इंटरसेक्शनलजेंडर घर हो या ऑफिस ‘इमोशनल लेबर’ का भार केवल महिलाओं पर ही क्यों?

घर हो या ऑफिस ‘इमोशनल लेबर’ का भार केवल महिलाओं पर ही क्यों?

वह मानसिक और भावनात्मक काम जो किसी व्यक्ति की काम या व्यक्तिगत जीवन में दूसरे लोगों की भावनात्मक ज़रूरतों को पूरा करने या उनको ध्यान में रखकर करना पड़ता है। इसमें अपनी भावनाओं को कंट्रोल करना पड़ता है, दूसरों की भावनाओं का ख्याल पहले रखना पड़ता है।

क्या कभी किसी ने आपसे कहा है कि भले ही आप कितने ही बुरे दिन से गुजर रहे हो लेकिन आपको मुस्कुराते हुए काम करना चाहिए? क्या कभी आपको अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर आगे काम पर बढ़ने के लिए कहा गया है? क्या आपको अपने आसपास के लोगों को अधिक आरामदायक महसूस कराने के लिए अधिक काम करना पड़ा है? अगर हां, तो ये भावनात्मक श्रम के उदाहरण है। वह अवैतनिक काम जो महिलाएं और हाशिये का समुदाय के लोग लगभग रोज अपने आसपास के लोगों के लिए करते हैं। 

ख़ासतौर पर महिलाओं पर दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखने का सबसे ज्यादा भार डाला जाता है। पितृसत्तात्मक नीतियों के अनुसार दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखना एक स्त्री का गुण है। पांरपरिक लैंगिक भूमिका के कारण महिलाओं के श्रम का एक बड़ा हिस्सा भावनात्मक श्रम का होता है। इसकी एक वजह यह है कि समाज महिलाओं को ज्यादा देखभाल करने वाली, दूसरों का ख्याल रखने वाली भूमिकाओं में देखता है। भावनाओं के आधार पर अक्सर उन्हें काम करने को कहा जाता है लेकिन किसी और का। इस तरह से भावनात्मक श्रम यानी इमोशनल लेबर का अधिक भार महिलाओं पर है।

अमेरिकी समाजशास्त्री आर्ली होशचाइल्ड ने 1983 में अपनी किताब “द मैनेज हार्ट” में भावनात्मक श्रम का ज़िक्र किया। उनके अनुसार इसका मतलब यह है कि पूंजीवादी समाज में भावनाओं का एक बाजार है। जिसका विनिमय मूल्य होता है।

इमोशनल लेबर क्या है?

वह मानसिक और भावनात्मक काम जो किसी व्यक्ति की काम या व्यक्तिगत जीवन में दूसरे लोगों की भावनात्मक ज़रूरतों को पूरा करने या उनको ध्यान में रखकर करना पड़ता है। इसमें अपनी भावनाओं को कंट्रोल करना पड़ता है, दूसरों की भावनाओं का ख्याल पहले रखना पड़ता है। ख़ास तरीके व्यवहार करना पड़ता है जिससे रिश्तों और सामाजिक संबंधों में बेहतर संवाद बना रहे। यानी दूसरों को खुश करने के लिए अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान न रखते हुए अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके औरों की अपेक्षाओं को पूरा करने या पेशेवर लक्ष्यों को हासिल करने की इस प्रक्रिया को “इमोशनल लेबर” कहा जाता है। 

इमोशनल लेबर की अवधारणा के बारे में सबसे पहली बार अमेरिकी समाजशास्त्री आर्ली होशचाइल्ड ने 1983 में अपनी किताब “द मैनेज हार्ट” में ज़िक्र किया था। उनके अनुसार इसका मतलब यह है कि पूंजीवादी समाज में भावनाओं का एक बाजार है।जिसका विनिमय मूल्य होता है। लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी भावनाओं को सामाजिक मानदंडो के तहत नियंत्रित करें। व्यापार को सुचारू तरीके से चलाने के लिए अपनी भावनाओं का प्रबंधन इस तरह से करें कि उन्हें वेतन हासिल हो। उन्होंने इस तरह के श्रम को ‘इमोशनल मैनेजमेंट’ भी कहा है। उनके अनुसार किसी नौकरी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कुछ भावनाओं को प्रदर्शित करना है जो व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए है। होशचाइल्ड ने कार्यस्थल पर इमोशनल लेबर के बारे में विस्तार से कहा है।

भावनात्मक श्रम को कभी भी एक लैंगिक शब्द के रूप में नहीं देखा गया था। लेकिन अदृश्य अवैतनिक श्रम के रूप में इसे हमेशा महिलाओं का श्रम के तौर पर देखा गया है। ऑफिस में चाय बनाना या उसका प्रबंधन करना, पार्टी के आयोजन, गिफ्ट की जिम्मेदारियां भी उन्हें सौपी जाती हैं। आयोजन में अतिथि स्वागत और लोगों का ख्याल रखने का काम भी महिलाओं को असमान रूप से करना पड़ता है। साथ ही उन्हें उन अवांछित कामों को करने के दौरान अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया को भी जाहिर नहीं करना होता है। लैंगिक रूढ़ियों के कारण अक्सर ये माना जाता है कि महिलाएं अधिक सहानुभूतिपूर्ण या पोषण करने वाली होती हैं। घरों में सबका ख्याल रखने के लिए महिलाएं होती हैं। उनका किया काम एक जिम्मेदारी होती है न कि कोई श्रम। वे चाय की व्यवस्था करती है, बनाती हैं या ऑफिस का ‘पार्टी’ आयोजित करती हैं और साथ ही यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि वे इसे खुशी-खुशी कर रही हैं। हमें यहां यह ध्यान रखना होगा कि इस खुशी को उनके भीतर एक व्यवस्था के तहत ही स्थापित किया गया है।

भावनात्मक श्रम को कभी भी एक लैंगिक शब्द के रूप में नहीं देखा गया था। लेकिन अदृश्य अवैतनिक श्रम के रूप में इसे हमेशा महिलाओं का श्रम के तौर पर देखा गया है।

महिलाओं पर अधिक भावनात्मक श्रम का भार

दुनिया के भूगोल में तमाम विभिन्नता है, अलग-अलग समाज और संस्कृति है। सभी संस्कृति में एक समानता है कि वह पितृसत्ता के तहत महिलाओं को दोयम दर्जे के तहत रखती है। उन पर अदृश्य तरीके से भावनात्मक रूप से सबके लिए उपलब्ध होने का दबाव डालती है। इस कारण अक्सर वे यह डर महसूस करती हैं कि उन्हें “कठोर” न समझा जाए। इस वजह से वे उन अदृश्य और अवैतनिक कामों को करने के लिए अधिक तैयार हो जाती हैं जो दूसरी ज़िम्मेदारियों से उनका ध्यान भटका देती हैं। वे अक्सर सोच लेती हैं कि अगर मैं यह नहीं करूंगी, तो कोई और महिला यह कर लेगी। इस तरह से वे अपने असंतोष या असुविधा को छुपाने के लिए मजबूर होती हैं। हमेशा मुस्कुराते रहना चाहिए, किसी के काम को मना नहीं करना चाहिए, अपने घर-परिवार का सबसे पहले ख्याल रखना चाहिए, कैसी भी स्थिति हो तुम्हें कभी शिकायत नहीं करनी है। तुम, मेरी खातिर ये काम कर दो। ये वाक्य अक्सर महिलाओं को अपने रोजमर्रा के जीवन में सुनने को मिलते हैं। या यूं कहे कि महिलाओं को ट्रेनिंग के तहत इस तरह के व्यवहार को सिखाया जाता है। 

घरों की कल्पना में इमोशनल लेबर

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

हमारे घरों की कल्पना में स्त्री का श्रम सबसे पहले आता है। उन्हें घर बनाने, संवारने वाली कहा जाता है। लैंगिक भूमिकाओं के कारण उन्हें अक्सर घर के दैनिक संचालन, बच्चों की देखभाल और अन्य छोटी-छोटी संगठनात्मक कामों की जिम्मेदारी उठाती हैं। इन भूमिकाओं को निभाते समय, महिलाएं अक्सर यह बात अपने अंदर बैठा लेती है सबका ध्यान रखना उनकी जिम्मेदारी है और यह इतना कठिन नहीं होना चाहिए। उन्हें कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए। गुस्सा, थकान और निराशा महसूस नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार, वे किसी भी असंतोष को दबा देती हैं।

इतना ही नहीं प्यार के रिश्तों, पारिवारिक कार्यक्रमों, त्योहारों के मौसम के दौरान यह उनपर सबसे अधिक बढ़ जाता है। पति का ख्याल रखना, उसके बोझ को अपना बोझ समझना और उसको हल करना एक पत्नी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मानी जाती है। विशेष रूप से बच्चों के लिए और सभी को आरामदायक और खुशहाल महसूस कराने का भार भी महिलाओं पर पड़ता है, यहां तक कि सबसे लैंगिक समानता वाले घरों में भी। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में महिलाएं रोज़ाना 4.1 घंटे बिना भुगतान वाले घरेलू और भावनात्मक श्रम में बिताती हैं, जबकि पुरुषों द्वारा किया गया बिना भुगतान वाला काम औसतन 1.7 घंटे होता है। दुनियाभर में महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले तीन गुना अधिक अवैतिनक कामों के भार तले हैं। यह असमानता पारिवारिक भावनात्मक जिम्मेदारियों में भी दिखती है, जहां महिलाएं रिश्तों को सुचारू रखने और घर के सदस्यों की भावनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने में ज्यादा मेहनत करती हैं।

वर्कप्लेस में इमोशनल लेबर और महिलाएं

तस्वीर साभारः BBC

दुनिया भर के कार्यस्थलों में ऐसा श्रम भी हो रहा है जो किसी भी नौकरी के विवरण में नहीं है। ख़ासबात यह है कि इस तरह के अधिकांश श्रम को महिलाएं कर रही है। वे उन करियर में अधिकतम है जो भारी मात्रा में भावनात्मक श्रम की मांग करते है। लेखिका और पत्रकार रोज हैकमैन अपनी किताब ‘इमोशनल लेबर’ में लिखती है, “यह वह काम है जो परिवारों और समुदायों को चलाता है। भावनात्मक श्रम का मतलब खुद को नियंत्रित करना है। इससे ग्राहकों, उपभोक्ताओं, यात्रियों और रोगियों पर असर डाला जा सके। यह एक कंपनी में सुरक्षा और संबंध, अर्थ और जुड़ाव का एहसास पैदा करता है।”

कार्यस्थल पर महिलाओं को भावनात्मक श्रम के लिए आसान विकल्प के तौर पर समझा जाता है। पहले तो वे उन करियर में अधिक हैं जो भारी मात्रा में भावनात्मक श्रम की मांग करते हैं। सभी कार्यस्थलों में कुछ न कुछ भावनात्मक श्रम होता है जिसमें महिलाओं को आगे रखा जाता है। कार्यस्थल पर लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण महिलाएं, पुरुषों की तुलना में चाय बनाने या बच्चों के बारे में पूछे जाने की संभावना दो गुना अधिक रहती है। यूके में हुए सैमसंग नेटवर्क के एक शोध के मुताबिक़ लगभग आधे 46 फीसदी कर्मचारी काम पर लैंगिक पूर्वाग्रहित शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। इस शोध से पता चलता है कि कार्यस्थल में लैंगिक पूर्वाग्रहित भाषा और रूढ़ियां व्यापक रूप से फैली हुई है। 

कार्यस्थल पर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे पुरुषों की तुलना में कार्यक्रमों के आयोजन संबंधी वैसे काम भी देखें। इस तरह के अतिरिक्त ‘भावनात्मक काम’ को ‘काम’ के रूप में माना ही नहीं जाता है। इस तरह के काम को महिलाओं की स्वाभाविक विशेषताओं का एक रूप माना जाता है, जो न केवल उन्हें पसंद होता है। इस तरह का श्रम उन पर शारीरिक और मानसिक दबाव तो डालता ही साथ वे उनकी कार्य प्रगति को भी बाधित करता है। अगर वे इस तरह के काम को मना करती है तो वह उनके प्रमोशन और करियर में आगे बढ़ने में रूकावट बन सकता है। इस तरह की रूकावट उनकी आर्थिक प्रगति को भी रोकती है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में महिलाएं रोज़ाना 4.1 घंटे बिना भुगतान वाले घरेलू और भावनात्मक श्रम में बिताती हैं, जबकि पुरुषों द्वारा किया गया बिना भुगतान वाला काम औसतन 1.7 घंटे होता है। दुनियाभर में महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले तीन गुना अधिक अवैतिनक कामों के भार तले हैं।

घर हो या ऑफिस हर जगह भावनात्मक श्रम का भार महिलाओं के ऊपर है। बहुत सी महिलाओं के लिए यह पितृसत्तात्मक समाज में जीवित रहने का एक तरीका है, जिनमें उनके पास बहुत अधिक विकल्प नहीं है। अदृश्य व्यवस्था के तहत चलने वाले इस भावनात्मक श्रम के विभाजन को हमे समझना होगा। हमेशा मुस्कुराहट के साथ मौजूद रहना ख़ास तौर पर महिलाओं का यह ज़रूरी नहीं है। लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए हमें इस अवधारणा को समझना और इस पर चर्चा करना ज़रूरी है। घरों में स्थापित भावनात्मक श्रम को बदलना सबसे पहले ज़रूरी है क्योंकि निजी बदलाव के बाद ही हम सामूहिक और नीतिगत बदलाव को सुचारू रूप से आगे बढ़ा सकते हैं। 

सोर्सः 

  1. BBC
  2. World Economic Forum
  3. The Conversation

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content