पिछले साल तमिल नाडु के मदाथुकुलम कस्बे के राजावुर और मैवाडी बस्तियों में रहने वाले दलितों पर कथित उच्च जाति के लोगों द्वारा जूते पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। 2017 में कर्नाटक में एक दलित व्यक्ति की पिटाई की गई, कपड़े उतार दिए गए और उसे मृत व्यक्ति के कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया गया। मामले के आरोपी ने अपने 10 से अधिक साथियों के साथ मिलकर उस युवक का अपहरण किया, जो कथित तौर पर उसकी 15 वर्षीय बेटी को स्टॉक किया करता था। मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में महज पगड़ी पहनने पर उच्च जाति के तीन लोगों ने कथित तौर पर उस व्यक्ति पर चाकू से हमला कर दिया। गुजरात के बनासकांठा जिले में एक दलित व्यक्ति पर कथित ऊंची जाति के कुछ लोगों ने सिर्फ फैशनेबल कपड़े और सनग्लास पहनने के कारण हमला कर दिया।
ये महज चुनिंदा एकल घटनाएं नहीं हैं, जहां पहनावे से साथ जाति और वर्ग का जुड़ाव समझ आता है। भारत में पहनावे पर वर्ग और जाति का प्रभाव एक लंबे समय से मौजूद सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा है, जो विशेष रूप से दलित और बहुजन समुदाय को प्रभावित करता रहा है। जाति व्यवस्था ने समाज के विभिन्न वर्गों के कपड़ों, आभूषणों और अन्य पोशाक के सांस्कृतिक पहचान के प्रतीकों को सख्त रूप से नियंत्रित किया है। सालों से ऐसी घटनाएं हुई हैं, जहां दलित-बहुजन समुदाय के लोगों को उनके कपड़े पहनने की ‘चॉइस’ के कारण उत्पीड़न और शोषण का सामना करना पड़ा है। जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को सदियों से नियंत्रित किया है। कथित उच्च जातियों का सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व रहा है। वहीं दलित, बहुजन और आदिवासी समुदायों को हाशिए पर रखा गया है।
दक्षिण भारत में त्रावणकोर में दलित महिलाओं को शरीर पर ऊपरी वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं थी। जब उन्होंने इसका विरोध किया, तो लंबा और कठिन संघर्ष हुआ, जिसे आज ‘चन्नार क्रांति’ के रूप में जाना जाता है।
पोशाक है सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति का प्रतीक
पोशाक हमेशा से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति और पहचान का प्रतीक रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से, हाशिये के जातियों पर कुछ विशेष प्रकार के कपड़े या आभूषण पहनने से प्रतिबंधित किया गया है। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत में त्रावणकोर में दलित महिलाओं को शरीर पर ऊपरी वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं थी। जब उन्होंने इसका विरोध किया, तो लंबा और कठिन संघर्ष हुआ, जिसे आज ‘चन्नार क्रांति’ के रूप में जाना जाता है। समय-समय पर देश के विभिन्न क्षेत्रों में दलित-बहुजन महिलाओं ने न सिर्फ जातिगत भेदभाव का खामियाजा भुगता है, बल्कि उसे खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

सदियों से लोगों के पहनावे पर जाति व्यवस्था का प्रभाव है। पहनावे पर जातिगत और वर्ग का प्रभाव मनुस्मृति के समय से देखा जा सकता है। मनुस्मृति में दलितों के लिए कहा गया है कि उन्हें गांव से बाहर रहना है, फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करना है, मृतकों के कपड़े और लोहे के आभूषण पहनने हैं। भले आज बाबा साहब अंबेडकर का काम और नीली कोट पहनी हुई तस्वीर मील का पत्थर बन गई है। लेकिन पहनावे पर राजनीति जटिल मुद्दा है। आज किसी दलित व्यक्ति को सूट पहने देखना हैरान करने वाली पूरी तरह ‘असामान्य’ बात नहीं है। लेकिन कई इलाकों में भेदभाव अभी भी जारी है। हालांकि जब लोगों की शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियां पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती है, तो सालों से चली आ रही जातिगत पदानुक्रम वैसी नहीं रहती जैसेकि नियम बनाए गए हैं। साथ ही, बाज़ारीकरण और उपभोगतावाद जाति व्यवस्था के कठोर सीमाओं को विशेषकर पहनावे के मामले में बदल देता है।
पुलायार जाति की महिलाएं कल्लूमाला पहनती थीं, जो पत्थर की मोतियों की एक श्रृंखला थी जो उनकी जाति बताती थी। इसके विरोध में पुलायार समुदाय द्वारा कल्लूमाला समरम आंदोलन का जन्म हुआ, जो पेरिनाड और आस-पास के गांवों में हुई थी।
पहनावे का इतिहास, सत्ता और वैलिडेशन की रणनीति
सामाजिक मनोवैज्ञानिक हेनरी ताजफेल और जॉन टर्नर के अनुसार सकारात्मक पहचान मूल्यवान समूहों के साथ संपर्क और सामाजिक तुलनाओं के माध्यम से बनाए रखी जाती है। वे बताते हैं कि सामाजिक पहचान का दावा है कि लोग अपनी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, उस समूह के साथ सदस्यता की पुष्टि से पाते हैं, जिससे वे संबंधित हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि कोई भी समूह गर्व और आत्मसम्मान के स्रोत के रूप में काम कर सकता है। हम जिस समूह से संबंधित हैं, उसकी स्थिति को बढ़ावा देने और समर्थन करके अपने आत्मसम्मान को बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
इसलिए, व्यक्ति सबसे पहले और सबसे ज्यादा जातिगत समूह में अपनी जातिगत पहचान की पाज़िटिव छवि बनाए रखने का प्रयास करते हैं। एक कथित उच्च जाति के व्यक्ति को उनके जातिगत पहचान के कारण समाज में अधिक स्थिरता, संसाधनों तक पहुंच और पावर मिलती है क्योंकि इसे हासिल करने की जरूरत नहीं होती। यह पहचान जन्म के समय लोगों को विरासत में मिलती है।
पहनावे में श्रेष्ठता और जातिवाद

हालांकि देश में जातिगत भेद हर जगह है जो उपनाम, शादी की व्यवस्था, पोशाक और भोजन की आदतों के माध्यम से दिखता है। लेकिन, जाति किस हद तक भारत में सामाजिक स्तर पर मूलभूत संरचना को ढांचा देती या प्रभावित करती है, ये जटिल और बहस का विषय है। ऐतिहासिक रूप से, ऊंची जाति के उत्पीड़न को पहनावे में श्रेष्ठता के रूप में अभिव्यक्ति मिली। यह एक ऐसा सामाजिक तरीका था जिससे दलित, बहुजन और आदिवासी लोगों के आकांक्षाओं पर नियंत्रण किया जा सके, जो आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से उच्च जातियों के लोग महंगे और रेशमी वस्त्र पहनते थे, जबकि कथित निम्न जाति को सादे और मोटे कपड़े पहनने पर मजबूर किया जाता था। ब्रिटिश काल के दौरान, ये भेदभाव और भी स्पष्ट हो गए, जब पश्चिमी कपड़े पहनना उच्चवर्गीय तरीका और शहरी आबादी का प्रतीक बन गया, जबकि ग्रामीण और कथित निम्न जाति के लोग पारंपरिक और सस्ते कपड़ों तक ही सीमित रहे।

हमेशा से उच्च जातियों ने कथित निम्न जाति के लोगों को न सिर्फ बताया है कि क्या पहनना है, बल्कि सामाजिक व्यवहार और सामाजिक स्थिति भी तय की है। कहीं धोती या लूँगी पूरी लंबाई तक नहीं पहनी जा सकती थी, कहीं प्लीट्स केवल पीछे के ओर हो सकते थे, तो कहीं महिलाओं के लिए ब्लाउज एक विशेष प्रकार का होना चाहिए था। दलित समुदाय के लिए पगड़ी एक निश्चित रंग की होनी चाहिए थी। ये आमतौर पर काले रंग की होती थी। कुछ जगहों पर रंगों के माध्यम से भी वर्चस्व दिखाया गया, जहां सफेद रंग दलितों के लिए प्रतिबंधित थी। पुलायार जाति की महिलाएं कल्लूमाला पहनती थीं, जो पत्थर की मोतियों की एक श्रृंखला थी जो उनकी जाति बताती थी। इसके विरोध में पुलायार समुदाय द्वारा कल्लूमाला समरम आंदोलन का जन्म हुआ, जो पेरिनाड और आस-पास के गांवों में हुई थी।
मनुस्मृति में दलितों के लिए कहा गया है कि उन्हें गांव से बाहर रहना है, फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करना है, मृतकों के कपड़े और लोहे के आभूषण पहनने हैं। भले आज बाबा साहब अंबेडकर का काम और नीली कोट पहनी हुई तस्वीर मील का पत्थर बन गई है। लेकिन पहनावे पर राजनीति जटिल मुद्दा है।
पोशाक और वर्ग का प्रभाव
वर्ग का प्रभाव आधुनिक भारतीय समाज में फैशन और कपड़ों की प्राथमिकताओं को भी आकार देता है। उच्च वर्ग और अमीर तबके के लोग महंगे ब्रांड, डिजाइनर कपड़े और फैशन ट्रेंड्स को अपनाते हैं। मॉल और ब्रांडेड स्टोर्स से शॉपिंग करना एक उच्च वर्गीय व्यक्ति की पहचान का प्रतीक बन गया है। वहीं, आर्थिक रूप से हाशिये के तबके के लोग सस्ते बाजारों, ठेलों और लोकल दुकानों से कपड़े खरीदते हैं, जो सस्ते होते हैं और कई बार टिकाऊ और उपयोगी भी। सामाजिक बदलाव और समानता के दावों के बावजूद, कपड़ों के माध्यम से वर्ग और जाति का प्रभाव समाज में आज भी देखने को मिलता है। खासकर तब जब बात शादी, धार्मिक उत्सव या अन्य सामाजिक आयोजनों की हो।

इन आयोजनों में पहनावे के माध्यम से सामाजिक स्थिति को दिखाया जाता है। महिलाओं के पहनावे पर भी जाति और वर्ग का गहरा असर होता है। निम्न वर्ग और कथित निम्न जातियों की महिलाएं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, साधारण कपड़े पहनती हैं। वहीं, उच्च वर्ग और जातियों की महिलाएं अधिक महंगे और आधुनिक फैशन को अपनाती हैं। यह भेदभाव सिर्फ आर्थिक स्थिति तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक मान्यताओं और समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे से भी प्रभावित है।
पोशाक हमेशा से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति और पहचान का प्रतीक रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से, हाशिये के जातियों पर कुछ विशेष प्रकार के कपड़े या आभूषण पहनने से प्रतिबंधित किया गया है।
हालांकि निजी चॉइस होने के बावजूद, पोशाक एक सामाजिक और राजनीतिक विषय और विद्रोह का जरिया रहा है। अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र में दलित बहुजन लोगों के कपड़ों के चुनाव के कारण उनपर जमकर मेनस्ट्रीम मीडिया में भी लिखा गया है। साल 2003 में अपने जन्मदिन समारोह के दौरान मायावती ने हीरे का हार, हीरे जड़ित बालियां और कंगन पहना था, जो हर हफ्तों तक खबरों की सुर्खियों में रहा। वहीं पहनावे में जाति और वर्ग के प्रभाव के इतिहास को जानते हुए, समझ आता है कि भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद क्यों बड़ी मूंछ रखते हैं और अक्सर सार्वजनिक जगहों पर धूप का चश्मा पहने नज़र आते हैं।
अक्सर, कपड़ों का रंग और डिजाइन और कट भी जाति और वर्ग से जुड़ा होता है। आज दलित और बहुजन समुदाय के लोग अलग-अलग रंगों, कट और डिजाइन को पहन रहे हैं। लेकिन इस भेदभाव की जड़ कितनी गहरी है, ये आप कथित निम्न जाति या गरीब तबके और आर्थिक रूप से संभ्रांत और उच्च जाति के कपड़ों के रंगों के चॉइस से समझ सकते हैं। भारत में कपड़ों पर जाति और वर्ग का प्रभाव गहरा और बहुआयामी है। यह न केवल व्यक्तिगत पसंद का सवाल है, बल्कि सामाजिक संरचना, परंपराओं, आर्थिक स्थितियों और सांस्कृतिक मान्यताओं से भी जुड़ा हुआ है। हालांकि आधुनिकता और सामाजिक सुधार के चलते कुछ बदलाव हो रहे हैं, फिर भी जाति और वर्ग का प्रभाव भारतीय समाज में कपड़ों के चयन पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।