हाल ही में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. आर.वी. अशोकन ने जन्म से पहले लिंग की पहचान से जुड़े निर्धारण परीक्षणों को वैध करने के लिए एक बार फिर से बात रखी है। भारत में साल 1994 में लागू किए गए गर्भाधान पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम यानी प्री- कंसेप्शन और प्री-नेटर डायग्नोसटिक टेक्नीक (पीसी-पीएनडीटी) ऐक्ट के तहत जन्म से पहले लिंग निर्धारण और लिंग आधारित अबॉर्शन अवैध है। यह कानून महिला भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाने और देश में लिंग अनुपात को सुधारने के उद्देश्य से बनाया गया था। भारत में घटते लिंग अनुपात को नियंत्रित किया जा सके तब इस कानून को पारित किया गया था। इसे ऐसे समय में पेश किया गया था जब अल्ट्रासाउंड तकनीकों का इस्तेमाल लिंग की पहचान के लिए बड़े स्तर पर हो रहा था।
इकोनॉमिक्स टाइम्स में छपी जानकारी के अनुसार डॉ. अशोकन का कहना है कि लिंग निर्धारण परीक्षण यानी सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट पर कानूनी रोक ने महिला भ्रूण हत्या को तो रोक दिया है लेकिन शिशु हत्या को नहीं। उनका तर्क है कि एक सामाजिक बुराई का हमेशा एक चिकित्सा समाधान नहीं हो सकता। इसके बजाय, कुछ प्रावधान डॉक्टरों को गलत तरीके से परेशान कर रहे हैं और इस कानून में संशोधन की आवश्यकता है। डॉ. अशोकन ने इस कानून की प्रभावशीलता पर संदेह जताया। गोवा हमें आईएमए के एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा है, 30 साल बाद इस कानून का क्या परिणाम निकला है? क्या इसने लिंग अनुपात को बदल दिया है? कहीं-कहीं हो सकता है कि इसका असर पड़ा हो। उन्होंने जोर देते हुए कहा है कि चुनौतियां अभी भी बरकरार है। उन्होंने कहा है कि लिंग निर्धारण को वैध करना अजन्मी लड़कियों को सुरक्षित रखने के लिए बेहतर साबित हो सकता है ताकि उनके पूरे समय तक जन्म सुनिश्चित किया जा सके।
डॉ. अशोकन ने मौजूदा प्री-कंसेप्शन और प्री-नेटर डायग्नोसटिक टेक्नीक (पीसी-पीएनडीटी) ऐक्ट को सुधारने के लिए एक दस्तावेज पर काम कर चुके हैं। उनका कहना है कि लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध और फिर डॉक्टर को दंडित करना एक असंतुलित दृष्टिकोण है। उन्होंने आगे कहा है, “यह एक बड़ी विफलता है और इसके सकारात्मक परिणाम नहीं दिखे हैं। इसके बजाय, इसने प्रसूति विशेषज्ञों, रेडियोलॉजिस्टों और यहां तक कि कार्डियोलॉजिस्टों को भी परेशान किया है।” उनका कहना है, “यह पहला मौका नहीं है जब मैंने इस मुद्दे पर बात की है। हम चाहते हैं कि सरकार इस कानून पर पुनर्विचार करे क्योंकि यह डॉक्टरों को एक सामाजिक बुराई के लिए कठघरे में खड़ा कर रहा है।”
डॉ. अशोकन ने कहा है, “आईएमए की केंद्रीय कार्यसमिति लिंग निर्धारण और बाल संरक्षण की वकालत कर रही है। हम लिंग निर्धारण और (अजन्मे) बच्चे की सुरक्षा की मांग कर रहे हैं। बच्चे को टैग करें जिससे उस बच्चे को प्रसव तक ले जाएं। यदि कुछ अनुचित होता है, तो जिम्मेदार लोगों को उत्तरदायी ठहराया जाए। यह संभव है क्योंकि प्रौद्योगिकी उपलब्ध है। इसके अलावा मौजूदा प्रतिबंध की आलोचना करते हुए कहा कि यह अल्ट्रासाउंड मशीनों और चिकित्सा पेशेवरों को अनुचित रूप से निशाना बनाता है, जिससे स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में अनावश्यक चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं।
क्यों डॉक्टर शिकायत कर रहे हैं?
इंडियन एक्सप्रेस में छपी जानकारी के अनुसार डॉ. अशोकन का कहना है, “यह मान लेना कि सभी डॉक्टर जीवन-विरोधी हैं, पूरी तरह गलत है। आईएमए अधिनियम में कुछ नियमों से नाराज़ है, खासकर उन मामलों में जहां तकनीकी कमियों या फॉर्म भरने में गलतियों के लिए डॉक्टरों को दोषी ठहराया जा रहा है।” कानून के अनुसार, अल्ट्रासाउंड केंद्रों, जेनेटिक लैबों और क्लीनिकों को सभी रिकॉर्ड रखना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए, नियम कहता है कि मशीनों को एक कमरे से दूसरे कमरे में भी नहीं ले जाया जा सकता। वह आगे बताते हैं, “इसके अलावा, फॉर्म एफ न भरना महिला भ्रूण हत्या के बराबर समझा जाता है।” पीसी-पीएनडीटी अधिनियम के तहत फॉर्म एफ गर्भवती महिला का चिकित्सा इतिहास और अल्ट्रासाउंड कराने का कारण दर्ज करता है। वर्तमान कानून के अनुसार, डॉक्टर अगर फॉर्म एफ सही से नहीं भरते हैं तो उन्हें वैसा ही दंड मिलता है जैसा कि लिंग निर्धारण परीक्षण करने वाले को मिलता है।
पूर्व में भी कानून पर बहस
भारत में लिंग निर्धारण परीक्षण को वैध करने की मांग पहले भी उठ चुकी है। फस्टपोस्ट.कॉम में छपी जानकारी के मुताबिक़ साल 2016 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने इस विषय पर बड़ी बहस छेड़ दी थी। उन्होंने सुझाव दिया था कि महिला को अनिवार्य रूप से यह बताया जाना चाहिए कि उसका होने वाला बच्चा एक लड़का है या लड़की। लिंग निर्धारण परीक्षणों के सुझाव को कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों ने कड़ी आलोचना भी की है।
वहीं विशेषज्ञ जन्मपूर्व लिंग निर्धारण का विरोध करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इससे महिला भ्रूण हत्या में वृद्धि होगी। उनका यह भी कहना है कि अनिवार्य लिंग निर्धारण जैसी योजनाएं महिलाओं को असुरक्षित अबॉर्शन की ओर धकेलेंगी। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर परिवार को जल्दी ही पता चल जाता है कि महिला का दूसरा या तीसरा बच्चा लड़की है, तो उस पर परिवार का दबाव और बढ़ जाएगा।
लिंग निर्धारण के पक्ष में तर्क
भारत में जो लोग जन्म से पहले लिंग निर्धारण को वैध करने के पक्ष में हैं, उनका तर्क है कि इससे महिला भ्रूण हत्या को नियंत्रित करने में मदद मिल सकती है। 2016 में हिंदुस्तान टाइम्स से बात करते हुए भारतीय रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हर्ष महाजन ने कहना है कि लिंग अनुपात में गिरावट एक चिंता का विषय है, लेकिन रेडियोलॉजिस्टों का मुकदमा करना समाधान नहीं है। अधिक रचनात्मक समाधानों की आवश्यकता है, जैसे कि अबॉर्शन से एक दिन पहले किया गया अल्ट्रासाउंड यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि अबॉर्शन के लिए चिकित्सा आवश्यकता थी या नहीं।
डॉ. महाजन का आगे कहना है कि फैसले के 11-12 सप्ताह में भ्रूण का लिंग निर्धारित किया जा सकता है और भारत में 90 प्रतिशत से अधिक अबॉर्शन दूसरे त्रिमास (ट्रमेस्टर) में किए जाते हैं, लेकिन इन्हें पहले तीन महीने के समय (12 सप्ताह से पहले) के रूप में दर्ज किया जाता है। अबॉशन से पहले का अल्ट्रासाउंड रिकॉर्ड यह निर्धारित करने में मदद करेगा कि अबॉर्शन लिंग-चयन आधारित है या नहीं। इससे अलग विशेषज्ञों का कहना है कि समस्या पीसी-पीएनडीटी ऐक्ट में नहीं, बल्कि इसके कार्यान्वयन में है। उनका कहना है कि अल्ट्रासाउंड क्लीनिकों की उचित निगरानी नहीं की जाती और उल्लंघनकर्ताओं को केवल जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाता है।
भारत में लिंगानुपात की स्थिति
देश की जनगणना के आंकड़ों पर नज़र डाले तो भारत का लिंग अनुपात धीरे-धीरे बेहतर हुआ है। 1991 में प्रति 1000 लड़कों पर 927 लड़कियां थी जो 2011 में बढ़कर 943 हो गया। एक आदर्श लिंग अनुपात में प्रति 1000 लड़कों पर 960 या 970 लड़कियों का होना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि कानून को किसी भी कीमत पर कमजोर नहीं किया जा सकता है। लिंगानुपात की स्थिति में कठोर कानून की वजह से सुधान को आंकड़े के आधार पर नकारा नहीं जा सकता है।
यह अधिनियम भारत में घटते लिंग अनुपात को नियंत्रित करने के लिए लाया गया था। आंकड़े दिखाते है कि इसमें कुछ प्रगति भी हुई है। भारत के अलावा, दक्षिण कोरिया, चीन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और वियतनाम में भी लिंग चयन अवैध है। यूनाइटेड किंगडम में लिंग-आधारित अबॉर्शन पर प्रतिबंध है, जिसमें कुछ दुर्लभ अपवाद हैं। दुनिया में बहुत से देशों में लिंग चयन वैध है। इन देशों में गर्भावस्था के दौरान बच्चे के लिंग के बारे में जानकारी माता-पिता से साझा कर दी जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, मेक्सिको, इटली, थाईलैंड जैसे देशों में बच्चे के लिंग के बारे में जानकारी गर्भावस्था के दौरान बता दी जाती है।
दुनिया के अलग-अलग देशों में लिंग निर्धारण की जानकारी देने के अलग-अलग प्रावधान है। भारत में चिकित्सीय जटिलताओं के साथ इस विषय पर सामाजिक स्थिति के बारे में सोचना भी बहुत ज़रूरी है। आज भी इस देश में लड़की के जन्म को लेकर पूर्वाग्रहों से महिला भ्रूण हत्या को नहीं रोका जा सकता है। भले ही जन्मपूर्व लिंग निर्धारण को अपराध माना गया हो। भारतीय ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज में ऐसे परीक्षण को वैध बनाना अजन्मी लड़की और माँ दोनों के जीवन को और खतरे में डाल सकता है। राष्ट्रीय निरीक्षण और निगरानी समिति की रिपोर्टों से पता चला है कि कई महिलाएं जब लड़कियों को गर्भ में धारण करती हैं, तो उन्हें उनके परिवारों द्वारा छोड़ दिया जाता है। अन्य माँएं, जो लड़कियों की उम्मीद कर रही होती हैं उनकी हत्या कर दी जाती है और उनके मृत्यु को दुर्घटनाओं के रूप में दर्शाया जाता है। तमाम तरह के कानून होने के बावजूद महिला हत्या, लिंग आधार पर हत्या, हिंसा आदि को नहीं रोका गया है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में लिंग निर्धारण की जानकारी को लेकर बहुत जटिलताएं है। सरकारी डेटा के अनुसार लिंगानुपात की स्थिति में सुधार नज़र आ रहा है लेकिन लैंगिक आधार पर होने वाला भेदभाव हमारे समाज की जड़ पूरी तरह से स्थापित है।