साल 2014 के ऐतिहासिक NALSA फैसले को 10 साल हो चुके हैं, जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध कराने का निर्देश दिया था। लेकिन, आज भी ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए शौचालय का चुनाव एक गंभीर समस्या है। समाज में जेंडर की बाइनरी व्यवस्था के कारण उन्हें यह निर्णय लेने में असमंजस का सामना करना पड़ता है कि वे किस शौचालय का उपयोग करें—महिलाओं या पुरुषों का। अक्सर उन्हें अपने लैंगिक पहचान के आधार पर शौचालय चुनने पर अस्वीकार, उत्पीड़न और शोषण का सामना करना पड़ता है। यह अनुभव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालता है। ऐसे शोषण से जुड़े अनुभव न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर भी लंबे समय के लिए नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, जो आत्मविश्वास में कमी और भय उत्पन्न करते हैं।
रोजमर्रा की जिंदगी में शोषण का सामना
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जेंडर बाइनरी के नियमों से परे अपनी पहचान स्थापित करना भी ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है। उनके लिए रोजमर्रा की जिंदगी में सामाजिक और मानसिक शोषण का सामना करना आम है। यह शोषण सिर्फ शारीरिक स्पर्श और यौन हिंसा तक सीमित नहीं होता, बल्कि इसमें व्यंग्य, मजाक, सवाल और इशारे शामिल होते हैं। कई ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की शोषण की कहानियां उस समय से संबंधित हैं जब वे अपनी पहचान स्थापित कर चुके होते हैं। पहचान बनाने के संघर्ष के दौरान वे कई मानसिक संघर्षों से गुजरते हैं, और ऐसे में समाज की नकारात्मक प्रतिक्रियाएं उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं।
इस प्रकार के अनुभव ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के जीवन में बार-बार आते हैं, और समाज का मजाक उड़ाने वाला दृष्टिकोण उनके आत्म-सम्मान को प्रभावित करता है। यह जरूरी है कि ऐसे व्यक्तियों को सभी के अधिकार और सुरक्षा के प्रति जागरूक किया जाए, ताकि ट्रांस या क्वीयर समुदाय के लोग बिना किसी डर के अपनी पहचान के साथ जी सकें।
शौचालय न इस्तेमाल कर पाने से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव
साल 2017 में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने दिशानिर्देश जारी किए थे, जिसमें कहा गया था कि ‘ट्रांस जेंडर’ लोगों को अपनी पसंद के सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए, चाहे वे ‘पुरुष’ हों या ‘महिला’ या ‘अन्य’। लेकिन देश में आज भी जमीनी हकीकत कुछ और है। साल 2015 में अमेरिकी सर्वेक्षण यू. एस ट्रांसजेंडर सर्वे के अनुसार, 59 फीसद ट्रांसजेंडर व्यक्तियों ने बताया कि वे सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करने से हिचकिचाते हैं क्योंकि उन्हें हिंसा या भेदभाव का डर होता है। 12 फीसद ने कहा कि उन्हें शौचालय से बाहर निकलने के लिए मजबूर किया गया, जबकि 9 फीसद ने शौचालय में उत्पीड़न या शारीरिक हिंसा का सामना किया। 32 फीसद ट्रांसजेंडर लोग सार्वजनिक स्थानों पर शौचालय का उपयोग करने से बचने का प्रयास करते हैं। कई शोध के अनुसार, जो व्यक्ति लंबे समय तक शौचालय के उपयोग से बचते हैं, उनमें यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन (यूटीआई) का खतरा बढ़ जाता है, क्योंकि इससे बैक्टीरिया का विकास होता है।
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जेंडर न्यूट्रल शौचालयों पर दिल्ली में रहने वाली ट्रांसवूमेन साक्षी अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “मेरा यूनिवर्सिटी का पहला साल था, और मुझे शौचालय को लेकर कई मुश्किलें झेलनी पड़ीं। शुरू में मुझे यह समझने में कठिनाई हुई कि मैं किस शौचालय का उपयोग करूं। इस असमंजस के कारण मैंने शौचालय का उपयोग करने से बचना शुरू कर दिया। नतीजन मुझे यूटीआई जैसी स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। मेरी राय में स्कूलों, विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक स्थानों पर जेंडर न्यूट्रल शौचालय की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि सभी व्यक्तियों को समान स्वास्थ्य अधिकार और सुरक्षा मिल सके।”
मेरा यूनिवर्सिटी का पहला साल था, और मुझे शौचालय को लेकर कई मुश्किलें झेलनी पड़ीं। शुरू में मुझे यह समझने में कठिनाई हुई कि मैं किस शौचालय का उपयोग करूं। इस असमंजस के कारण मैंने शौचालय का उपयोग करने से बचना शुरू कर दिया।
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए शौचालय के न होने से चुनौतियां
साक्षी ने अपने कॉलेज के दिनों में आई एक और चुनौती का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि ग्रेजुएशन के पहले वर्ष में उन्हें अपने लैंगिक पहचान को लेकर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। उनके कुछ सीनियर्स उन्हें शारीरिक रूप से यौन हिंसा करने का प्रयास करते थे, जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ा। उन्होंने जब इसकी शिकायत की, तो उन्हें धमकियां भी दी गईं। इन घटनाओं ने उन्हें असुरक्षित महसूस कराया, और यह अनुभव उन्हें कई दिनों तक मानसिक रूप से कमजोर करता रहा। साक्षी कहती हैं, “इस प्रकार के अनुभव ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के जीवन में बार-बार आते हैं, और समाज का मजाक उड़ाने वाला दृष्टिकोण उनके आत्म-सम्मान को प्रभावित करता है। यह जरूरी है कि ऐसे व्यक्तियों को सभी के अधिकार और सुरक्षा के प्रति जागरूक किया जाए, ताकि ट्रांस या क्वीयर समुदाय के लोग बिना किसी डर के अपनी पहचान के साथ जी सकें।”
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मैं अपनी निजी अनुभव की बात करूँ, तो मेरे स्कूल के दौरान कभी भी शौचालय संबंधित समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन जब मैं अपने ग्रेजुएशन में कॉलेज में एडमिशन लिया तो वहां पर दो अलग-अलग शौचालय थे। इसमें सबसे बड़ी दिक्कत मेरे लिए यह थी कि मैं पुरुष शौचालय में जाना नहीं चाहती हूं क्योंकि मुझे असहज महसूस होता है और महिला के शौचालय में जा नहीं सकती। जब इस मसले पर मैंने अपने मित्रों से चर्चा की तो उसमें से कुछ लड़कों का प्रश्न था कि मैं खड़े होकर शौच क्रिया करती हूं या बैठकर। किसी के गंभीर व्यक्तिगत परेशानी पर जब आप प्रश्न बनाते हैं तो सामने वाले व्यक्ति के लिए एक निराशा की स्थिति को जन्म देता हैं।
जब मैं अपने ग्रेजुएशन में कॉलेज में एडमिशन लिया तो वहां पर दो अलग-अलग शौचालय थे। इसमें सबसे बड़ी दिक्कत मेरे लिए यह थी कि मैं पुरुष शौचालय में जाना नहीं चाहती हूं क्योंकि मुझे असहज महसूस होता है और महिला के शौचालय में जा नहीं सकती।
हमारी समस्याएं और शोषण समाज में हमेशा मजाक का विषय बन जाता है। हम उम्मीद समाधान और शालीनता की करते हैं लेकिन अमूमन हमें संघर्ष मिलता हैं। चाहे हम जितना भी समान अधिकार की बात कर ले, जब तक जमीनी स्तर के समस्या पर काम नहीं करेंगे, तब तक समानता अधूरी रहेगी। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए स्कूलों, कॉलेजों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर जेंडर-न्यूट्रल शौचालय की व्यवस्था करना बेहद आवश्यक है। इसके अलावा, सीसीटीवी कैमरे और सिक्योरिटी गार्ड की उपस्थिति भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। इन संस्थानों में हिंसा और शोषण की शिकायतों के त्वरित निवारण के लिए विशेष सेल का गठन भी होना चाहिए। इससे हम जैसे लोगों के लिए एक सुरक्षित और समावेशी वातावरण का निर्माण हो सकेगा।
साल 2017 में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने दिशानिर्देश जारी किए थे, जिसमें कहा गया था कि ‘ट्रांस जेंडर’ लोगों को अपनी पसंद के सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए, चाहे वे ‘पुरुष’ हों या ‘महिला’ या ‘अन्य’।
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए शौचालय एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है, जो न केवल उनके स्वास्थ्य बल्कि उनके मानसिक और सामाजिक जीवन पर भी असर डालता है। एक सुरक्षित और सम्मानजनक वातावरण में सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग करने का अधिकार सभी का होना चाहिए। समाज को इस दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि हर व्यक्ति को एक समान और समावेशी समाज में रहने का अवसर मिले। जागरूकता अभियानों के माध्यम से इस मुद्दे पर संवेदनशीलता बढ़ाई जा सकती है। पोस्टर, वीडियो और अन्य माध्यमों से प्रचार-प्रसार करके एक समावेशी वातावरण का निर्माण किया जा सकता है।