इंटरसेक्शनलजाति सदगतिः जातिवाद पर कठोर प्रहार करती एक बेहतरीन फिल्म 

सदगतिः जातिवाद पर कठोर प्रहार करती एक बेहतरीन फिल्म 

सत्यजीत रे ने फिल्म सदगति में जातिवादी उत्पीड़न को बेहद ही संवेदनशील तरीके से दिखाया है। फिल्म यह दर्शाती है कि कैसे एक इंसान के जान की कीमत उसकी जाति के अनुसार तौली जाती है। दुखी सिर्फ इसीलिए शोषण सह रहा था क्योंकि वह एक दलित था।

भारतीय ब्राह्मणवादी समाज में जाति व्यवस्था के तहत दलित और हाशिये के समुदाय के लोगों को उत्पीड़न, अपमान और तिस्कार का सामना करना पड़ता है। आज के वैज्ञानिक दौर में जब प्रत्येक व्यक्ति तकनीक के सहारे अपने जीवन को आसान बना रहा है, वह फ़िर भी रूढ़िवाद के चलते हाशिये की जाति के लोगों का उत्पीड़न करता है। समय-समय पर अनेक साहित्यकार और कलाकारों ने जाति के विषय पर प्रमुखता से बोलते हुए भारतीय जाति व्यवस्था की आलोचना की है। प्रसिद्ध हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘सदगति’ जातिवाद पर कठोर प्रहार करती है। यही कहानी फिल्म निर्माता-निर्देशक सत्यजीत रे के द्वारा 1981 में एक फिल्म के रूप में लोगों के बीच पहुंचती है। इस फिल्म में जातिवादी व्यवस्था के तहत हाशिये की जातियों के लोगों को अपने रोजमर्रा के जीवन में किस तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाओं का सामना करना पड़ता है उसे पर्दे पर दर्शाया गया है। फिल्म में जाति के मुद्दे के साथ हिंदू धर्म की अंधविश्वासी प्रथाओं पर भी सवाल उठाए गये हैं।  

फिल्म की कहानी दुखी (ओम पुरी) नामक एक दलित व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है, जो हिन्दू रीति रिवाजों के अनुसार अपनी बेटी की सगाई के लिए पंडित से एक शुभ तिथि तय कराना चाहता है। बीमार होने के बावजूद भी वह बिना खाए-पिए गाँव के पंडित के लिए उपहार स्वरूप चारा लेकर उनके घर जाता है। वहां वह उनसे तिथि तय करने का अनुरोध करता है। लेकिन पंडित उसे मुफ़्त में सेवा करने के लिए मजबूर कर देता है। अपने घर के आंगन की सफाई करवाने से लेकर गोदाम में अनाज को भरवाने तक सारे काम करवाता है।

फिल्म में दलित समुदाय के लोगों के साथ हो रहे शोषण को दिखाया गया है। दुखी कुछ नहीं मांग रहा था बस उसका यह निवेदन था कि पंडित उसके घर चलकर उसकी बेटी की सगाई तय कर दे।

दुखी के द्वारा काम करने के बावजूद भी पंडित उसके घर चलने को तैयार नहीं होता है। कमज़ोर और काँपते हुए, खाली पेट और सिर पर दोपहर की धूप के साथ, दुखी को फिर लकड़ी के एक बड़े टुकड़े को बारीक टुकड़ों में काटने के लिए कहता है। थका हुआ दुखी के शरीर में बची ताकत के साथ उस विशाल लड़की पर प्रहार करता है, लेकिन मुश्किल से कोई निशान बना पाता है। जब पंडित यह देखता है तो वह दुखी को उसकी बेटी की सगाई की तारीख ना तय करने की धमकी देता है। वह डर जाता है और लकड़ी को लगातार काटता रहता है। लगातार वार करता रहता है जब तक वह आखिर में गिरकर वहीं मर नहीं जाता।

दुखी की मौत गाँव के पंडित को मुश्किल में डाल देती है। वह एक दलित था इसीलिए पंडित उसकी लाश को नहीं छू सकता। गाँव का दलित समुदाय पंडित को दुखी की मौत का जिम्मेदार मानते है और उसकी लाश को पंडित के घर के सामने से उठाने के लिए मना कर देते हैं। गाँव के अन्य ब्राह्मण, पंडित पर दबाव डालते हैं कि दुखी की लाश को जल्दी से हटवाया जाए क्योंकि उनमे से कोई भी अपने पीने के पानी के स्रोत के रास्ते में एक मृत दलित को नहीं देखना चाहता। अंत में पंडित के पास कोई विकल्प ना होने के कारण, वह लाश को सुबह-सुबह रस्सी की मदद से गाँव की सड़कों पर घसीटता हुआ ले जाता है और गाँव के बाहरी इलाके में मवेशियों की सड़ती हुई लाशों के बीच बेरहमी से उसे फेंक देता है। 

जातिवाद की कठोर सच्चाई 

तस्वीर साभारः IMDb

सत्यजीत रे ने फिल्म में जातिवादी उत्पीड़न को बेहद ही संवेदनशील तरीके से दिखाया है। फिल्म यह दर्शाती है कि कैसे एक इंसान के जान की कीमत उसकी जाति के अनुसार तौली जाती है। दुखी सिर्फ इसीलिए शोषण सह रहा था क्योंकि वह एक दलित था। उसे पंडित के घर पर जूते उतारकर जाना होता है और उसे हमेशा सर झुककर बात करनी पड़ती है। फिल्म में एक दृश्य है जहां पर पंडित की पत्नी दुखी के घर में घुसने पर गुस्सा करती हैं। वह उसको सुनाते हुए अपने पति से कहती हैं, “तुम्हें धर्म-कर्म में किसी बात की सुध-बुध ही नहीं रही। धोबी हो, पासी हो मुंह उठाए घर में चला आए, हिन्दू का घर ना हुआ कोई सराय हुआ।” यह दृश्य इस बात का प्रतीक है कि समाज में दलितों और हाशिये की जाति के लोगों को कितनी हीन दृष्टि से देखा जाता था और महज दलित होने की वजह से उनका शोषण किया जाता है।  

फिल्म में दलित समुदाय के लोगों के साथ हो रहे शोषण को दिखाया गया है। दुखी कुछ नहीं मांग रहा था बस उसका यह निवेदन था कि पंडित उसके घर चलकर उसकी बेटी की सगाई तय कर दे। लेकिन इसके बदले दुखी को कठिन कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के चलते पंडित दलित व्यक्ति पर रौब जमाता है। उसे सिर्फ मुफ़्त में काम करने के साधन के रूप में देखता है। फिल्म में न्याय के नाम पर तथाकथित सवर्णों के अन्याय को सच्चाई से दिखाया गया है। जहां दुखी की मौत के बाद पंडित को सजा होने के बजाय उसकी लाश को एक बोज समझकर, गाँव के बाहरी इलाके में मवेशियों की सड़ती हुई लाशों के बीच बेरहमी से फेंक दिया जाता है। 

जातिवाद और वर्तमान समय 

तस्वीर साभारः India TV News

फ़िल्म सदगति की कहानी 93 साल पहले लिखी गई थी। फ़िल्म आज से 43 साल पहले बनी थी। लेकिन आज भी जाति के आधार पर उत्पीड़न, शोषण हमारे समाज में मौजूद है। छुआछूत और जातिगत अपराधों की संख्या लगातार हमारे समाज में बढ़ रही है। दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामलें लगातार बढ़ रहे हैं। स्कॉल.इन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 से 2021 में इस तरह के 1.8 लाख मामले दर्ज किए गए थे। जाति की पहचान के वजह से दलित समुदाय के लोगों को समान अवसरों से दूर रखा जाता है। उनके मौलिक अधिकारों का हनन किया जाता है। द टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय प्रबंधन संस्थान-बेंगलुरु (आईआईएम-बी) के प्रोफेसर दास ने अपने आठ सहकर्मियों पर जाति-आधारित भेदभाव का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्हें संस्थागत गतिविधियों में अवसर नहीं दिए गए। वैकल्पिक पाठ्यक्रम और पीएचडी कार्यक्रम वापस लेने के लिए मजबूर किया गया। संस्थान के संसाधनों तक उनकी पहुँच नहीं होने दी गई और उन्हें ” तथाकथित निचली जाति” का सदस्य बताकर अपमानित किया गया।

ब्राह्मणवादी व्यवस्था के चलते पंडित दलित व्यक्ति पर रौब जमाता है। उसे सिर्फ मुफ़्त में काम करने के साधन के रूप में देखता है। फिल्म में न्याय के नाम पर तथाकथित सवर्णों के अन्याय को सच्चाई से दिखाया गया है।

भले ही भारत में जातिवाद को खत्म करने के लिए तमाम कानून और कठोर सजा का प्रावधना हो लेकिन आज भी तथाकथित सवर्ण का जातीय अहम बरकरा है। जाति के आधार पर काम बांटकर लोगों को अपमानित किया जाता है। स्कूल में दलित बच्चे के मटके को छूने भर से उसे पीटा जाता है। स्कूलों में दलित भोजन माता के हाथ से खाना खाने से इनकार कर दिया जाता है। ब्राह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था के तहत हर जगह तथाकथित ऊंजी जातियों के लोगों के द्वारा दलित लोगों का शोषण आज भी जारी है।

दलित लोगों के श्रम को इस्तेमाल करने का अपना तथाकथित स्वर्ण अपना अधिकार मानते है। साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में मिले उनके अधिकारों का शोषण करते हैं। बरसों पहले बनी फ़िल्म सदगति आज भी समाज में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा की वजह से प्रासंगिक है। यह फ़िल्म हमे यह सोचने में मजबूर करती है कि आजादी के इतने दिनों बाद भी आखिर कब हम जाति व्यवस्था की कुप्रथा को खत्म कर पाएंगे। जातिवादी मानसिकता को हम कब खत्म कर पाएंगे। एक इंसान की पहचान को उसकी जाति और धर्म से जोड़कर उसे नफ़रत और शोषण वाली सोच को खत्म करके ही हम आगे बढ़ पाएंगे।


 

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