नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: खुद की अभिव्यक्ति में आज़ादी की खोज

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: खुद की अभिव्यक्ति में आज़ादी की खोज

मैं बचपन से ग्रामीण महिलाओं के अनुभवों को देखती थी और उसे कहीं दर्ज करना चाहती थी और मैं वो कर पाई। यह अनुभव एक तरह से अभिव्यक्ति के माध्यम से मेरे फेमिनिस्ट जॉय की खोज थी। जब मेरी करीबी सहेलियों ने मेरा लिखा हुआ आर्टिकल पढ़ा और सराहा, तो मुझे वह खुशी मिली, जो मैंने कभी महसूस नहीं की थी।

जब मैंने पहली बार ‘फेमिनिस्ट जॉय’ के बारे में सुना, तो यह एक जिज्ञासु और रोमांचक विचार था, लेकिन साथ ही, मुझे यह समझने में कठिनाई हो रही थी कि मेरी अपनी खुशी या ‘जॉय’ आखिर क्या है और कहां है? कई दिन सोचने के बाद भी यह सवाल मेरे मन में घूमता रहा। यह सवाल मेरे लिए आसान नहीं था क्योंकि बचपन से ही मुझे यह महसूस होता रहता था कि मैं परिवार पर बोझ हूं। एक ऐसी कैदी हूं, जो अपनी ही परतंत्रता के घेरे में बंद है। मैंने हमेशा से इस भावनात्मक जंजीर से निकलने के लिए संघर्ष किया, लेकिन इस प्रक्रिया में खुद को इतना थका दिया कि अब कभी-कभी लगता है जैसे मेरे पास कुछ महसूस करने की ताकत ही नहीं बची है। 

मुझे ‘जॉय’ का मतलब अब समझ में आता है। यह एक ऐसी जगह या स्थिति जहां मैं खुद को पूरी तरह से परिपूर्ण महसूस कर सकूं। जहां मेरे विचार और भावनाएं बंधनों से मुक्त होकर बह सकें। मेरे लिए फेमिनिस्ट जॉय वह अनुभव है, जब मैं अपनी अभिव्यक्ति में स्वतंत्रता महसूस करूं। इस स्वतंत्रता का अनुभव हमें अपने व्यक्तित्व के उन पहलुओं से मिलवाता है, जिन्हें हमने शायद कभी देखा ही नहीं था। अभिव्यक्ति की यह आजादी ही हमें हमारे सच्चे ‘जॉय’ की ओर ले जाती है। 

स्कूल के दिनों की एक घटना मुझे याद है। सब मुझे ‘दो चोटी वाली लड़की’ के नाम से जानते थे। अगर कभी जल्दी में होती और एक चोटी बना लेती, तो मैं खुद को अंदर से ही कोसने लगती। ऐसा लगता कि अगर मैं एक चोटी बनाकर स्कूल जाऊंगी, तो लोग मुझे ‘गंदी लड़की’ समझेंगे।

मुझे मेरी खुशी की कोई ठोस समझ नहीं थी। मैं हमेशा से समाज और परिवार की उम्मीदों से भागना चाहती थी। इस ख्याल से भागना चाहती थी कि मैं एक बोझ हूं। मैंने अपनी पढ़ाई पर पूरी ताकत लगा दी। मैं बहुत मन लगाकर पढ़ाई करती थी। इसी मेहनत के बदौलत मुझे कक्षा 11 और 12 के लिए स्कॉलरशिप मिली और मैं एक बहुत अच्छे स्कूल में दाखिला ले पाई। वहां जाकर मुझे अपने पसंदीदा संकाय ‘मानविकी’ में पढ़ने का मौका मिला। इसके बाद मैंने अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला लेने का सपना देखा। लेकिन यह सब कुछ मेरा जॉय नहीं था बल्कि एक विशेष तरह की परतंत्रता की भावना थी जहां मुझे खुद को साबित करना होता था और लोगों की स्वीकृति लेनी होती थी कि मैं एक होशियार और अच्छी लड़की हूं। यह दुखी करने वाली बात है कि महिलाओं को सम्मान और मूलभूत स्वंत्रता के लिए खुद को साबित करना होता है कि वो ‘अच्छी और समझदार’ हैं।

बचपन से ही यह धारणा मुझ पर हावी थी कि मुझे खुश रहने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे सुंदर दिखने का अधिकार नहीं है, गलती करने का अधिकार नहीं है। मेरे किशोर और बालमन ने मुझे यह सिखा दिया था कि मैं तब तक खुश नहीं हो सकती, जब तक मैं कुछ बहुत बड़ा काम न कर लूं। अगर मैं किसी भी काम में असफल हो जाती थी, तो खुद को असहनीय गिल्ट से भर लेती थी। मुझे यह समझने में अभी भी कठिनाई होती है कि मेरे जॉय का असली मतलब क्या है, लेकिन अब इतना तो समझ आ गया है कि मेरे सोचने का तरीका, जो सालों से मुझ पर हावी है, वह मेरी मूलभूत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता रहा है। 

स्कूल के दिनों की एक घटना मुझे याद है। सब मुझे ‘दो चोटी वाली लड़की’ के नाम से जानते थे। अगर कभी जल्दी में होती और एक चोटी बना लेती, तो मैं खुद को अंदर से ही कोसने लगती। ऐसा लगता कि अगर मैं एक चोटी बनाकर स्कूल जाऊंगी, तो लोग मुझे ‘गंदी लड़की’ समझेंगे। मैं केवल ‘अच्छी लड़की’ बनना चाहती थी और यह सोच मेरे हर फैसले पर हावी रहती थी। इसके बाद कॉलेज में मैंने देखा कि किसी के बालों का स्टाइल या उनका पहनावा, उनकी पढ़ाई या उनके व्यक्तित्व से कोई संबंध नहीं है। कॉलेज के माहौल ने मेरे भीतर जड़ जमाए हुए इन विचारों को चुनौती दी और मैंने बहुत गलत सीखे हुए को मिटाया। हालांकि, कॉलेज के माहौल ने आत्मविश्वास को बुरी तरह झकझोर दिया। मुझे ऐसा लगा मानो मैं खुद से ही दूर हो रही हूं और कॉलेज के लिए मिसफिट हूं। उस घुटन ने मुझे मानसिक रूप से बहुत कमजोर कर दिया।  

लिखने में स्वतंत्रता: मेरा फेमिनिस्ट जॉय

उसी समय, मैंने एक इंटर्नशिप के लिए आवेदन किया था। लेकिन अवसाद ने मुझे बुरी तरह से जकड़ रखा था। एक शब्द भी लिख पाना मेरे लिए पहाड़ तोड़ने जैसा हो गया था। उस वक्त मैं न केवल लेख लिखने में असमर्थ थी, बल्कि कॉलेज की पढ़ाई भी मुझसे दूर होती जा रही थी। तब एक सीनियर मेंटर मेरी मदद के लिए आईं। वह हमारी एडिटर थी। इस इंटर्नशिप के दौरान वह हर बार मुझे एक साधारण से सवाल के साथ संदेश भेजतीं, “आप कैसी हैं? आपको किसी चीज़ में समस्या है तो आप मुझसे मदद ले सकती हैं।” उनके यह छोटे संदेश मेरे लिए उस समय किसी प्रकाश की किरण जैसे थे। उनके साथ हुई बातचीत ने मुझे प्रेरित किया और मैंने धीरे-धीरे हिम्मत जुटाई और अपना पहला आर्टिकल लिखा। अगर उस समय मैंने इंटर्नशिप छोड़ दी होती, तो शायद मेरा आत्मविश्वास और गिर जाता और मैं उससे कभी उबर नहीं पाती। मुझे आज भी याद है कि वह मुझसे चर्चा करती थीं कि मैं कैसे लिख सकती हूं। उन्होंने लिखने में मेरी हरसंभव मदद की।  

बचपन से ही यह धारणा मुझ पर हावी थी कि मुझे खुश रहने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे सुंदर दिखने का अधिकार नहीं है, गलती करने का अधिकार नहीं है। मेरे किशोर और बालमन ने मुझे यह सिखा दिया था।

प्रेरणा और प्रोत्साहन: मेरी नई उड़ान

एडिटर दीदी की प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मुझे लिखने की स्वतंत्रता दी। उनके विश्वास ने मुझे यह समझने में मदद की कि मैं क्या लिखना चाहती हूं और कैसे लिखना चाहती हूं। जब मैंने अपना पहला आर्टिकल लिखा, तो मुझे एक अनोखा आत्मविश्वास और स्वंत्रता का अनुभव हुआ। यह वह क्षण था, जब मुझे लगा कि लिखने के माध्यम से मैं खुद से जुड़ रही हूं। मैं बचपन से ग्रामीण महिलाओं के अनुभवों को देखती थी और उसे कहीं दर्ज करना चाहती थी और मैं वो कर पाई। यह अनुभव एक तरह से अभिव्यक्ति के माध्यम से मेरे फेमिनिस्ट जॉय की खोज थी। जब मेरी करीबी सहेलियों ने मेरा लिखा हुआ आर्टिकल पढ़ा और सराहा, तो मुझे वह खुशी मिली, जो मैंने कभी महसूस नहीं की थी। मेरी स्कूल की सहेली ने वह आर्टिकल अपने दोस्तों को भी दिखाया और उसकी बातें सुनकर मुझे एहसास हुआ कि उसने मुझ पर गर्व महसूस किया। उसकी उस सरल स्वीकृति और सराहना ने मुझे गहराई से छू लिया। हर स्तर पर सिस्टरहुडशिप ने मुझे बहुत खुशी दी और हमें आगे बढ़ने के प्रोत्साहित किया।

मेरे फेमिनिस्ट जॉय का नज़दीकी सफर

तस्वीर में अपनी सहेलियों के साथ आर्यांशी।

अब मुझे समझ में आता है कि मेरा फेमिनिस्ट जॉय सिर्फ मेरा नहीं है। यह उन सहेलियों का भी है, जो अपने जीवन में खुद को खुश रखती हैं और खुश रहने के लिए हमें कुछ होने या कर जाने की आवश्कता नहीं है। वे मुझ पर गर्व करती हैं। यह मेरी एडिटर दीदी जैसी महिलाओं का भी हैं, जिन्होंने काम से ज्यादा उसे करने वाले व्यक्ति को महत्व दिया। उन्होंने मुझे मानो यह विश्वास दिलाया कि वे सचमुच चाहती थीं कि मैं डरूं नहीं, बल्कि लिखूं। उनका यह विश्वास मेरे लिए प्रेरणा बन गया। अब, मैं हर रोज़ यह सिख रही हूं कि मुझे खुश रहने का अधिकार है और इसके लिए मुझे किसी बड़ी उपलब्धि की ज़रूरत नहीं है। अब मैं पहले से ज्यादा निडर हूं, नए दोस्त बना पाती हूं और बिना डर के या खुद पर कोई पूर्वधारणा थोपे, नए अनुभवों का सामना करने से कम डरती हूं। यह सीखना अब भी जारी है। इस रास्ते में मुश्किलें आती हैं, लेकिन मेरे आसपास की सहेलियां और कई इंसान मुझे प्रेरित करते हैं और दुनिया अब उतनी असहनीय नहीं लगती। उनका साथ मुझे यह यकीन दिलाता है कि मेरे अंदर हर वो चीज़ है, जो मुझे अपने फेमिनिस्ट जॉय तक ले जा सकती है। बस खुद पर विश्वास करना ही सबसे बड़ी चुनौती है।


नोटः लेख में शामिल सारी तस्वीरें आर्यांशी ने उपलब्ध करवाई है।

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