिनियम) से संबंधित मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना है।
हाल की घटनाएं और फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थिति
हाल ही में, कोलकाता में एक जूनियर महिला डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार और फिर हत्या की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लाखों लोग इस घटना के खिलाफ़ सड़कों पर उतरे और महिलाओं की सुरक्षा और न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने की मांग की। कई जगहों से इस मामले की सुनवाई फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में कराने की मांग उठी। केंद्र सरकार का दावा है कि पश्चिम बंगाल सरकार फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट (एफटीसी) की स्थापना में उदासीन रही है। राज्य में कुल 123 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में से अधिकांश बंद हो चुके हैं, और काम कर रही अदालतों की संख्या बहुत कम है। एक रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में 80 प्रतिशत और पंजाब में 71 प्रतिशत मामलों पर काम किया गया, जबकि पश्चिम बंगाल में मात्र 2 प्रतिशत मामलों का निपटारा हो सका है।
केंद्र सरकार द्वारा एफटीसी बनाने के लिए फंड जारी करने के बाद भी, 14 से ज़्यादा राज्यों और कुछ केंद्र शासित प्रदेशों में अभी भी कोई एफटीसी नहीं है। कानून मंत्रालय का अनुमान है कि बच्चों और महिलाओं पर यौन हिंसा से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए देश भर में करीब 1,023 एफटीसी की कमी है। गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, पंजाब, मध्य प्रदेश और केरल जैसे कुछ राज्यों ने एफटीसी के विचार को खारिज कर दिया है, वहीं असम और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों में कोई विशेष अदालत नहीं है, जो महिलाओं के खिलाफ़ सबसे ज्यादा अपराध दर्ज करने वाले राज्यों की सूची में शामिल हैं। राजधानी दिल्ली में 14 एफटीसी हैं, लेकिन उसे कुल 63 अदालतों की जरूरत है। जरूरत से ज्यादा एफटीसी रखने वाला एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश है, जहां 273 एफटीसी हैं, जबकि उसे 212 की जरूरत है।
फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट पर सरकारी खर्च और यौन अपराधों के मामलों में प्रगति
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2019-2020 और 2020-2021 के बीच फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट पर कुल व्यय 767.25 करोड़ रुपए थे जिसमें से 474 करोड़ रुपये निर्भया फंड से दिए गए थे। इस योजना को मार्च 2023 तक बढ़ाने के लिए 1572.86 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया गया था। 28 नवंबर 2023 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस योजना को और तीन साल यानी 31 मार्च 2026 तक बढ़ा दिया है, जिसमें 1952.23 करोड़ रुपये का कुल वित्तीय परिव्यय शामिल है, और इसमें से 1207.24 करोड़ रुपये निर्भया कोष से प्रदान किए जाएंगे। हालांकि फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित कर दिए गए हैं, लेकिन क्या ये न्यायालय अपनी ज़िम्मेदारी निभा पा रहे हैं?
रिपोर्टों से पता चलता है कि कई राज्यों में इन अदालतों के प्रति उदासीनता बनी हुई है। 2024 तक, देश में 1023 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में से 755 ही काम कर रही हैं, जिनमें से 410 पॉस्को अदालतें हैं। 2019 से अब तक, इन अदालतों में बलात्कार और पॉस्को के तहत 4,16,638 मामले दर्ज हुए, जिनमें से केवल 52 प्रतिशत यानी 2,14,463 मामलों का निपटारा किया गया है। 2023 की इंडियन चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) की रिपोर्ट के अनुसार, POCSO के 2,43,000 मामले लंबित हैं और केवल 3 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाई है। 2023 में 2,68,038 मामलों में से मात्र 8,909 मामलों में ही सजा हो सकी। यह न्याय प्रणाली की धीमी गति और अदालतों की वर्तमान स्थिति को दर्शाता है।
महिला सुरक्षा और न्याय की चुनौतियां
भले ही 2018 में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम लागू किया गया, जो बलात्कारियों के लिए कठोर दंड, यहां तक कि मृत्युदंड का प्रावधान करता है, फिर भी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की कार्यक्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। हर दिन देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और बच्चों के साथ यौन अपराधों की खबरें आम हो गई हैं। बावजूद इसके, न्यायिक प्रक्रिया इतनी धीमी है कि सर्वाइवरों को समय पर न्याय मिल पाना कठिन हो रहा है। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि यौन अपराधों के मामलों में शीघ्र न्याय मिले। लेकिन, न्याय प्रक्रिया में देरी, अदालतों का कम संचालन और बुनियादी ढांचे की कमी से यह उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पा रहा है। हाल ही में मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि निचली और जिला अदालतों में रिक्तियों की संख्या अब तक की सबसे अधिक है। हमारे पास लगभग 6000 न्यायाधीशों की कमी है।
1 दिसंबर, 2017 तक देश भर में 22,677 स्वीकृत पदों के मुकाबले अधीनस्थ न्यायपालिका में 5,984 न्यायाधीशों के पद रिक्त थे। इसका परिणाम यह हुआ कि 2.61 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। हालांकि, अधीनस्थ न्यायालयों में रिक्तियां 26 फीसद पर अभी भी उच्च न्यायालयों से बेहतर हैं, जो 36 फीसद पर हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 19 फीसद रिक्तियां हैं, जिसमें 31 स्वीकृत पदों में से छह रिक्त हैं। जब तक बड़े पैमाने पर न्यायिक सुधार और बुनियादी ढांचे में सुधार नहीं होते, तब तक सर्वाइवरों को सही समय पर न्याय मिलने की उम्मीद बहुत कम है। महिलाओं की सुरक्षा और न्याय प्रणाली में सुधार के लिए व्यापक स्तर पर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।