चित्रा बनर्जी द्वारा लिखित “द पैलेस ऑफ इल्यूज़न” महाभारत की पुनर्कथा के रूप में न केवल एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, बल्कि इसे एक नारीवादी ढंग से भी उभारती है। यह उपन्यास महाभारत की कहानी को द्रौपदी के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है, जिससे न केवल इस महाकाव्य को समझने का एक नया नजरिया मिलता है बल्कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की स्थिति और उसके संघर्ष को भी रेखांकित किया जाता है। द्रौपदी के जीवन के माध्यम से उपन्यास हमें नारी सशक्तिकरण की एक सशक्त गाथा सुनाता है, जो आधुनिक समाज के लिए भी प्रासंगिक है।
द्रौपदी: नारीत्व की पुनः व्याख्या
चित्रा बनर्जी देवाकरुणी का यह उपन्यास द्रौपदी को एक साधारण पात्र के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और सशक्त नारी के रूप में पेश करता है। द्रौपदी सिर्फ पांडवों की पत्नी या युद्ध का कारण नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी स्त्री है जो अपनी पहचान, इच्छाओं और अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करती है। इस उपन्यास में द्रौपदी को न केवल उसकी शारीरिक सुंदरता के आधार पर देखा गया है, बल्कि उसके मानसिक और भावनात्मक संघर्षों को भी विस्तार से उजागर किया गया है। द्रौपदी का यह संघर्ष उस समय की सामाजिक संरचनाओं और परंपराओं के ख़िलाफ़ है, जहां एक महिला का अस्तित्व केवल उसके पिता, पति या पुत्र के इर्द-गिर्द ही केंद्रित माना जाता था। पांडवों के साथ विवाह के दौरान वह अपनी असहमति जताती है, यह बताते हुए कि समाज ने उसे कितनी बार पुरुषों के फैसलों का पालन करने के लिए मजबूर किया है। यह किताब स्पष्ट करती है कि द्रौपदी का संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक भी था। उसकी असहमति, विरोध और विद्रोह एक व्यापक नारीवादी आंदोलन का प्रतीक है जो पितृसत्ता के बंधनों को तोड़ने का साहस रखता है।
द्रौपदी के साथ हुए अन्याय और समाज की अनदेखी
जब द्रौपदी का स्वयंवर होता है, तो वह अर्जुन को अपना पति चुनती है, लेकिन जल्द ही उसे यह पता चलता है कि उसे एक ही नहीं, बल्कि पाँच पांडवों से विवाह करना पड़ेगा। इस निर्णय के खिलाफ द्रौपदी की असहमति उपन्यास में स्पष्ट रूप से दिखाई
गई है। जब वह कहती है, “मैंने कभी भी यह नहीं चाहा था कि मेरी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में मुझे सुना न जाए।” यह उदाहरण दिखाता है कि द्रौपदी के जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय भी पुरुषों द्वारा लिए गए, जिससे उसका व्यक्तित्व दमित हुआ। ठीक इससे आगे कुरु सभा में, जब पांडव जुए में उसे हार जाते हैं, तब द्रौपदी पूछती है, “क्या एक व्यक्ति, जिसने खुद को ही पहले हार दिया हो, किसी और को दांव पर लगा सकता है?” यह सवाल केवल एक कानूनी मुद्दा नहीं, बल्कि द्रौपदी की अस्मिता और उसकी पहचान के प्रति उठाया गया एक सवाल था। इस दृश्य के माध्यम से उपन्यास दिखाता है कि किस तरह महिलाओं को समाज में वस्तु की तरह देखा गया, जिन्हें पुरुष अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर सकते थे।
वस्त्रहरण का दृश्य महाभारत में द्रौपदी के साथ हुए सबसे बड़े अन्याय का प्रतीक है। चित्रा बनर्जी के उपन्यास में यह घटना उसके मानसिक संघर्ष का भी प्रतीक बन जाती है। जब सभा में उसके वस्त्रों को खींचा जाता है, द्रौपदी अपने सम्मान की
रक्षा के लिए अपनी आवाज़ उठाती है लेकिन सभी पुरुष उसकी मदद करने में विफल रहते हैं। इस घटना के बाद, द्रौपदी का यह संवाद, “क्या मेरी आत्मा भी इतनी नग्न है जितनी मेरी देह?” पितृसत्तात्मक समाज के दोगलेपन और महिलाओं के प्रति संवेदनहीनता को उजागर करता है।
द्रौपदी का मानसिक संघर्ष
अपने जीवन में द्रौपदी ने बार-बार इस बात का सामना किया है कि उसे अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया गया। चाहे वह पाँच पांडवों से विवाह करना हो या फिर कुरु सभा में अपमानित किया जाना। इन घटनाओं के बाद द्रौपदी का संवाद, “किसने कहा कि मैं सिर्फ युद्ध की ज्वाला भड़काने का कारण हूँ?” यह बताता है कि उसे हमेशा एक वस्तु या साधन के रूप में देखा गया, न कि एक स्वतंत्र नारी के रूप में। उपन्यास में एक और महत्वपूर्ण उदाहरण तब मिलता है, जब द्रौपदी कहती है कि मैं हमेशा महसूस करती हूँ कि हमें अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है।” यह वाक्य उस समय की महिलाओं की स्थिति को पूरी तरह से दर्शाता है, जब वे सामाजिक रूप से दबाई जाती थीं और उन्हें अपनी पहचान और अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता था।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था और द्रौपदी का संघर्ष
महाभारत का पूरा कथानक पितृसत्तात्मक समाज के आधार पर बना है, जहां पुरुषों की सत्ता और स्त्रियों की स्थिति निम्न समझी जाती है। द पैलेस ऑफ इल्यूज़न में द्रौपदी इस व्यवस्था के विरुद्ध अपने संघर्ष की कहानी सुनाती है। वस्त्रहरण की घटना, में द्रौपदी न केवल खुद को बचाने की कोशिश करती है, बल्कि सभा में बैठे सभी पुरुषों की चुप्पी पर भी सवाल उठाती है। यह घटना द्रौपदी के चरित्र को और अधिक मजबूत और विद्रोही बनाती है। द्रौपदी का यह विद्रोह न केवल उसके अपमान के खिलाफ था, बल्कि उस व्यवस्था के खिलाफ भी था जो महिलाओं को केवल वस्तु के रूप में देखती थी। द्रौपदी की जीवन यात्रा केवल एक नारीवादी संघर्ष नहीं, बल्कि यह उस समय की महिलाओं के अधिकारों और उनकी इच्छाओं की अवहेलना का प्रतीक है। लेखिका ने बताया है कि कैसे एक स्त्री, जिसे महाभारत में एक युद्ध की ज्वाला भड़काने का कारण बताया गया था, वास्तव में अपने जीवन के निर्णयों के लिए समाज से संघर्ष कर रही थी। द्रौपदी का मानसिक द्वंद्व और उसके साथ हुए अन्याय का चित्रण उपन्यास में बेहद संवेदनशीलता और सजीवता से किया गया है।
महाभारत का स्त्री दृष्टिकोण
महाभारत भारतीय पौराणिक साहित्य का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें मुख्य रूप से पुरुषों के नज़रिए से घटनाओं को देखा और समझा गया है। लेकिन इस उपन्यास में चित्रा बनर्जी ने महाभारत की कहानी को द्रौपदी के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करके इसे एक नया रूप दिया है। यह दृष्टिकोण न केवल पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती देता है, बल्कि महाभारत की अन्य स्त्रियों की कहानियों को भी प्रमुखता देता है। कुंती, गांधारी और सुभद्रा जैसे चरित्रों को भी नारीवादी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया गया है। इन स्त्रियों के संघर्ष और उनके अनुभव उस समय की सामाजिक संरचनाओं और पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देते हैं। उदाहरण के लिए, कुंती का अपने पुत्रों के लिए किए गए बलिदान, गांधारी का अपने पति धृतराष्ट्र के प्रति समर्पण और सुभद्रा का अर्जुन से प्रेम। इन सभी घटनाओं में महिलाओं की आवाज़ को दबाने और उनके निर्णयों को पुरुषों की इच्छाओं के आधार पर सीमित करने का प्रयास किया गया है। लेखिका ने इन स्त्रियों की कहानियों को नारीवाद के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है।
समकालीन नारीवाद और द पैलेस ऑफ इल्यूज़न की प्रासंगिकता द्रौपदी की यह कहानी आज के समाज में नारीवाद के दृष्टिकोण से और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। आज भी, महिलाएँ अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लड़ रही हैं, जैसे
द्रौपदी ने किया था। चाहे वह कार्यस्थल पर लैंगिक समानता की लड़ाई हो, या घरेलू हिंसा के खिलाफ उठने वाली आवाज़ें-द्रौपदी का संघर्ष उन सभी महिलाओं के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन जाता है, जो आज भी पितृसत्ता के खिलाफ खड़ी हैं। लेखिका इस पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करती हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि नारीवाद का संघर्ष कोई नई बात नहीं है।
द्रौपदी की कहानी उस नारीवाद की ओर इशारा करती है, जो सदियों से समाज में व्याप्त रहा है, और यह अब भी जारी है। द्रौपदी का संघर्ष, अन्याय और मानसिक द्वंद्व केवल महाभारत की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस समय की महिलाओं के जीवन की एक झलक है। यह उपन्यास आज के समाज में भी महिलाओं की स्थिति पर गहन प्रश्न खड़े करता है और यह साबित करता है कि द्रौपदी की कहानी सिर्फ महाभारत तक सीमित नहीं, बल्कि हर युग की महिलाओं के संघर्ष की एक अमिट कहानी है।