इंटरसेक्शनलजाति अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में जातिवाद से गुज़रती दलित युवतियों के अनुभव

अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में जातिवाद से गुज़रती दलित युवतियों के अनुभव

इन युवतियों के साथ हुई उपरोक्त निजी बातचीत इस बात को साफ़ जाहिर करती है कि अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में दलित युवतियों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी वे हकदार होती हैं। वे जातिवाद पर आधारित सामाजिक संरचना को चुनौती देती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से प्रेम संबंधों में जाति से जुड़ा प्रश्न उन्हें उसी सामाजिक संरचना में फिर से लाकर खड़ा कर देता है। 

जातीय बंधनों को तोड़ते हुए सामाजिक सुधार के उद्देश्य से बाबा साहब आंबेडकर के अंतर्जातीय विवाह से जुड़े विचारों का आधार अंतर्जातीय प्रेम संबंध से होकर गुज़रता है। बात चाहे अंतर्जातीय प्रेम संबंधों की कि जाए या अंतर्जातीय विवाह की, दोनों ही कठोर सीमाओं को पार करते हैं जिनके परिणाम हिंसक होते हैं। ऐसे में जातिवाद से गुजरने का सिलसिला शादी से पहले भी चलता है और शादी के बाद भी। एक शोध के मुताबिक, कई दलित महिलाओं ने ऊंची जाति के पुरुषों से शादी करने के बाद छुआछूत और जातिगत भेदभाव झेला है। हम इस लेख में अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में रहीं दिल्ली शहर की दलित युवतियों के उन अनुभवों की चर्चा करने जा रहे हैं जहां जाति आज 21वीं सदी में भी एक प्रबल कारक है क्योंकि ये संबंध आज के समाज में अंतर्जातीय विवाह के रास्ते तय करते हैं।

अंतर्जातीय प्रेम संबंधों के भीतर जाति, वर्ग, नस्ल आदि रुझान के साथ जेंडर के अंतर्संबंध को संबोधित करने वाले विषय आज भी शोध की दृष्टि से बाहर हैं। हमे इस बात को समझना होगा कि जब दो अलग-अलग जाति के लोग प्रेम की ओर बढ़ते हैं तो उनके बीच केवल भावनात्मक और शारीरिक अंतरंगता ही नहीं बल्कि सामाजिक अंतरंगता भी शामिल होती है। इस लेख में हमने ऐसा ही एक प्रयास किया है। यहां हमने दिल्ली शहर में रह रही दलित महिलाओं से बातचीत की है। इस बातचीत का विषय अंतर्जातीय प्रेम संबंधों के भीतर, इन महिलाओं के साथ उनके तथाकथित उच्च जाति से संबंध रखने वाले पार्टनर के द्वारा किए जाने वाले जातिवाद के बर्ताव का खुलासा करते हुए अपने अनुभवों के बारे में है।

प्रेम की पहली सीढ़ी में जाति को डर से छिपाए रखना

पढ़ी-लिखी दलित महिलाएं जो जाति के बंधनों को चुनौती देती हैं वे निस्संदेह ही हमारे समाज के लिए अनमोल हैं। ऐसी दलित महिलाएं अपनी तथाकथि हाशिये  जाति के प्रति सामाजिक तिरस्कार के संबंध में गहराई से सजग होती हैं। इस सजगता के कारण ही, वे किसी तथाकथित उच्च जाति के पुरुष के साथ प्रेम में पड़ने पर मजबूरन डर से अपनी जाति को छिपाए रखती हैं। वे शिक्षा, ऑफिस, आदि सार्वजानिक क्षेत्र में हाशिये  जाति से होने की अभिवृत्ति और भेदभाव से गुज़र चुकी होती हैं।

दिल्ली के महरौली में रहने वाली एक दलित युवती रचना (28) (बदला हुआ नाम) बताती है, “मैं तथाकथित उच्च जाति के एक पुरुष से बेहद प्यार करती थी। मैं निचले तबके की जाति से आती हूं, मैंने यह सच्चाई तीन-चार साल तक नहीं बताई। मैं डर में जीती रही की कल को पता चल जाए तो सब खत्म हो जाएगा। कई पुरुष होते हैं जिन्हें जाति की उतनी परवाह नहीं होती। पर एक दिन मैने उसे बता दिया। मेरी जाति जानने के बाद उसका जबाव था, मैं जानता था पहले से ही, सबसे पहली बात तुम्हारा सरनेम ‘गौतम’ जो अक्सर ब्राह्मण लोग लगाते हैं। तुम्हारे व्यवहार में ‘गौतम’ होना जैसा कुछ नहीं था।”

जयंती (31) (बदला हुआ नाम), गुडगाँव के एक कॉर्पोरट ऑफिस में काम करनेवाली दलित महिला हैं। वह तथाकथित उच्च जाति के पुरुष के साथ अपने प्रेम संबंधी इंटरेक्शन से जुड़े अनुभव हमारे साथ साझा करती हैं। वह बताती हैं, “अपनी लाइफ में जिन्हें डेट किया वे समाज की तथाकथित उच्च जाति से वास्ता रखते थे। मैंने यह निर्णय कर लिया था कि जब तक रिलेशनशिप शादी की अवस्था तक नहीं पहुंच जाता, मैं अपनी जाति नहीं बताऊंगी। जाति न बताने का एक प्रमुख कारण यह था कि जिसके साथ मैं रिलेशनशिप में हूं उस व्यक्ति का कुछ ज़िंदगी के कुछ ज़रूरी विषयों पर विचार क्या हैं। मैं बातों ही बातों में उससे यह जानने की कोशिश करती थी कि वह आख़िर में हाशिये की जाति और इंटरकास्ट मैरिज के बारे में क्या विचार रखता है। अगर वह जाति के बारे में नकारात्मक सोच रखता है तो ऐसे में मैं उससे किनारा करके निकल जाती थी। ऐसी स्थिति में मैं कई बार पहुंची हूं। जाति आज भी एक हकीक़त है. जिसकी वजह से मैं कई बार अपने अंदर से टूटी हूं। ऐसे रिश्तों के अंत गहरी मानसिक और भावनात्मक क्षति पहुंचाते हैं।”

जाति ‘एक्सपोज़’ होती है

जाति एक ऐसा कारक है रिश्तों में जिसे ‘बताया’ नहीं बल्कि ‘एक्सपोज़’ किया जाता है। दिल्ली के महरौली में रहने वाली एक दलित युवती रचना (28) (बदला हुआ नाम) बताती है, “मैं तथाकथित उच्च जाति के एक पुरुष से बेहद प्यार करती थी। मैं निचले तबके की जाति से आती हूं, मैंने यह सच्चाई तीन-चार साल तक नहीं बताई। मैं डर में जीती रही की कल को पता चल जाए तो सब खत्म हो जाएगा। कई पुरुष होते हैं जिन्हें जाति की उतनी परवाह नहीं होती। पर एक दिन मैने उसे बता दिया। मेरी जाति जानने के बाद उसका जबाव था, मैं जानता था पहले से ही, सबसे पहली बात तुम्हारा सरनेम ‘गौतम’ जो अक्सर ब्राह्मण लोग लगाते हैं। तुम्हारे व्यवहार में ‘गौतम’ होना जैसा कुछ नहीं था।”

सुंदरता के शारीरिक प्रतीकों से जातिगत पहचान छिपाने पर मजबूर करना

कई बार तथाकथित उच्च जाति के पुरुष अपनी दलित पार्टनर पर सुंदरता के कुछ शारीरिक प्रतीकों को थोपकर उनकी जातीय पहचान को अलग करने की कोशिश करते हैं। ऐसा लगता है जैसे शारीरिक प्रतीक युवती की जातीय पहचान जैसे तथ्य से पहुंचने वाले नुकसान की भरपाई करने का तरीका हो। कई जोड़ों/कपल्स के बीच अक्सर महिला पार्टनर की गोरी त्वचा उसे जाति से ऊपर उठने के रूप में कारगर होता है।

इन युवतियों के साथ हुई उपरोक्त निजी बातचीत इस बात को साफ़ जाहिर करती है कि अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में दलित युवतियों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी वे हकदार होती हैं। वे जातिवाद पर आधारित सामाजिक संरचना को चुनौती देती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से प्रेम संबंधों में जाति से जुड़ा प्रश्न उन्हें उसी सामाजिक संरचना में फिर से लाकर खड़ा कर देता है। 

जयंती बताती हैं, “मेरे दूसरे रिलेशनशिप में, मैं जिस तथाकथित उच्च जाति के पुरुष के साथ थी, वो यह बात जानता था की मैं दलित जाति से हूं पर उसका परिवार इस बात को अस्वीकार करता था। कई बार मैं अपने पार्टनर के ज़ोर देने पर हर संभव कोशिश करती थी कि मैं लुक्स और सुंदरता से बेहतर दिख सकूं। ताकि जब शादी की बात आगे बढ़ाने के लिए उसके परिवार से कभी मिलने का मौका बने तो उनके आगे ‘लोअर कास्ट’ न दिख सकूं। क्योंकि लोग हमारे बारे में सोच ही ऐसी रखते हैं। ऐसे में हमे उनकी नज़रों में खुद को स्वीकार करने के लायक बनाने का दूसरा एक तनाव है।”

“जाति के कारण हमेशा नीचा दिखाया गया”

पितृसत्तात्मक और जाति आधारित समाज में दलित महिलाएं शक्ति संबंधों में आज भी पुरुषों के अधीन हैं। समाज में तथाकथित उच्च जातियों के पुरुषों द्वारा दलित महिलाओं के साथ हिंसा बरती जाना काफी सामान्य-सी बात है। ऐसे अंतर्जातीय संबंधों में वे अक्सर शारीरिक और मौख़िक हिंसा का सामना करती हैं। अंतर्जातीय संबंधों में शारीरिक हिंसा झेलने वाली जयंती बताती हैं, “मैं एक रिलेशनशिप में रही, वह सात साल चला। इन सात साल में ऐसा कोई साल नहीं था जब उसने मेरी जाति को गाली न दी हो। एक बार लड़ाई के दौरान मुझे कहा गया कि तेरे जैसे चमार लोग हमारे चंडीगढ में गली-गली जाकर नाले साफ करते हैं। जयंती आगे बताती हैं, मैंने अपने घर में अपने मम्मी-पापा के बीच बहुत लड़ाई झगड़े देखें हैं, कई बार हिंसा होते हुए भी देखी है। इसी कारण से मैंने अपने कंफर्ट को अपने घर और जाति से बाहर निकलकर ही खोजा है। ऐसे में रिलेशनशिप सुकून से भरे लगते हैं पर जातिवाद सारे सुकून को पलभर में छीन लेता है।”

जयंती बताती हैं, “मेरे दूसरे रिलेशनशिप में, मैं जिस तथाकथित उच्च जाति के पुरुष के साथ थी, वो यह बात जानता था की मैं दलित जाति से हूं पर उसका परिवार इस बात को अस्वीकार करता था। कई बार मैं अपने पार्टनर के ज़ोर देने पर हर संभव कोशिश करती थी कि मैं लुक्स और सुंदरता से बेहतर दिख सकूं। ताकि जब शादी की बात आगे बढ़ाने के लिए उसके परिवार से कभी मिलने का मौका बने तो उनके आगे ‘लोअर कास्ट’ न दिख सकूं।

रिश्तों में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण जैसी परिस्थितियों के नॉर्मलाइज़ होने जैसे अनुभवों को साझा करते हुए रचना के अनुसार, “मैं देखती थी मेरे घर में लड़की-लड़के के बीच साफ़ असमानता दिखाई देती थी। बाहरवीं पूरी करने के तुरंत बाद शादी कराने की बात अक्सर की जाती थी। घर में कदम रखने की समय सीमा से लेकर कपड़े पहनने के तौर-तरीक़े परिवार में नियंत्रित थे।ऐसे में जब हम इंटरकास्ट रिलेशनशिप में होते हैं तो भावनात्मक रूप से अपने पार्टनर से ज़्यादा उम्मीद रखने लगते हैं और बहुत-सी बातों पर समझौता भी करने लगते हैं।” 

अगर यहां बात करें 2005 के महिलाओं से जुड़े घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम की तो यह विवाहित महिलाओं पर होने वाली हिंसा के साथ-साथ, अविवाहित महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की भी बात करता है। अधिनियम इस बात की ओर इशारा करता है कि दलित महिलाओं के द्वारा सामना की जाने वाली हिंसा की विशिष्टता काफी हद तक अज्ञात बनी हुई है। ये हिंसाएं मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक हिंसाओं को चिह्नित करती हैं।

पीढ़ीगत बदलाव और जातिगत भेदभाव से मुक्ति

जयंती बताती हैं, “हम जिस तरह के पारिवारिक माहौल में पले-बडे होते हैं वहां हम जातीय और लैंगिक दोनों तरह के भेदभाव से गुज़रते हैं। मैंने देखा है हम जिस उम्मीद से इंटरकास्ट लव रेलशनशिप में आते हैं वहां भी ये भेदभाव बने हुए होते हैं।”  जहां एक ओर जेंडर असमानता पहले से ही मौजूद होती है तो वहीं दूसरी ओर दलित होने के कारण, इन युवतियों के संबंधों में उनकी हीन परिस्थिति दोहरे शोषण को दर्शाती है। इसके अलावा अतीत में झेला गया भेदभाव कहीं फिर से न दोहराया जाए इसलिए जातीय भेदभाव से मुक्त होने की आशा में कई दलित युवतियां अंतर्जातीय प्रेम संबंध के चयन को प्रभावशील मानती हैं। जिसे वे जातिवाद के अंत के साथ पीढ़ीगत बदलाव के साधन के रूप में देखती हैं।

जयंती (31) (बदला हुआ नाम), गुडगाँव के एक कॉर्पोरट ऑफिस में काम करनेवाली दलित महिला हैं। वह तथाकथित उच्च जाति के पुरुष के साथ अपने प्रेम संबंधी इंटरेक्शन से जुड़े अनुभव हमारे साथ साझा करती हैं। वह बताती हैं, “अपनी लाइफ में जिन्हें डेट किया वे समाज की तथाकथित उच्च जाति से वास्ता रखते थे। मैंने यह निर्णय कर लिया था कि जब तक रिलेशनशिप शादी की अवस्था तक नहीं पहुंच जाता, मैं अपनी जाति नहीं बताऊंगी। जाति न बताने का एक प्रमुख कारण यह था कि जिसके साथ मैं रिलेशनशिप में हूं उस व्यक्ति का कुछ ज़िंदगी के कुछ ज़रूरी विषयों पर विचार क्या हैं।

इन युवतियों के साथ हुई उपरोक्त निजी बातचीत इस बात को साफ़ जाहिर करती है कि अंतर्जातीय प्रेम संबंधों में दलित युवतियों को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी वे हकदार होती हैं। वे जातिवाद पर आधारित सामाजिक संरचना को चुनौती देती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से प्रेम संबंधों में जाति से जुड़ा प्रश्न उन्हें उसी सामाजिक संरचना में फिर से लाकर खड़ा कर देता है। 


संदर्भ सूची

  1. JSTOR
  2. BehenBox, Report by Deepa Pawar
  3. Academia

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