इतिहास रक्षासूत्र आंदोलन: उत्तराखंड में जंगलों को बचाने के लिए जब महिलाओं ने पेड़ों को बांधी राखी

रक्षासूत्र आंदोलन: उत्तराखंड में जंगलों को बचाने के लिए जब महिलाओं ने पेड़ों को बांधी राखी

उस समय रक्षासूत्र आंदोलन शुरू हुआ, जब 1,000 मीटर की ऊंचाई पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई शुरू हो गई थी। इससे पहाड़ों की हरियाली पर गंभीर असर पड़ा। उत्तरकाशी-टिहरी मार्ग के गढ़वाल पहाड़ों के चौरंगीखाल, हर्षिल, हरुनथा, अदला और मुखेम क्षेत्रों में इस कटाई का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। उत्तराखंड में साल 1944-1945 में महिलाओं ने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उन्हे रक्षासूत्र बांधे थे और उनकी रक्षा करी थी।

उत्तराखंड की भूमि प्रकृति संपदाओं से धनी है। वहीं मानव जीवन का एक सच यह है कि इस धरती का शोषण भी तेजी से हो रहा है। राज्य की नीतियां और इंसानी जीवन की बढ़ती ज़रूरतों से प्रकृति का दोहन तेजी से हो रहा है। प्रकति के बढ़ते दोहन पर रोक लगाने के लिए वन संरक्षण आंदोलन भी इस धरती पर होते आ रहे हैं। पहाड़ों के लोग हमेशा से ही प्रकृति के संरक्षण में अग्रणी रहे हैं। पहाड़ों में प्रकृति को बचाने के लिए लगातार आंदोलन हो रहे हैं। जंगलों के लगातार दोहन और स्थानीय लोगों को न्यूनतम मौलिक अधिकारों से वंचित रखने ने 1970 के दशक के अंत में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन उत्तराखंड में हुआ था।

चिपको आंदोलन के बाद, राज्य सरकार ने जंगलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया। 1993-96 के दौरान उत्तरकाशी-टिहरी में जंगलों के आसपास के व्यापक वन क्षेत्र को, जो गंगोत्री के पास 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, और चौरंगीखाल तथा रायला (लगभग 6,000-9,000 फीट की ऊंचाई पर) में सभी कानूनों को नजरअंदाज कर नष्ट कर दिया गया। जंगलों को काटने की सरकार की योजनाएं बन गईं।

यह आंदोलन साल 1994 में टिहरी के भिलंगना घाटी के खव्वाड़ा गाँव से शुरू हुआ था। इस आंदोलन का मुख्य कारण ऊंचाई के पेड़ों के कटान पर लगे प्रतिबंध के हट जाने के बाद वन विभाग द्वारा ढाई हजार पेड़ों में चिन्ह लगाकर उनके काटने की अनुमति देना था।

वन निगम ने जंगलों का योजनाबद्ध तरीके से दोहन किया। क्षेत्र के निवासियों की ईंधन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कस्बों और शहरों के पास लकड़ी के भंडार स्थापित किए गए। स्थानीय लोगों को दाह संस्कार के लिए भी इन भंडारों से लकड़ी मिलती थी। लेकिन निगम केवल पेड़ों की कटाई और बिक्री करने वाला एक व्यापारी बन गया था। इसको रोकने के लिए स्थानीय लोगों ने अपनी आवाज़ उठाई। एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए आंदोलन चलाए।

उस समय रक्षासूत्र आंदोलन शुरू हुआ, जब 1,000 मीटर की ऊंचाई पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई शुरू हो गई थी। इससे पहाड़ों की हरियाली पर गंभीर असर पड़ा। उत्तरकाशी-टिहरी मार्ग के गढ़वाल पहाड़ों के चौरंगीखाल, हर्षिल, हरुनथा, अदला और मुखेम क्षेत्रों में इस कटाई का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। उत्तराखंड में साल 1944-1945 में महिलाओं ने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उन्हे रक्षासूत्र बांधे थे और उनकी रक्षा करी थी। उत्तराखंड के पहाड़ों में यह परंपरा सी बन गई है कि जब भी सरकार अपने कर्तव्य को ईमानदारी से नहीं निभाती, तो उत्तराखंड के स्थानीय लोग अपने अधिकारों के साथ-साथ पर्यावरण के संगरक्षण का जिम्मा भी खुद उठा लेते हैं। ‘रक्षासूत्र आंदोलन’ भी पर्यावरण संगरक्षण का एक उदाहरण, जो टिहरी के खव्वाड़ा गाँव की महिलाओं के द्वारा शुरू किया गया था। 

रक्षासूत्र आंदोलन की शुरुआत

तस्वीर साभारः Uttarakhand Stories

ग्रामीणों ने पेड़ों के तनों के चारों ओर धागा यानी राखी बांधकर रक्षासूत्र आंदोलन की शुरुआत की। साथ ही उन्होंने पेड़ों की रक्षा की शपथ ली थी। गाँव वालों ने राज्य के वन अधिकारियों का विरोध किया और सरकार द्वारा पेड़ों की कटाई का कड़ा विरोध किया। यह आंदोलन साल 1994 में टिहरी के भिलंगना घाटी के खव्वाड़ा गाँव से शुरू हुआ था। इस आंदोलन का मुख्य कारण ऊंचाई के पेड़ों के कटान पर लगे प्रतिबंध के हट जाने के बाद वन विभाग द्वारा ढाई हजार पेड़ों में चिन्ह लगाकर उनके काटने की अनुमति देना था। इसके पहले की पेड़ों को काटा जाता, डालगाँव, खव्वाड़ा, भेटी, भीगुन, तिनगढ़ आदि गाँवों को सैकड़ों महिलाओं ने आंदोलन शुरु किया। रक्षा धागा बांधकर उनकी रक्षा की। इस आंदोलन का नारा था, “ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्‍लेश्यिर टीके रहेंगे, पेड़ कटेंगे पहाड़ टूटेंगे बिना मौत के लोग मरेंगे, जंगल बचेगा देश बचेगा गाँव-गाँव खुशहाल राहेंगा।” यह आंदोलन धीरे-धीरे आसपास के दूसरे इलाकों तक फैल गया। उत्तराखंड के अलावा हिमांचल, जम्मू कश्मीर आदि कई स्थानों पर लोगों ने पेड़ों को बचाने की मुहिम चलाई। अकेले उत्तराखंड में लगभग 12 लाख पेड़ों को कटने से बचाया गया। 

महिलाओं ने आगे बढ़कर लिया हिस्सा

पेड़ों की कटाई तेजी से रोकने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश भाई के नेतृत्व में महिलाएं आगे आईं। उत्तराखंड के रहने वाले पर्यावरणविद सुरेश भाई ने सबसे पहले इसका विरोध शुरू किया। उन्होंने ग्रामीण महिलाओं को एकत्र किया और जागरूक किया। इसके बाद गाँव महिलाओं ने रक्षासूत्र आंदोलन शुरू किया। सुरेश भाई किशोरावस्था में ही गांधी विचार से प्रभावित हो गए थे, उन्होंने ठान लिया था कि वे अपने जीवन को समाज की सेवा के लिए अर्पित कर देंगे। रक्षासूत्र आंदोलन के नेत्रत्व के बाद उन्होंने ‘नदी बचाओ आंदोलन’ का भी नेतृत्व किया था। 

रक्षासूत्र आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

तस्वीर साभारः Peasant Autonomy

उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में महिलाएं समाज का आधार है। वे परिवार के पोषण, जल, ईधन इकट्ठा करने से लेकर जंगलों के संरक्षण में बराबर हिस्सा लेती है। इसीलिए जब टिहरी के जंगलों का सवाल आया, तो महिलाओं ने इसे अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी समझ और आंदोलन में बढ-चढ़कर हिस्सा लिया। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में महिलाएं और वहाँ के लोग पूरी तरह से जंगलों पर ही निर्भर होते हैं। वे जंगलों को भगवान मानकर पूजते हैं। महिलाएं अपने गांवों में रक्षासूत्र बांधकर पेड़ों की रक्षा करती थीं और अन्य लोगों को भी इस अभियान से जोड़ने का कार्य करती थीं। गाँव में महिलाएं इस आंदोलन की प्रमुख प्रचारक बनी। उन्होंने गाँव की अन्य महिलाओं, पुरुष और बच्चों को पेड़ों के महत्व के बारे में बताया और उन्हें जागरूक किया और आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।  

पहाड़ी इलाकों में जल स्त्रोत, खाद्य पदार्थ और ईधन अकसर जंगल से ही आते हैं। जब पेड़ों का काटना शुरू हुआ तो इसका सीधा असर महिलाओं की दैनिक जीवनशैली पर पड़ा। इसीलिए महिलाओं ने ना केवल इस आंदोलन में भाग लिया बल्कि यह भी निर्धारित किया कि वे पेड़ों को कटने नहीं देंगी। उत्तराखंड के इतिहास में कई बार महिलाओं ने जंगलों के संरक्षण के लिए संघर्ष किया है, फिर चाहे वो चिपको आंदोलन हो या फिर रक्षासूत्र आंदोलन। कई महिलाएं तो कई दिनों तक पेड़ के पास डटी रहीं ताकि कोई कटाई ना हो सके। इस आंदोलन के दौरान महिलाओं में एक नए आत्मविश्वास ने जन्म लिया। जो महिलाएं केवल घर के काम तक ही सीमित रहती थी, अब वे भी सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर खुलकर बोलने लगी। 

1993-96 के दौरान उत्तरकाशी-टिहरी में जंगलों के आसपास के व्यापक वन क्षेत्र को, जो गंगोत्री के पास 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, और चौरंगीखाल तथा रायला (लगभग 6,000-9,000 फीट की ऊंचाई पर) में सभी कानूनों को नजरअंदाज कर नष्ट कर दिया गया।

पर्यावरणीय आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

रक्षासूत्र आंदोलन की सफलता के बाद इसकी चर्चा केवल उत्तराखंड में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में हुई। इस आंदोलन ने लोगों को यह समझने में मदद की थी कि पर्यावरण की रक्षा करना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर व्यक्ति का व्यक्तिगत और सामाजिक कर्तव्य है। महिलाओं की भागीदारी इस आंदोलन के सफलता का कारण बना। रक्षासूत्र आंदोलन से यह स्पष्ट हुआ कि महिलाओं की भागीदारी किसी भी आंदोलन के लिए कितनी आवश्यक हो सकती है। उत्तराखंड में अक्सर यह देखा गया है कि जब भी कोई पर्यावरणीय संकट आया है, महिलाओं ने उसे अपनी जिम्मेदारी समझ कर हमेशा उसके समाधान के लिए आगे आई हैं। महिलाओं ने केवल पर्यावरण के मुद्दों पर ही नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन, जल संसाधन प्रबंधन, और स्थायी कृषि जैसे मुद्दों पर भी अपनी सक्रियता दिखाई है। फिर चाहे वे, किंकरी देवी, गौरा देवी, तुलसी गौड़ या फिर मेधा पाटेकर ही क्यों ना हो। इन सभी महिलाओं ने पर्यावरण के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं और दे रही हैं। इस आंदोलन के जरिए समाज में यह संदेश भी गया कि महिलाएं अगर एकजुट हो जाए तो वे न केवल पर्यावरण को बचा सकती है, बल्कि समाज को एक नई दिशा देने में भी सक्षम होती है।


सोर्सः

  1. Manushi.in 
  2. The Tribune
  3. euttarakhand.com

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