हमारा देश उत्सव और धार्मिक रीति-रिवाज प्रिय देश है। विविध प्रकार की सांस्कृतिक परंपराएं सदियों से हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा बनी हुई हैं। अलग-अलग प्रकार के तीज-त्योहार, व्रत-पर्व देश की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जाने जाते हैं। साल भर देश के विभिन्न हिस्सों में विविध प्रकार के त्योहारों से उत्सव का माहौल बना रहता है। इस दौरान अलग-अलग राज्यों में इन अवसरों पर विशेष प्रकार के पकवानों और व्यंजनों की लोकप्रियता देखी जा सकती है। यह कहना गलत नहीं है कि ये विशेष प्रकार के व्यंजन इन रीति रिवाजों की पहचान बन चुके हैं। इसके साथ ही हर त्योहार में कुछ विशेष प्रकार के रीति-रिवाजों और नियमों का पालन किया जाता है। यह परंपराएं सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में चलती आ रही हैं और समाज की जड़ों में बसी हुई हैं। लेकिन अक्सर इन्हें निभाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर डाल दी जाती है।
सांस्कृतिक परंपराओं में महिलाओं की भूमिका
आमतौर पर घर संभालने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की मानी जाती है। इन्हें बचपन से ही घरेलू काम करने की आदत डाल दी जाती है। त्योहारों का समय महिलाओं के लिए बेहद थकाऊ और मानसिक रूप से तनावपूर्ण होता है। चाहे त्योहारों के समय घर की साफ-सफाई और सजावट करना हो या समारोहों के लिए विशेष व्यंजन तैयार करना हो, यह मान कर चला जाता है कि ये घर की महिला सदस्यों का काम है। ईद, नवरात्रि या छठ पूजा जैसे तमाम कठिन माने जाने वाले पर्वों के दौरान भूखे-प्यासे रहने के साथ विविध प्रकार के पकवानों को बनाने का काम किसी परीक्षा से कम नहीं।
ज़ाहिर सी बात है जब पुरुष रोजमर्रा के कामों के दौरान किचन में अपनी ज़िम्मेदारी नहीं लेते तो पर्व त्योहारों के दौरान अचानक से कैसे इस तरह की जिम्मेदारी उठाएंगे! पितृसत्तात्मक संरचना में जेंडर रोल का दुष्परिणाम इस तरह से भी हमारे सामने आता है। इस विषय पर वाराणसी, उत्तर प्रदेश की रहने वाली होममेकर चित्रा मजूमदार बताती हैं, “हम महिलाओं के लिए छुट्टी जैसा कोई दिन नहीं होता। ऊपर से त्योहारों के आने पर उससे जुड़ी ज़िम्मेदारियां इतनी ज़्यादा महसूस होती हैं कि त्योहार की खुशी उसमें कहीं गायब सी हो जाती है। हालांकि अपवाद के तौर पर चुनिंदा घरों के कुछ पुरुष सदस्य इस दौरान मदद करते हैं पर यह ‘मदद’ ही होती है और ऐसे पुरुषों की संख्या भी उंगलियों पर गिने जाने लायक ही है।”
सांस्कृतिक दायित्वों और विचारधारा के बीच संघर्ष
हमारे समाज में महिलाओं की परवरिश इस तरह से की जाती है कि बचपन से ही उन्हें कदम-कदम पर स्त्री होने का एहसास कराया जाता है। घर के रोज़मर्रा के काम हों या मेहमानों का स्वागत, घर की महिलाओं पर उनकी ज़िम्मेदारी अपनेआप आ जाती है या डाल दी जाती है। इसी तरह घर में किसी बीमार या बुजुर्ग के होने पर उनकी देखभाल का अतिरिक्त बोझ घर की महिला सदस्यों पर ही होता है। सोशल कंडीशनिंग की वजह से मुझे ख़ुद इस धारणा से निकलने में समय लगा कि यह सारी ज़िम्मेदारियां एक महिला होने के नाते मेरी ही है।
हम महिलाओं के लिए छुट्टी जैसा कोई दिन नहीं होता। ऊपर से त्योहारों के आने पर उससे जुड़ी ज़िम्मेदारियां इतनी ज़्यादा महसूस होती हैं कि त्योहार की खुशी उसमें कहीं गायब सी हो जाती है।
बचपन में जो पर्व-त्योहार खुशियों और उत्साह से भर देते थे, उसके पीछे छिपे महिलाओं के शोषण को महसूस करने के बाद धीरे-धीरे त्योहारों से मेरा मन उचट सा गया। इसके साथ ही खाने-पीने में बेहद रुचि होने के बावजूद त्योहारों से जुड़े विशेष प्रकार के व्यंजनों के प्रति आकर्षण भी ख़त्म हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि त्योहारों के समय मन में एक अलग तरह का अंतर्द्वंद चलने लगता है। अगर परिवार और समाज की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए पारंपरिक भूमिका निभाएं तो अपने मूल्यों और सिद्धांतों से समझौता करना पड़ता है। वहीं नारीवादी विचारों को जीवन में लागू करने से परिवार की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने का अफ़सोस सा होता रहता है।
घर की बड़ी बेटी होने के नाते इस तरह की परंपराओं और रीति-रिवाजों की ज़िम्मेदारी स्वाभाविक रूप से मेरे ऊपर आ गई। अपने घर में और आस-पास के माहौल को देखते हुए मैंने भी सहज ही इसे अपना लिया था। धीरे-धीरे जागरुकता बढ़ने के साथ मुझे एहसास हुआ कि यह भेदभावपूर्ण है।
ऐसे ही कुछ विचार नोएडा की रहने वाली 36 वर्षीय निहारिका के भी हैं। अपना अनुभव साझा करते हुए वह बताती हैं, “घर की बड़ी बेटी होने के नाते इस तरह की परंपराओं और रीति-रिवाजों की ज़िम्मेदारी स्वाभाविक रूप से मेरे ऊपर आ गई। अपने घर में और आस-पास के माहौल को देखते हुए मैंने भी सहज ही इसे अपना लिया था। धीरे-धीरे जागरुकता बढ़ने के साथ मुझे एहसास हुआ कि यह भेदभावपूर्ण है। इसके बाद अपनेआप इस तरह के पारंपरिक रीति-रिवाजों से दूरी बढ़ती गई। अब मैं अपनी खुशी और सुविधा को ज़्यादा महत्व देती हूं, इससे मुझे संतुष्टि मिलती है।”
नारीवादी विचारधारा के समक्ष चुनौतियां और समझौते
पढ़ाई-लिखाई करने और नारीवाद की समझ हासिल करने के बाद महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हो रही हैं। लेकिन, इसके साथ ही उनके सामने चुनौतियां भी बढ़ रही हैं क्योंकि हमारा समाज अभी भी एक जागरुक, आत्मनिर्भर और अपने अधिकारों के लिए खड़ी रहने वाली महिलाओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो पाया है। ऐसे में पारंपरिक पर्व-त्योहार के समय इनकी चुनौतियां कई गुना बढ़ जाती हैं। चाहे वह घर की साज-सज्जा करनी हो, विशेष प्रकार के पकवान बनाने हों या पारंपरिक वेशभूषा में तैयार होना हो, इन सब भूमिकाओं को निभाने की ज़िम्मेदारी बहुत बार तनाव और चिंता का कारण बन जाती है।
संयुक्त परिवार में कई बार ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए हमें ऐसे समझौते करने पड़ते हैं, जो देखने में लगता है कि मन के अनुसार हो रहा है। लेकिन असल में एक भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं होता। कितनी भी आज़ाद ख़याल महिला हो, पर्व-त्योहार के समय संस्कार और संस्कृति के नाम पर लचीले रूप में ही सही बहुत सारी चीजें करनी पड़ ही जाती हैं।
इस विषय में राजस्थान की 49 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता गुलमोहर कहती हैं, “संयुक्त परिवार में कई बार ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए हमें ऐसे समझौते करने पड़ते हैं, जो देखने में लगता है कि मन के अनुसार हो रहा है। लेकिन असल में एक भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं होता। कितनी भी आज़ाद ख़याल महिला हो, पर्व-त्योहार के समय संस्कार और संस्कृति के नाम पर लचीले रूप में ही सही बहुत सारी चीजें करनी पड़ ही जाती हैं। इस वजह से छुट्टियों के दौरान अपने व्यक्तिगत काम को पीछे छोड़ते हुए ऐसी गतिविधियों में शामिल होना पड़ता है जिनमें न हमारी आस्था है और न ही रुचि।”
परंपरा और प्रगतिशीलता के बीच संतुलन की कोशिश
आमतौर पर एक महिला की ज़िंदगी का अधिकतर समय किचन और घर की चहारदीवारी में बीत जाता है। पूरे परिवार के लिए नियमित और पर्व-त्योहारों के दौरान मेहमानों के लिए भी खाना बनाने के बावजूद, एक महिला को अपनी पसंद का खाना बनाने के लिए भी बहुत ज़्यादा सोच-विचार करना पड़ता है। आज महिलाएं धीरे-धीरे ही सही पर जागरुक और मुखर हो रही हैं। चाहे अपनी पसंद का कॅरियर बनाने की दिशा में आगे बढ़ना हो, या दूसरे क्षेत्र, वे आगे बढ़ रही हैं। इसके लिए उन्हें स्थायी या अस्थायी रूप से अपना घर-परिवार छोड़कर दूसरे जगह पर रहना भी पड़ता है। इसके बावजूद इन्हें त्योहारों के समय पारंपरिक भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों से छुटकारा नहीं मिल पाता। जहां पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में घर से दूर रहने वाले पुरुषों का त्योहारों या छुट्टियों में घर आने पर विशेष स्वागत-सत्कार किया जाता है, वहीं ऐसी ही स्थिति में महिलाओं को घर के कामों की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती है।
बिहार के सिवान की पूजा श्रीवास्तव केंद्रीय विद्यालय में शिक्षिका हैं। वे इस विषय पर कहती हैं, “त्योहारों के दौरान घर के पुरुष सदस्य आराम से बैठकर विविध प्रकार के पकवानों का आनंद लेते हैं, टीवी देखते हैं। वहीं हम पूरा टाइम किचन में ही फंसे रह जाते हैं। ऊपर से पारंपरिक कपड़ों, गहनों या मेकअप का एक अतिरिक्त दबाव भी हावी रहता है। इन त्योहारों का महिमामंडन और नॉस्टैल्जिया अलग ही लेवल का स्ट्रेस देता है। जेंडर इक्वैलिटी जैसी चीजें हमारे परिवारों में लागू नहीं होती हैं।” देश की सांस्कृतिक परंपराएं हमेशा से ही महिलाओं के त्याग, सेवा और समर्पण के गुणगान पर टिकी हैं। संस्कारों के नाम पर शोषण समाज की परंपरा का अभिन्न अंग है। सांस्कृतिक परंपराएं और रीति-रिवाज किसी भी समाज का अमूल्य धरोहर होते हैं। लेकिन इसके लिए किसी एक जेंडर पर बोझ डालना या ज़िम्मेदारी देना बेहद पितृसत्तातमक और अमानवीय है। शोषण की नींव पर टिकी संस्कृति की इमारत को ढहा देना मानवता के लिहाज से जरूरी है। जब हम ऐसा समाज विकसित कर पाएंगे जहां परिवार के सभी सदस्य घर-परिवार और सांस्कृतिक परंपराओं को निभाने की अपनी ज़िम्मेदारी बराबर से महसूस करें और निभाएं तब सही मायने में त्योहारों की सार्थकता साबित हो पाएगी।