28 साल की ज़ाहिदा कानपुर के एक अर्ध-ग्रामीण इलाक़े में रहती हैं। उनके परिवार में उनके सास-ससुर, पति और दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। ज़ाहिदा ने एमए किया है। उनके पति एक प्राइवेट कम्पनी में काम करते हैं। ज़ाहिदा चाहती थीं कि वह भी कोई जॉब करें, लेकिन दो छोटे बच्चों और घर की ज़िम्मेदारी की वजह से वह ऐसा नहीं कर सकीं। यह सिर्फ़ ज़ाहिदा ही नहीं, हज़ारों-लाखों औरतों के जीवन की सच्चाई है। घर, देखभाल, बच्चे इन सबकी वजह से उन्हें अपने सपनों, अपने करियर की कुर्बानी देनी पड़ती है। हाल ही आई अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है। इसमें 125 देशों के आंकड़ों को शामिल किया गया और पाया गया कि पूरी दुनिया की 708 मिलियन महिलाएं इस वजह से श्रम बल से बाहर हैं। भारत के सन्दर्भ में यहां की 53 प्रतिशत महिलाएं देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियों की वजह से श्रम बल से बाहर हैं। वहीं केवल 1.1 प्रतिशत पुरुष ऐसी ज़िम्मेदारियों की वजह से कार्य बल से बाहर हैं। इसमें यह सुझाव भी दिया गया है कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए भारत को देखभाल के क्षेत्र में निवेश करने की ज़रूरत है।
देखभाल संबंधी भूमिकाओं के बोझ तले औरतें
भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि किसी समाज की प्रगति मैं उस समाज में महिलाओं की प्रगति से आँकता हूं। उनकी यह बात आज तक सही मालूम पड़ती है और महिलाएं सही मायने में तभी तरक्की कर सकती हैं, जब वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हों। लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़े यही बता रहे हैं कि देश की आधे से अधिक महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी नहीं हैं, यानी वे कमोबेश आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं और इसकी एक बहुत बड़ी वजह उनका देखभाल संबंधी भूमिकाओं में लगा होना है। आम तौर पर जिन घरों में पुरुष इन भूमिकाओं का को निभाते हैं, या जिम्मेदारी बांटते हैं, ऐसा तब करते हैं जब घर में कोई महिला सदस्य न हो।
शायद यही वजह है कि किसी की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ने की नौबत उनके सामने शायद ही कभी आती है। बात चाहे मायके की हो या ससुराल की, हर जगह इस तरह की ज़िम्मेदारियां महिलाओं पर ही डाल दी जाती है। ऐसे में कई महिलाएं या तो अपनी नौकरी ही छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं या फिर घर और जॉब के दोहरे बोझ तले दब जाती हैं। देखभाल से जुड़ी भूमिकाएं किस तरह से महिलाओं को जॉब करने से या जॉब के बेहतर अवसरों से रोक रही हैं, इसे समझने के लिए फेमिनिज़्म ऑफ इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की।
पुणे की रहनेवाली 38 साल की सुप्रिया शादीशुदा हैं और ससुराल में रहती हैं। उनके तीन बच्चे हैं। सबसे छोटी बेटी आठ साल की है। कभी जॉब करने का मन होता है या नहीं यह पूछे जाने पर वे कहती हैं, “मन तो होता है, लेकिन जब भी ऐसी कोई कोशिश की तो मैं घर और जॉब के बीच में फंस गई। घर में भी बच्चों की देखभाल, उन्हें होमवर्क कराने से लेकर खाना बनाने तक सारे काम मुझे ही करने पड़ते हैं। इतने सारे काम करने के बाद मेरे अंदर ऊर्जा ही नहीं बचती कि मैं जॉब, करियर वगैरह के बारे में सोच सकूं।” कुछ ऐसी ही कहानी कानपुर की 32 वर्षीय पूनम की भी है। उनका एक सात वर्षीय बेटा है। शादी के बाद उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने कहा, “बाहर काम करने के अच्छे ऑफर मिलते हैं, लेकिन इसी कशमकश में रहती हूं कि बेटे की पैरेंटिंग ठीक से हो सकेगी या नहीं। कुछ समय बाद वो किशोरावस्था में कदम रखेगा और यही बनने और बिगड़ने की उम्र होती है। मैं पूरे परिवार के समेत किसी ऐसे शहर जाकर रहने का सोचती हूं जहां नौकरी के बेहतर अवसर हों। लेकिन ससुराल का कोई सदस्य मेरी इस बात को सपोर्ट नहीं करता। कभी-कभी तो लगता है कि मेरी खुद की कोई पहचान ही नहीं रह गई है।”
क्या हो सकता है समाधान
सदियों से देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियां महिलाएं ही वहन करती रही हैं। बहुत समय तक तो पितृसता ने उनके पांवों में ऐसी बेड़ियां डाल दी थीं कि वे इन भूमिकाओं के परे अपनी किसी पहचान के बारे में सोच ही नहीं पाती थीं। साथ ही पुराने समय में महिलाओं को शिक्षित करने का रिवाज भी कम था। धीरे-धीरे समय बदला, कई समाज सुधारकों ने महिलाओं की शिक्षा पर ज़ोर दिया। अब समय थोड़ा बदला है। अब महिलाएं शिक्षित हैं और जॉब मार्केट के लिए उतनी ही तैयार हैं, जितने कि पुरुष। लेकिन फिर भी सामाजिक संरचना की वजह से अभी भी उनकी राह में कई रोड़े हैं। अगर देखा जाए तो यह कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान नहीं ढूंढा जा सके। आधुनिक समय में एकल परिवार बढ़े हैं, ऐसे में बच्चों की देखभाल एक चुनौती है। अगर ऐसी बालवाड़ी वगैरह हों, जो सुरक्षित हों और जहां बेफ़िक्र होकर बच्चों को छोड़ा जा सके तो शायद बच्चों की देखभाल के लिए महिलाओं को अपनी नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी।
मन तो होता है, लेकिन जब भी ऐसी कोई कोशिश की तो मैं घर और जॉब के बीच में फंस गई। घर में भी बच्चों की देखभाल, उन्हें होमवर्क कराने से लेकर खाना बनाने तक सारे काम मुझे ही करने पड़ते हैं। इतने सारे काम करने के बाद मेरे अंदर ऊर्जा ही नहीं बचती कि मैं जॉब, करियर वगैरह के बारे में सोच सकूं।
अभी के समय में कुछ कंपनियों ने भी इस दिशा में सोचना शुरू किया है और वे ऑफिस में ही क्रेच की व्यवस्था करती हैं। ऐसे में छोटे बच्चों वाली महिलाएं भी श्रम बल में भागीदारी कर पाती हैं। ये तो बात हुई छोटे बच्चों की देखभाल की, अब बात करते हैं घर के बुजुर्गों की देखभाल की। इसकी ज़िम्मेदारी भी अक्सर महिलाओं की ही होती है। फ़िलहाल वृद्धावस्था आश्रमों को काफ़ी नकारात्मक ढंग से देखा जाता है और एक खास वर्ग ही इसका इस्तेमाल कर पा रहा है क्योंकि अच्छे वृद्धावस्था आश्रम काफ़ी खर्चीले हैं। अगर कम लागत वाले वृद्धावस्था आश्रम उपलब्ध हों, जहां बुज़ुर्ग अपने जैसे और लोगों के साथ रह सकें, तो शायद इससे महिलाओं को इस ज़िम्मेदारी के वहन से कुछ राहत मिल सकेगी और वे भी श्रम बल में भागीदारी कर सकेंगी।
मैं पूरे परिवार के समेत किसी ऐसे शहर जाकर रहने का सोचती हूं जहां नौकरी के बेहतर अवसर हों। लेकिन ससुराल का कोई सदस्य मेरी इस बात को सपोर्ट नहीं करता। कभी-कभी तो लगता है कि मेरी खुद की कोई पहचान ही नहीं रह गई है।
इसके अलावा एक अहम पहलू यह भी है कि एक समाज के तौर पर हमारी मानसिकता में बदलाव आए। कई बार घर में अन्य सदस्य होने के बावजूद भी वे देखभाल से जुड़ी हुई ज़िम्मेदारियों को बांटते नहीं हैं, जिससे किसी एक व्यक्ति को ही इसका बोझ उठाना पड़ता है। जब लोगों की मानसिकता में यह बदलाव आएगा कि देखभाल महिलाओं की ही ज़िम्मेदारी नहीं है और वे बच्चों की या बुज़ुर्गों की देखभाल में हाथ बटाएंगे तब शायद घर के पुरुष सदस्यों की तरह ही महिलाएँ भी अपनी मर्ज़ी की जॉब चुनकर श्रम बल में भागीदारी कर सकेंगी। यह स्पष्ट है कि देखभाल संबंधी जिम्मेदारियां महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता और कार्यबल में भागीदारी के रास्ते में एक बड़ी बाधा बनकर खड़ी हैं। समाधान की राह में कई उपाय दिखाई देते हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है समाज की मानसिकता में बदलाव, ताकि देखभाल की जिम्मेदारियों को केवल महिलाओं पर थोपने के बजाय समान रूप से साझा किया जा सके।
इसके साथ ही, सरकार और कंपनियों को भी महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत और संरचनात्मक बदलाव करने होंगे। इनमें सुरक्षित और सुलभ बालवाड़ी और वृद्धावस्था आश्रम जैसी सुविधाओं का विस्तार करना, कार्यस्थलों पर क्रेच की व्यवस्था बढ़ाना, और कार्य-जीवन संतुलन को बढ़ावा देने वाले कार्य मॉडल को अपनाना शामिल हैं। यदि इन प्रयासों को मिलकर आगे बढ़ाया जाए, तो समाज न केवल महिलाओं की प्रगति का साक्षी बनेगा, बल्कि एक संतुलित और सशक्त श्रम बल का निर्माण भी कर सकेगा। जैसे-जैसे देखभाल का भार साझेदारों और परिवार के अन्य सदस्यों के बीच बंटेगा, वैसे-वैसे महिलाओं को अपने करियर और सपनों की ओर कदम बढ़ाने की राह भी अधिक स्पष्ट और सशक्त मिलेगी।