हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा कि बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) को किसी भी व्यक्तिगत कानून द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है। इस फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बचपन में किया गया विवाह बच्चों की अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन करता है, और यह उनके अधिकारों और स्वतंत्रता को बाधित करता है। भारत में बाल विवाह को रोकने के लिए 2006 में बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य बाल विवाह रोकना है। इस अधिनियम के तहत, 18 वर्ष से कम उम्र की महिला और 21 वर्ष से कम उम्र के पुरुष का विवाह अपराध माना जाता है। हालांकि भारत में धार्मिक विविधता होने के कारण विभिन्न धर्मों के अपने व्यक्तिगत कानून हैं जो बाल विवाह पर प्रभाव डालते हैं। जैसेकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ में, जो असंहिताबद्ध है, में 15 वर्ष की उम्र में पहुंच चुके बच्चों का विवाह कानूनी रूप से मान्य माना जाता है।
यह स्थिति पीसीएमए के उद्देश्यों को प्रभावित करती है, जिससे बाल विवाह की घटनाएं बढ़ती हैं। इस मुद्दे पर ग़ौर करते हुए पीठ ने कहा कि अलग-अलग समुदायों के नियमों के अनुसार अलग-अलग रोकथाम की रणनीति बनाई जानी चाहिए। कानून तभी सफल होगा जब सभी क्षेत्रों में मिलकर काम किया जाएगा। इसके लिए कानून लागू करने वाले अधिकारियों को प्रशिक्षित करने और उनके कौशल को बढ़ाने की जरूरत है। पीठ ने बचपन में ही विवाह के रिश्ते जोड़ देने या सगाई कर देने वाली बात पर रौशनी डालते हुए कहा कि भारत में अभी भी नाबालिगों की सगाई के बारे में जागरूकता नहीं है। हालांकि 1977 में ही सीईडीएडब्ल्यू (महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव के उन्मूलन संबंधी संधि) ने इस समस्या को रेखांकित किया था।
बचपन में शादी तय करना मानवाधिकारों का उल्लंघन
न्यायालय ने पीसीएमए के तहत पर्सनल लॉ और बाल विवाह निषेध के बीच इंटरफेस पर भी विचार किया। यह कहते हुए कि केंद्र सरकार ने फैसला सुरक्षित रखे जाने के बाद प्रस्तुत एक नोट में न्यायालय से अनुरोध किया था कि वह निर्देश दे कि पीसीएमए पर्सनल लॉ पर हावी हो, इसने नोट किया कि बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक 2021, जो पीसीएमए में संशोधन करके स्पष्ट रूप से यह बताना चाहता है कि यह विभिन्न पर्सनल लॉ पर हावी होगा, 21 दिसंबर, 2021 को संसद में पेश किया गया था और एक स्थायी समिति को भेजा गया था। बाल विवाह निषेध कानून की खामियां पर गौर करते हुए पीठ ने कहा बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 को बाल विवाह को रोकने और समाज से उनके उन्मूलन को सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया था। इस अधिनियम ने 1929 के बाल विवाह निरोधक अधिनियम की जगह ली है।
पीठ ने पीसीएमए के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए कई दिशा-निर्देश भी जारी किए। उन्होंने कहा कि इस तरह की शादियां नाबालिगों के अपने जीवन साथी चुनने की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन है। इसलिए अधिकारियों को बाल विवाह के रोकथाम और नाबालिगों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, और अंतिम उपाय के रूप में अपराधियों को सज़ा देनी चाहिए। पीसीएमए के लागू होने के अठारह साल बाद भी, लगातार बड़े पैमाने पर हो रहे बाल विवाह के मामले को उजागर करने वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए, मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने 141 पन्नों का ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि पीसीएमए को किसी भी पर्सनल लॉ द्वारा निष्क्रिय नहीं किया जा सकता। देश में बाल विवाह की व्यापकता पर चिंता व्यक्त करते हुए अदालत ने इस फैसले के माध्यम से बाल विवाह रोकथाम कानून की मजबूती को फिर से रेखांकित किया।
क्या बताते हैं बाल विवाह के आंकड़े
बाल विवाह के आंकड़ों की बात करें, तो हाल ही में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने एक रिपोर्ट जारी किया है जिसमें बताया गया कि 27 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में 11.5 लाख से अधिक बच्चे, जिनमें अधिकांश लड़कियां हैं, बाल विवाह के खतरे में हैं। आयोग ने कहा कि असुरक्षित पाए गए बच्चों में से कईयों ने स्कूल छोड़ दिया है। कुछ अनियमित रूप से स्कूल आते हैं या लंबे समय तक अनुपस्थित रहते हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 200 मिलियन से अधिक महिलाओं की शादी बचपन में ही कर दी जाती है।
वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 640 मिलियन है, जिसमें से एक तिहाई मामले अकेले भारत में होते हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 25 साल पहले चार में से एक लड़की की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो जाती थी, जबकि अब यह आंकड़ा पांच में से एक हो गया है। इस सुधार ने पिछली तिमाही सदी में लगभग 68 मिलियन बाल विवाहों को रोका है। इन प्रगति के बावजूद, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया लैंगिक समानता के मामले में काफी पीछे है। महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा और हजारों महिलाओं के लिए यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में उनकी स्वायत्तता की कमी जैसे मुद्दे अभी भी बने हुए हैं।
दुनिया की तीन में से एक बाल वधु भारत में
साल 2023 में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में पाया गया कि दुनिया की तीन में से एक बाल वधु भारत में रहती है। हालांकि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के एक अनुमान के अनुसार, 2024 में भारत में महिलाओं की आबादी 65 करोड़ से ज़्यादा होगी। डेक्कन हेराल्ड की रिपोर्ट अनुसार इन आंकड़ों और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए, लगभग 21.6 करोड़ भारतीय महिलाओं की शादी बचपन में ही हो गई थी। बाल विवाह बच्चे के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है। इस तरह के विवाह में सारे फ़ैसले घर के बड़े-बुज़ुर्ग ही लेते हैं, जो बच्चों को स्वतंत्र रूप से अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार को छीन लेता है। ऐसी शादी के बाद उन बच्चों को कई तरह के शारीरिक और मानसिक दबाव को झेलना पड़ता है। इस मुद्दे को चिन्हित करते हुए सर्वोच्च न्ययालय ने कहा कि बाल विवाह ख़ासतौर से नाबालिग लड़कियों के लिए सीधे तौर पर ख़तरा पैदा करती है। बाल विवाह नाबालिग लड़कियों के यौन शोषण की संभावना को बढ़ाता है। यह उन्हें ऐसी स्थिति में डाल देता है जहां उनका आसानी से शोषण हो सकता है, जबकि भारत में बच्चों से जुड़े क़ानून पोक्सो अधिनियम का उद्देश्य बच्चों को यौन हिंसा से बचाना है।
क्या टिप्पणी की न्यायालय ने
न्यायालय ने माना कि बचपन में विवाह होने से बच्चे को एक वस्तु के रूप में देखा जाता है। उन पर उम्रदराज व्यक्तियों की जिम्मेदारियां डाल दी जाती हैं। अमूमन नाबालिगों से उम्मीद की जाती है कि वे शादी के बाद बच्चे पैदा करें और अपनी प्रजनन क्षमता साबित करें। फ़ैसले में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि बाल विवाह के कारण लोगों को अपनी यौन इच्छाओं का खुलकर अनुभव करने का मौका नहीं मिलता। उन्हें परंपरा के नाम पर अपनी पसंद को चुनने का अधिकार नहीं दिया जाता। इससे उनके यौन अधिकारों का दमन होता है। यानी, वे अपनी मर्जी से जीने का हक खो देते हैं। ऐसा पहली बार है जब अदालत ने इस बात पर रोशनी डाला कि बाल विवाह के चपेट में लड़के भी आते हैं। फैसले में कहा गया कि पितृसत्तात्मक मानसिकता और पुरुष प्रधान धारणाओं वाली ग़लत सूचनाएं इन बच्चों को अपनी बाल वधुओं के खिलाफ हिंसा करने के लिए उकसाती हैं। पीठ ने कहा कि निश्चित रूप से लड़कियां बाल विवाह से अधिक प्रभावित होती हैं, लेकिन हमें उन लड़कों की देखभाल भी करनी चाहिए जो बचपन में ही शादी के लिए मजबूर किए जाते हैं। बचपन पर सब का अधिकार है।
अदालत ने इस फैसले के साथ बाल विवाह रोकथाम के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए कई दिशा-निर्देश भी जारी किए। इनमें स्कूलों में बच्चों के लिए सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त यौन शिक्षा देना, खुले में शौच मुक्त गांव की तर्ज पर बाल विवाह मुक्त गांव अभियान शुरू करना, गृह मंत्रालय द्वारा बाल विवाह की ऑनलाइन रिपोर्टिंग के लिए एक पोर्टल बनाना, और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को बाल विवाह से बचने वाली लड़कियों के लिए मुआवज़ा योजना शुरू करने का सुझाव दिया गया है। ये कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय का ये ऐतिहासिक फैसला न केवल बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए एक ठोस कदम है बल्कि भारत में धार्मिक विविधता के चलते बने व्यक्तिगत कानूनों की जटिलता को देखते हुए बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए एक संकल्पबद्ध प्रयास को भी मजबूती से रेखांकित करता है।