हमारा समाज महिलाओं को लेकर आज भी पुरानी रूढ़िवादी मान्यताओं और परंपराओं से ग्रसित है। ख़ास तौर पर जब अकेले रहने वाली महिलाओं की बात हो तो ये मान्यताएं और पूर्वाग्रह और अधिक हावी हो जाते हैं। इसमें भी जाति, धर्म, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर महिलाओं को अलग-अलग प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हमारा समाज आज भी अकेले रहने वाली महिलाओं को स्वीकार नहीं कर पाता है। इसके पीछे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचा और धार्मिक और सांस्कृतिक कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
एकल महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण
भारत जैसे देश में शादी और परिवार नामक संस्था को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। एक लड़की के जन्म के साथ ही परिवार उसकी शादी के बारे में सोचने लगता है। बचपन से परवरिश भी इसी तरह की जाती है कि एक दिन शादी करके दूसरे घर जाना है। उनके दिमाग में यह बात बिठा दी जाती है कि जीवन का मुख्य उद्देश्य शादी करके घर बसाना और परिवार की ज़िम्मेदारियां उठाना है। महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व के बजाय एक अच्छी बेटी, बहन, पत्नी और मां बनने का आदर्श स्थापित किया जाता है। इसके उलट, अगर कोई महिला अकेली रहना चाहती है तो उसे संदिग्ध या समस्याजनक समझा जाता है। उस पर तमाम पारिवारिक और सामाजिक दबाव डाले जाते हैं। इस वजह से अक्सर बुरी शादी या तमाम शारीरिक मानसिक उत्पीड़नों के बावजूद कोई महिला अलग होने या अकेले रहने का निर्णय नहीं ले पाती।
अकेले रहने की बात जानकर ऑफिस में पुरुष सहकर्मी अक्सर फ्लर्ट करते हैं। मना करने के बावजूद कभी कॉफी तो कभी पार्टी के लिए पूछते रहते हैं। इसके साथ ही फ्लैट के मकान मालिक भी 24 घंटे निगरानी रखते हैं। ऐसा लगता है इस उम्र में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद मुझे अपने लिए फ़ैसले लेने की आज़ादी नहीं है।
जातिगत भेदभाव के बीच एकल महिलाओं का जीवन
जाति व्यवस्था भारतीय समाज की जड़ों में बसी हुई है और कितने भी दावे किए जाएं, आज भी देश में किसी न किसी रूप में जातिगत भेदभाव लगातार चलता आ रहा है। देश में महिलाएं वैसे ही वंचित और हाशिए पर हैं उसमें भी अगर दलित महिलाओं की बात की जाए तो वह सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर सबसे निचले पायदान पर मानी जाती हैं। निम्न मानी जाने वाली जातियों की महिलाओं को और अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह महिलाएं जातिगत, लिंगगत और कमजोर सामाजिक-आर्थिक स्तर के तिहरे बोझ से दबी हुई होती हैं। अगर किसी वजह से ये अकेले रह रही हैं, तब इन्हें आसानी से उपलब्ध मान लिया जाता है।
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव प्रतापगढ़ से ताल्लुक रखने वाली 45 वर्षीय इमरती देवी (बदला हुआ नाम) पति से तलाक के बाद पिछले एक दशक से गांव में अकेले रहकर मजदूरी कर अपनी जीविका चला रही हैं। वह कहती हैं, “हमें मेहनत मजदूरी करके अपना गुज़ारा करने में कोई ज़्यादा परेशानी नहीं होती लेकिन कुछ मर्दों द्वारा हमें आसानी से उपलब्ध समझ लिया जाता है। लोग झूठी हमदर्दी दिखा कर क़रीब आने का बहाना खोजते हैं। तब लगता है कि इससे तो अच्छा था पति के घर में डांट-मार सह कर पड़े रहते। कम से कम समाज में इज़्ज़त तो बनी रहती।”
पिछले एक दशक से अधिक समय से उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों जैसे प्रयागराज, वाराणसी, गाजियाबाद और दिल्ली और जयपुर में रहने के दौरान मेरा अनुभव काफ़ी मिला-जुला रहा है। बहुत सारे लोगों ने अकेले रहने की वजह (उनके हिसाब से मजबूरियां) जानने में रुचि दिखाई।
सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उसकी भूमिका
सामाजिक आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव की वजह से महिलाओं को अलग-अलग तरीके से समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से उच्च वर्ग की महिलाओं को बेहतर शिक्षा, स्वतंत्रता और संसाधन मिलते हैं जिससे अकेले जीवन जीने के लिए भी इनकी स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर होती है। हालांकि इसके बावजूद पितृसत्तात्मक सोच का असर आसानी से देखा जा सकता है। पिछले एक दशक से अधिक समय से उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों जैसे प्रयागराज, वाराणसी, गाजियाबाद और दिल्ली और जयपुर में रहने के दौरान मेरा अनुभव काफ़ी मिला-जुला रहा है। बहुत सारे लोगों ने अकेले रहने की वजह (उनके हिसाब से मजबूरियां) जानने में रुचि दिखाई। कुछ लोगों ने सीधे तौर पर शादी और इससे जुड़े सवाल भी पूछे। लेकिन दुख की बात यह है कि अभी तक एक भी शख़्स ऐसा नहीं मिला जिसने अकेले रहने को मजबूरी न समझ के ‘चुनाव’ समझा हो।
शहरों में रहने की वजह से विभिन्न फूड और ग्रॉसरी डिलीवरी ऐप्स, कैब सर्विसेज ऐप्स ने मेरे जैसी सिंगल रहने वाली महिलाओं की जीवन को सुविधाजनक बनाया है। लेकिन, इसके साथ ही इन ऐप्स से जुड़े पुरुषों की पितृसत्तात्मक मानसिकता कहीं न कहीं दिख ही जाती है। हाल ही में गैस सिलेंडर की डिलीवरी करने आए युवक ने अकेले जानकर ‘किसी भी तरह की ज़रूरत’ होने पर कॉल करने की बात मुझसे कह दी। अकेले रहने वाली महिलाओं के साथ इस तरह की घटनाएं बहुत आम हैं। हमें ‘ज़रूरतमंद’ और ‘आसानी से उपलब्ध’ मान लिया जाता है। इन वजह से हमें अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सावधानी और सतर्कता बरतनी पड़ती है। यह मानसिक तौर पर बेहद थकाऊ और परेशान करने वाला होता है।
हमें मेहनत मजदूरी करके अपना गुज़ारा करने में कोई ज़्यादा परेशानी नहीं होती लेकिन कुछ मर्दों द्वारा हमें आसानी से उपलब्ध समझ लिया जाता है। लोग झूठी हमदर्दी दिखा कर क़रीब आने का बहाना खोजते हैं। तब लगता है कि इससे तो अच्छा था पति के घर में डांट-मार सह कर पड़े रहते। कम से कम समाज में इज़्ज़त तो बनी रहती।
धर्म और समुदाय का दबाव
धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएं एकल महिलाओं के जीवन पर नकारात्मक रूप से असर डालती है। शादी अधिकतर धर्मों का अनिवार्य हिस्सा माना जाता है। ऐसे में अगर कोई महिला शादी न करके अकेले रहना चाहती है तो उसे धर्म विरोधी, अनैतिक और असामाजिक की श्रेणी में रखा जाता है। समाज की ये अवधारणा एकल महिलाओं के जीवन पर एक अनावश्यक दबाव डालती है, जिससे इन्हें हर क़दम पर अपना बचाव करने और सफाई देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ज़्यादातर धार्मिक क्रियाकलापों में शादीशुदा महिला को ही शामिल किया जाता है। कहीं-कहीं पर तो अकेली महिला को अपशकुन समझा जाता है और उन्हें धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल करने से बचा जाता है। एक तरह से समाज द्वारा इन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है। ऐसे में सामाजिक अनुरूपता और स्वीकार्यता के लिए बहुत बार न चाहते हुए भी महिलाएं दबाव में आ जाती हैं और अपनी इच्छा के विपरीत शादी करती हैं या फिर बुरी शादी में बनी रहती हैं।
पितृसत्ता और पूर्वाग्रह
पितृसत्तात्मक संरचना में महिलाओं के जीवन की स्वतंत्रता और फ़ैसले लेने का अधिकार उनके पास न होकर परिवार के मुखिया (जोकि अधिकतर पुरुष होता है) के पास होता है। समाज यह मानता है कि महिलाओं को पुरुषों के संरक्षण और नियंत्रण में रखना चाहिए। ऐसे में जब कोई महिला अकेले रहती है तो यह सामाजिक विद्रोह और ख़तरे के रूप में देखा जाता है। इसे रोकने के लिए कदम-कदम पर परिवार और समाज द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबाव डाले जाते हैं। इसके अलावा जब महिलाओं से शादी के बारे में पूछा जाता है तो अक्सर सवाल कुछ ऐसा होता है कि ‘तुम्हारी अब तक शादी नहीं हुई’ या फिर, ‘शादी कब होगी’। बहुत बार अकेली महिला के परिवार पर भी इसके लिए दबाव डाला जाता है।
बहुत से लोग यह सोच भी नहीं पाते कि कोई महिला शादी न करने का ख़ुद से फ़ैसला भी ले सकती है। साथ ही अगर कोई शादीशुदा महिला किसी भी वजह से अलग शहर में अकेले रह रही है तो उसे संदिग्ध माना जाता है। प्रयागराज के एक सरकारी विभाग में अधिकारी के पद पर काम कर रही 39 वर्षीय कृतिका (बदला हुआ नाम) शादीशुदा हैं और नौकरी की वजह से अलग शहर में अकेली रह रही हैं। वह इस विषय पर कहती हैं, “अकेले रहने की बात जानकर ऑफिस में पुरुष सहकर्मी अक्सर फ्लर्ट करते हैं। मना करने के बावजूद कभी कॉफी तो कभी पार्टी के लिए पूछते रहते हैं। इसके साथ ही फ्लैट के मकान मालिक भी 24 घंटे निगरानी रखते हैं। ऐसा लगता है इस उम्र में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद मुझे अपने लिए फ़ैसले लेने की आज़ादी नहीं है।”
अकेले रहने पर आज़ादी तो मिलती है पर हमें इसकी काफ़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है। मुझे सबसे ज़्यादा पितृसत्तात्मक सोच वाले पुरुषों के रवैए से समस्या होती है। इन्हें जब पता चलता है कि मैं अकेले रहती हूं तो मदद करने के बहाने अनुचित मांग और अपेक्षाएं करते हैं।
सामाजिक मान्यताएं और चुनौतियां
बहुत बार पढ़ाई, नौकरी या दूसरी वजहों से अगर कोई शादीशुदा महिला परिवार से अलग किसी शहर में अकेले रहती है तो उसे संदिग्ध समझा जाता है। उत्तर प्रदेश के हमीरपुर की आरती राजपूत कुछ सालों से दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही हैं। वह कहती हैं, “अकेले रहने पर आज़ादी तो मिलती है पर हमें इसकी काफ़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है। मुझे सबसे ज़्यादा पितृसत्तात्मक सोच वाले पुरुषों के रवैए से समस्या होती है। इन्हें जब पता चलता है कि मैं अकेले रहती हूं तो मदद करने के बहाने अनुचित मांग और अपेक्षाएं करते हैं। यही नहीं, अकेली लड़की को मकान मालिक किराए पर कमरा देने में भी हिचकते हैं। अगर कमरा देते भी हैं तो तमाम नियमों और शर्तों के साथ, जिसमें यह ज़रूर रहता है कि कोई भी पुरुष दोस्त नहीं आ सकता। इसके साथ ही मॉरल पुलिसिंग करने का एक भी मौका नहीं चूकते और 24 घंटे निगरानी बनाए रखते हैं।”
समाधान और सामाजिक सुधार की संभावनाएं
सबसे पहले समाज में जागरुकता लाने की जरूरत है, जिससे अकेले रहने वाली महिलाओं को अलग दृष्टि से न देखा जाए। स्कूल के पाठ्यक्रमों में जेंडर सेंसटाइजेशन को अनिवार्य रूप से जोड़ा जाना चाहिए। धर्म, जाति, लिंग, समुदाय आदि के आधार पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ ठोस कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। लैंगिक भेद को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं, मान्यताओं और परंपराओं को समय के अनुसार बदलने और ख़त्म करने की ज़रूरत है जिससे सभी जेंडर के व्यक्तियों को उनकी इच्छा के अनुसार जीने के समान अवसर प्रदान किया जा सके। शादी की अघोषित अनिवार्यता को ख़त्म करने और वयस्क होने पर निर्णय लेने का अधिकार व्यक्ति को होना चाहिए। अकेले रहने वाली महिलाओं को भी समाज में समान रूप से देखा जाए और उनसे समान व्यवहार किया जाए, जिससे वे बिना किसी दबाव के अपना जीवन अपने तरीके से जी सकें।