इतिहास दिनेशनंदिनी डालमिया: राजस्थान की मीरा कही जाने वाली लेखिका| #IndianWomenInHistory

दिनेशनंदिनी डालमिया: राजस्थान की मीरा कही जाने वाली लेखिका| #IndianWomenInHistory

दिनेशनंदिनी ‘इंडो-चीन फ्रेंडशिप सोसाइटी’, ‘लेखिका संघ’ और ‘इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्पेरेटिव रिलिजन एंड लिटरेचर (आईसीआरएल)’ की सदस्य भी थीं। बाद में वह आईसीआरएल की प्रेजिडेंट भी बनी। उन्होंने साथियों के साथ मिल कर 2003 में ‘ऋचा’ नाम से एक पत्रिका भी शुरुआत की थी। ऋचा से पहले वे मशहूर हिंदी साहित्य की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में संपादक के रूप में काम किया करती थीं।

दिनेशनंदिनी डालमिया हिंदी साहित्य का एक लोकप्रिय नाम हैं। वह एक लेखिका होने के साथ ही एक नारीवादी भी थीं। उन्होंने अपने साहित्य से हमेशा समाज में महिलाओं की स्थिति पर बात की। महिलाओं के अधिकारों को लेकर सवाल किए। उन्होंने पर्दा प्रथा का विरोध किया और महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे भेदभावों के लिए लड़ाई भी लड़ी। वह राजनीति में भी सक्रिय थीं। वह राजस्थान की पहली महिला थीं जिसने स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की थीं। लोग उन्हें फेमिनिस्ट आइकॉन, राजस्थान की मीरा, सूर्य पुत्री जैसे नामों से पुकारते थे।

दिनेशनंदिनी डालमिया का जन्म 16 फ़रवरी 1928 को राजस्थान के उदयपुर में हुआ था। महज 13 साल की उम्र से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। शुरुआत में दिनेश नंदिनी कविताएं लिखती थीं। बाद में धीरे-धीरे उन्होंने लघु कहानी, कविता और उपन्यास भी लिखना शुरू किया। उन्होंने 11 काव्य संग्रह, 10 उपन्यास, 10 गद्य गीत और चार लघु कहानियां लिखी हैं। उनकी प्रसिद्धि रचना ‘शबनम’, ‘मुझे माफ़ करना’, ‘यह भी झूठ है’ और ‘निराश आशा’ हैं।

दिनेशनंदिनी को उनके रोमांटिक लेखन जो लोगों को मीरा के लिखे कृष्ण प्रेम के गीतों समान लगता था। इसके लिए उन्हें ‘राजस्थान की मीरा’ भी कहा जाता है। उन्होंने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव पर, जीवन में प्रेम, पुरुष-स्त्री सम्बन्ध, पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति और संघर्ष के बारे में लिखती रहीं।

18 साल की उम्र में दिनेशनंदिनी की शादी डालमिया समहू के संस्थापक रामकृष्ण डालमिया से हुई। साल 1946 में शादी होने के बाद दिनेशनंदिनी ने सामाजिक कुरीतियों पर आवाज़ उठाई। शादी के बाद वे पर्दा प्रथा का खूब विरोध किया और समाज में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। समाज में चल रही रूढ़िवादी प्रथाओं के ख़िलाफ़ इन्होंने अपनी रचनाओं में ही नहीं लिखा बल्कि अपने आस-पास के लोगों में सुधार करने की कोशिश भी की। उन्होंने खुद शादी के बाद भी पढ़ना नहीं छोड़ा और नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। उस समय वह ऐसा करने वाली राजस्थान की पहली महिला थीं जिन्होंने स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की हो। 

ऋचा’ पत्रिका की शुरुआत की

दिनेशनंदिनी ‘इंडो-चीन फ्रेंडशिप सोसाइटी’, ‘लेखिका संघ’ और ‘इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्पेरेटिव रिलिजन एंड लिटरेचर (आईसीआरएल)’ की सदस्य भी थीं। बाद में वह आईसीआरएल की प्रेजिडेंट भी बनी। उन्होंने साथियों के साथ मिल कर 2003 में ‘ऋचा’ नाम से एक पत्रिका भी शुरुआत की थी। ऋचा से पहले वे मशहूर हिंदी साहित्य की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में संपादक के रूप में काम किया करती थीं। लोगों ने लेखक के रूप में दिनेशनंदिनी की क्षमता को ‘धर्मयुग’ पत्रिका में काम करते हुए जाना। साल 1981 के विशेषांक ‘सती की घटना’ में दिनेश नंदिनी लिखती हैं, “शिक्षा और कानूनी कार्रवाई के माध्यम से सती प्रथा और सती से जुड़ी अन्य प्रथाओं के प्रति जो आंतरिक भावना है, उसे काफी हद तक रोका जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद भी एक या दो सती के मामले होंगे और लोग सती की पूजा मंदिरों में करते रहेंगे। गाँव की संस्कृति का महिमामंडन देश में सामान्य है। महिमामंडन पर कभी रोक नहीं लगी है और न ही लगाई जा सकती है। मंदिर निर्माण के साथ ही हमारे धार्मिक अधिकारों और स्वतंत्रता के साथ हमारी नागरिकता का सवाल उठता है और इसे आप कैसे रोक सकते हैं?”

तस्वीर साभारः Exotic India Art

दिनेशनंदिनी ने शुरुआत में गद्य-गीत संग्रह लिखना शुरू किया जिसमें ‘शबनम’, ‘मौक्तिमाल’, ‘शारदीया’, ‘दुपहरिया के फूल’, ‘वंशीरव’, ‘उनमन’, ‘स्पन्दन’, ‘शर्वरी’ और ‘चिन्तन’ लिखे थे। फिर बाद में ‘निराश आशा’ से इन्होंने कविताएं लिखना शुरू किया जिसमें इनके कविता-संग्रह ‘सारंग’, ‘मनुहार’, ‘प्रतिच्छाया’, ‘उरवाती’, ‘इति’, ‘जागती हुई रात’ और ‘हिरण्यगर्भा’ शामिल हैं। इन्होंने उपन्यास भी लिखे जिनमें ‘मुझे माफ़ करना’, ‘आहों की बैसाखियां’, ‘कंदी का धुआं’, ‘सूरज डूब गया’, ‘फूल का दर्द’, ‘आँख मिचौली’ और ‘यह भी झूठ है’ लिखा हैं। इन्होंने अपने जीवन काल में 35 रचनाएं रची थीं। इनकी रचना ‘फूल का दर्द’ पर इसी नाम से एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म भी बनाई गई है।

दिनेशनंदिनी को उनके रोमांटिक लेखन जो लोगों को मीरा के लिखे कृष्ण प्रेम के गीतों समान लगता था। इसके लिए उन्हें ‘राजस्थान की मीरा’ भी कहा जाता है। उन्होंने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव पर, जीवन में प्रेम, पुरुष-स्त्री सम्बन्ध, पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति और संघर्ष के बारे में लिखती रहीं। वह लेखिका के साथ एक समाज सुधारक भी थीं जो मुखर होकर सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर अपनी राय जाहिर करती थीं। कांग्रेस की प्रमुख नेता मीरा कुमार उनकी रचनाओं के बारे में कहती हैं “उन्होंने भारत को आज़ाद होते देखा है, जो उनकी साहित्य में भलीभांति दिखता है।”

दिनेशनंदिनी की बेटी नीलिमा डालमिया अधर अपनी किताब ‘फादर डियरेस्ट’ में बतातीं हैं कि उनकी माँ देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बेनाम पत्र लिखा करती थीं। पत्र में नेहरू को वो ‘नीरो’ बुलाती थीं। एक बार नेहरू इनके पत्र के जवाब में लिखते हैं “मैं नहीं जानता तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है, तुम कैसी दिखती हो और मुझे पत्र क्यों लिखती हो! रहस्यमयी व्यक्ति आओ और मुझसे मिलो।” दो साल लगातार पत्र लिखने के बाद एक दिन उन्होंने नेहरू जी से मिलने जाती हैं। कुछ समय बाद जब नेहरू जी को पता चलता है कि दिनेश नंदिनी की राजनीति में रुचि है तो वो मौलाना आज़ाद को पत्र लिख कहते हैं कि वे राजनीति में उन्हें आगे लाने में मदद करें।

पुरस्कार और सम्मान

तस्वीर साभारः Wikimedia Common

दिनेशनंदिनी की पहली रचना ‘शबनम’ के लिए हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से सक्सेरिया पुरस्कार मिला था। 2001 में हिन्दी साहित्य अकादमी ने इन्हें महिला सशक्तिकरण पुरस्कार से सम्मानित किया। उनके साहित्यिक काम के लिए उन्हें मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार और प्रेमचन्द पुरस्कार से भी नवाज़ा गया था। भारत सरकार ने उनके हिंदी साहित्य में योगदान के लिए 2006 में ‘पद्मा भूषण’ भी दिया था। साल 2009 में इनके सम्मान में इंडिया पोस्ट ने एक डाक टिकट भी जारी किया था। दिल्ली सरकार ने इनके सम्मान में तिलक मार्ग पर मौज़ूद डब्ल्यू मार्किट को दिनेशनंदिनी डालमिया चौक का नाम दे दिया था। साल 2005 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ने इन्हें डॉक्टर की उपाधि भी दी थी।

दिनेशनंदिनी ने शुरुआत में गद्य-गीत संग्रह लिखना शुरू किया जिसमें ‘शबनम’, ‘मौक्तिमाल’, ‘शारदीया’, ‘दुपहरिया के फूल’, ‘वंशीरव’, ‘उनमन’, ‘स्पन्दन’, ‘शर्वरी’ और ‘चिन्तन’ लिखे थे। फिर बाद में ‘निराश आशा’ से इन्होंने कविताएं लिखना शुरू किया जिसमें इनके कविता-संग्रह ‘सारंग’, ‘मनुहार’, ‘प्रतिच्छाया’, ‘उरवाती’, ‘इति’, ‘जागती हुई रात’ और ‘हिरण्यगर्भा’ शामिल हैं।

दिनेशनंदिनी डालमिया को जानने वाले लोग उन्हें ‘फेमिनिस्ट आइकॉन’ के नाम से जानते हैं। वे अपने जीवन के अंत यानी 79 वर्ष की आयु तक हिन्दी साहित्य से जुड़ी रहीं। साल 2007 में इनकी मृत्यु से पहले ‘मंत्रपुरुष और अन्य कहानियां’ नाम से इनकी अंतिम रचना प्रकाशित हुई। 25 अक्टूबर 2007 में इन्होंने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वह अपनी मृत्यु के आखिरी समय तक अपनी पत्रिका ‘ऋचा’ में लिखती रही।


सोर्सः

  1. The Print
  2. Scroll.in
  3. Telegraph India

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