दुनिया ने कितनी भी तरक्की कर ली हो, महिलाओं के लिए स्थिति लगभग वैसी ही है। इसमें भी भारतीय समाज आज भी पितृसत्तात्मक ढांचे से संचालित होता है। देश को आज़ादी मिले दशकों बीतने के बावजूद आज भी महिलाओं को कदम-कदम पर ग़ैरबराबरी और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश में रहते हुए मेरा अपना अनुभव भी इससे कुछ ज़्यादा अलग नहीं रहा। हालांकि, घर का माहौल तुलनात्मक रूप से बेहतर था, लेकिन यह तुलनात्मक शब्द ही स्थिति को बयां करने के लिए काफ़ी है।
आस-पास की पितृसत्तात्मक चुनौतियां
विचारशील होने के नाते बचपन से ही असमानता, भेदभाव, जेंडर रोल जैसी चीजें अखरती थीं। शुरुआत से ही लड़कों और लड़कियों की परवरिश में भेदभाव परेशान करता। लेकिन इन सबके बावजूद उतना मुखर विरोध नहीं कर पाती। कहीं न कहीं विचारों में उतनी दृढ़ता नहीं आ पाई थी। इसकी भी जायज़ वज़हें थीं। उन दिनों जानकारी पाने का एकमात्र स्रोत प्रिंट मीडिया यानी पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें थीं, जोकि ग्रामीण परिवेश के साधारण जगह से ताल्लुक रखने के कारण आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते थे। लाइब्रेरी तब सपने की बात लगती और जो गिनी-चुनी किताबों की दुकानें थीं, वहां भी अधिकतर अकादमिक विषयों से संबंधित किताबें होती थीं। इन सबके अलावा आस-पास का माहौल पूरी तरह से पितृसत्ता पर आधारित था। अफ़सोस की बात है कि अब भी स्थितियां ज़्यादा बदली नहीं हैं।
सोशल कंडीशनिंग इतनी ज़्यादा असरदार थी कि कभी-कभी अपने ख़ुद के समानतावादी विचारों पर भी संदेह होने लगता। उस समय फेमिनिज़म के बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं था पर किशोर होने तक समानता और सामाजिक न्याय की अवधारणा पूरी तरह से विकसित हो चुकी थी। इसके अलावा पितृसत्ता और जेंडर डिस्क्रिमिनेशन के बीच के अंतर्संबंध की समझ विकसित हो चुकी थी। बचपन से ही उपलब्ध संसाधनों की उपलब्धता में जेंडर की भूमिका प्रभावी रूप से दिखती। लड़कों को अच्छे स्कूल, खान-पान से लेकर भौतिक सुविधाएं जैसे साइकिल, बाइक, मोबाइल फोन प्राथमिकता के तौर पर मुहैया कराई जातीं। वहीं लड़कियों के हिस्से आता- घर का काम और चारदीवारी। आज भी लड़के और लड़कियों के बीच कर्तव्य और अधिकारों को इस तरह से बांटा जाता है कि लड़कों के हिस्से में अधिकार और लड़कियों के हिस्से में कर्तव्य आते हैं। यह सारा भेदभाव परंपरा और संस्कार के नाम पर इस तरह से जस्टिफाई किया जाता है कि लड़कियां उसी में संतोष ढूंढने लगती हैं। आख़िर क्रांति या बदलाव लाना सबके लिए कहां संभव होता है?
आज भी लड़के और लड़कियों के बीच कर्तव्य और अधिकारों को इस तरह से बांटा जाता है कि लड़कों के हिस्से में अधिकार और लड़कियों के हिस्से में कर्तव्य आते हैं। यह सारा भेदभाव परंपरा और संस्कार के नाम पर इस तरह से जस्टिफाई किया जाता है कि लड़कियां उसी में संतोष ढूंढने लगती हैं। आख़िर क्रांति या बदलाव लाना सबके लिए कहां संभव होता है?
सोशल कंडीशनिंग
बचपन से सुनते आ रहे हैं कि अच्छी लड़कियां घर में रहती हैं, घुमक्कड़ी नहीं करतीं। अच्छी लड़कियां धीरे बोलती हैं। अच्छी लड़कियां अपने काम से काम रखती हैं। अच्छी लड़कियां पढ़ाई और घर के काम पर फ़ोकस करती हैं। अच्छी लड़कियों में त्याग, सेवा और संतोष कूट-कूट कर भरा होता है। ऐसी बातें बचपन से ही इस तरह से दोहराई जाती हैं कि उन पर सवाल खड़ा करने का साहस बहुत मुश्किल से आ पाता है। घर-परिवार, रिश्तेदार, पड़ोस समाज में हर जगह यही चीज़ देखकर इसे अपनी नियति मान लेना कितना आसान है न! लेकिन जब एक बार पितृसत्ता का षड्यंत्र समझ में आ जाता है तो उसपर अमल करना नामुमकिन सा लगने लगता है।
सोशल कंडीशनिंग ने सीधे तौर पर तो मुझे ज़्यादा प्रभावित नहीं किया था लेकिन उसका असर कहीं न कहीं मेरे स्वभाव में बरकरार था। किशोरावस्था तक आते-आते किताब पढ़ने की आदत ने पितृसत्ता से संबंधित बहुत सारे पहलुओं से रूबरू करवा दिया था। इसमें महादेवी वर्मा की किताब शृंखला की कड़ियां सबसे पहले याद आती है। साथ ही धर्म और पितृसत्ता का गठजोड़ भी काफ़ी हद तक समझ आ चुका था। इसके अलावा विचारशील होने की वजह से परिस्थितियों और घटनाओं के विश्लेषण ने मन पर काफ़ी असर डाला था। इन सब का नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे करके स्त्री-विरोधी रूढ़िवादी परंपराओं और रीति-रिवाज़ों से विचलन बढ़ता गया। इस तरह अपने सिद्धांत और मूल्य विकसित हुए जिस पर धीरे-धीरे मैंने अमल करना शुरू कर दिया।
किशोरावस्था तक आते-आते किताब पढ़ने की आदत ने पितृसत्ता से संबंधित बहुत सारे पहलुओं से रूबरू करवा दिया था। इसमें महादेवी वर्मा की किताब शृंखला की कड़ियां सबसे पहले याद आती है। साथ ही धर्म और पितृसत्ता का गठजोड़ भी काफ़ी हद तक समझ आ चुका था।
मेरा फेमिनिस्ट जॉय
जानकारी की उपलब्धता और जागरुकता बढ़ने से जब फेमिनिज़म का कॉन्सेप्ट समझ आया और इसकी प्रासंगिकता को महसूस किया, तब से धीरे-धीरे इसे व्यवहार में लाना शुरू कर दिया। इसके साथ ही सोशल मीडिया ने काफ़ी अहम भूमिका निभाई जिसने एक जैसी विचारधारा वाले लोगों को जुड़ने के लिए एक मंच प्रदान किया। अपने जैसे लोगों से जुड़कर विचारों में तो दृढ़ता आई ही, इसके साथ ही अमल करने के लिए बहुत सारे रास्ते और तरीके भी समझ आने लगे। इससे सबसे पहले तो समाज द्वारा बनाए गए मानकों पर खरा उतरने का दबाव ख़त्म हुआ। इससे नई-नई जानकारियां मिली और अनुभव का दायरा भी विस्तृत होने लगा। समाज द्वारा सदियों से चली आ रही स्त्रीद्वेषी कुरीतियों और प्रथाओं का बहिष्कार करने की हिम्मत आई।
घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी न लेने पर होने वाले अपराधबोध की भावना दूर हुई। इसके अलावा बाहर घूमना-फिरना, अपने जैसे लोगों से जुड़ना अच्छा लगने लगा। आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरणा मिली और आत्मविश्वास में भी बढ़ोतरी हुई। ख़ुद जागरुक होने के साथ ही लोगों को जागरुक करना, अपनी ज़िम्मेदारी लगने लगी। भेदभाव और अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ज़रूरी लगने लगा। बाहर निकलने, आत्मनिर्भर बनने और अपने जैसे लोगों से जुड़ने के साथ ही जीवन को एक दिशा मिली और सार्थकता का एहसास हुआ। अपनी मर्ज़ी से रहने, खाने-पीने, पहनने, घूमने-फिरने की आज़ादी हासिल करना एक नागरिक के तौर पर सशक्त महसूस कराता है। एक फेमिनिस्ट होने के नाते समाज में बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि हमारा पितृसत्तात्मक समाज हमें आसानी से स्वीकार नहीं करता है। परिवार-विरोधी, समाज-विरोधी जैसे तमगे मिलने के बावजूद ये ज़िंदगी बहुत सुकूनदेह लगती है।
घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी न लेने पर होने वाले अपराधबोध की भावना दूर हुई। इसके अलावा बाहर घूमना-फिरना, अपने जैसे लोगों से जुड़ना अच्छा लगने लगा। आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरणा मिली और आत्मविश्वास में भी बढ़ोतरी हुई।
फेमिनिस्ट होना न सिर्फ़ महिला अधिकारों की बात करना है बल्कि पुरुषों को भी पितृसत्ता के ख़तरों से आगाह करना और बचाना है। इसमें नॉन-बाइनरी और दूसरे जेंडर और यौनिकता के व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों और गरिमापूर्ण जीवन की भी बात की जाती है। इस तरह फेमिनिस्ट होने से संवेदनशीलता, समावेशिता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना भी विकसित हुई जो कि मानवता का आधार है। इससे मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से सेहतमंद रहने में मदद मिलती है। अपनी विचारधारा बनाना, पहचान बनाना और उस पर अमल कर ज़िंदगी जीना कहने के लिए तो सबका अधिकार है। लेकिन ऐसे समाज में जहां हाशिए के समुदाय का अपने अधिकारों की बात करना भी मुश्किल हो, वहां इसे हासिल करना वास्तव में सशक्त होने का एहसास कराता है।