संस्कृतिसिनेमा आत्महत्या से होती मौत, जीवन संघर्ष और उम्मीद का संदेश देती फिल्म ‘नॉट टुडे’

आत्महत्या से होती मौत, जीवन संघर्ष और उम्मीद का संदेश देती फिल्म ‘नॉट टुडे’

आत्महत्या से होती मौतें एक ऐसा मुद्दा है, वो जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय देखकर नहीं होती। आज दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं एक महामारी का रूप ले चुकी है। लेकिन इसके बावजूद, इसपर बातचीत करना हम न तो जानते हैं, न ही चुनते हैं।

ट्रिगर वार्निंग: इस समीक्षा में आत्महत्या से होती मौत पर चर्चा की गई है।

सूइसाइड प्रीवेन्शन सेंटर में नौकरी का पहला दिन, किसी व्यक्ति के आत्महत्या से मौत को रोकने की कोशिश करती एक 24 साल की लड़की का नौकरी पर पहला दिन और दो लोगों के बीच बातचीत का सिलसिला। बेहद कम पात्रों और बिना तामझाम के साथ निर्देशक आदित्य कृपलानी की फिल्म नॉट टुडे आत्महत्या जैसे गंभीर और संवेदनशील विषय को गहराई से छूती है। फिल्म न केवल आत्महत्या से मौत होते लोगों की मानसिकता को समझने की कोशिश करती है, बल्कि उसपर खुलकर बातचीत शुरू करने का एक जरिया भी बनती है। आत्महत्या से होती मौतें एक ऐसा मुद्दा है, वो जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय देखकर नहीं होती। आज दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं एक महामारी का रूप ले चुकी है। लेकिन इसके बावजूद, इसपर बातचीत करना हम न तो जानते हैं, न ही चुनते हैं। ये शायद इसलिए भी है क्योंकि न तो ये आसान है और न ही आम जनता को ये अंदाजा है कि ऐसी स्थिति हो तो बातचीत कैसे कर सकते हैं।

निर्देशक कृपलानी ने निराशा और मौत पर जीवन की जीत की कहानी बताने के लिए दो दमदार किरदार, आलिया रूपवाला और अश्विन माथुर को दिखाया है। हालांकि कमर्शियल सिनेमा के चमक-धमक के आगे यह फिल्म धीमी गति से चलती है। दर्शकों के लिए एक ही वार्तालाप के माध्यम से कहानी को बुना जाना कहीं- कहीं बोझिल लग सकती है। लेकिन, फिल्म किसी तरह दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में कामयाब होती है, क्योंकि दोनों पात्रों अपने-अपने जीवन की पिछली कहानियों के माध्यम से जीवन के उतार-चढ़ाव बताते हैं। देखने वालों को तब ये एहसास होता है कि जीवन में सिर्फ सफलताएं नहीं हो सकती। जीवन का मतलब कुछ पाना और कभी कुछ खोना भी हो सकता है। इन संघर्ष की कहानियों के माध्यम से फिल्म जीवंत बनी रहती है। हर्ष छाया और रुचा इनामदार ने फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। 1 घंटे 32 मिनट की यह फिल्म यूट्यूब पर मुफ़्त में उपलब्ध है। आत्महत्या रोकथाम माह के अवसर पर रिलीज़ की गई नॉट टुडे का उद्देश्य उन लोगों को प्रोत्साहित करना है जो मदद के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

निर्देशक कृपलानी ने निराशा और मौत पर जीवन की जीत की कहानी बताने के लिए दो दमदार किरदार, आलिया रूपवाला और अश्विन माथुर को दिखाया है। हालांकि कमर्शियल सिनेमा के चमक-धमक के आगे यह फिल्म धीमी गति से चलती है।

फिल्म बताती है कि आप अकेले नहीं हैं

तस्वीर साभार: Indian Express

यह फिल्म आपको यह याद दिलाता है कि आप कभी अकेले नहीं हैं, और हमेशा कोई न कोई सुनने और मदद करने के लिए तैयार रहता है। चाहे सूइसाइड हेल्पलाइन के कहानी के माध्यम से ही सही, ये आत्महत्या से होती मौत के लिए लोगों को जागरूक और संवेदनशील करने का प्रयास करती एक बेहतरीन फिल्म है। सिनेमा का आम जनता तक पहुंच के बावजूद, आत्महत्या एक ऐसा विषय है जिसपर भारतीय व्यावसायिक सिनेमा ने बात नहीं करना या कठिन पहलुओं पर बात नहीं करना चुना है। आत्महत्या से होती मौत के निराशाजनक और परेशान करने वाले विषय के बारे में कम से कम पारंपरिक अर्थों में कुछ भी चमक-धमक वाला नहीं है जिसे कमर्शियल सिनेमा में रंग में रंगते हुए दिखा सकती है। वहीं आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, भारत में दुनिया में सबसे अधिक आत्महत्याओं से मौतें होती हैं। विद्यार्थियों की आत्महत्या से होती मौत जनसंख्या वृद्धि और किसानों की आत्महत्या से होती मौत सहित समग्र आत्महत्या प्रवृत्तियों को पार कर गई है। आत्महत्या से होती मौत भारत के सामने एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक और सामाजिक संकट बना हुआ है। ऐसे समय में नॉट टुडे जैसी फिल्में बनाया जाना काबिलेतारीफ़ है।

क्या है कहानी

फिल्म की कहानी मुंबई की 24 वर्षीय आलिया के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक पारंपरिक बोहरा परिवार की लड़की है, जो गुप्त रूप से आत्महत्या रोकथाम हेल्पलाइन में काम करना शुरू करती है। अपने पहले दिन ही उसे अश्विन नाम के व्यक्ति के साथ बातचीत करनी होती है, जहां वह हताश महसूस कर रहे होते हैं और छत पर खड़े होते हैं और अपनी जान देना चाहते हैं। हालांकि संस्था में आलिया को बताया जाता है कि निजी स्तर पर जाकर पर्सनल नंबर देकर मदद नहीं करनी है, लेकिन आलिया भावनात्मक महसूस करती है और अपने नंबर से बातचीत को जारी रखती है। इसके बाद आलिया हर वो कोशिश करती है ताकि आश्विन के साथ खुलकर बातचीत कर उन्हें ऐसा कोई कदम उठाने से रोका जा सके।

फिल्म में बाकी पूरा संवाद बहुत व्यक्तिगत हो जाता है। दो अजनबियों के बीच एक पेशेवर कॉल धीरे-धीरे एक बेहद व्यक्तिगत बातचीत में बदल जाती है, जहां दो मार्मिक व्यक्ति एक-दूसरे को आश्वस्त करने की कोशिश करते हैं। दोनों के बीच होने वाला गहन संवाद इस फिल्म की रीढ़ है। आलिया और अश्विन अपने जीवन के गहरे घाव साझा करते हुए एक-दूसरे को समझते और सहारा देते हैं। इस फिल्म की विशेषता यह है कि यह पूरी तरह से संवाद पर केंद्रित है, जहां आलिया और अश्विन के संवाद दर्शकों को गहराई से छूते हैं। दोनों अभिनेताओं ने अपने पात्रों को गहराई से निभाया है, जिससे फिल्म वास्तविक और प्रभावशाली बनती है।

यह फिल्म आपको यह याद दिलाता है कि आप कभी अकेले नहीं हैं, और हमेशा कोई न कोई सुनने और मदद करने के लिए तैयार रहता है। चाहे सूइसाइड हेल्पलाइन के कहानी के माध्यम से ही सही, ये आत्महत्या से होती मौत के लिए लोगों को जागरूक और संवेदनशील करने का प्रयास करती एक बेहतरीन फिल्म है।

आखिर क्यों बनाई गई ये मुश्किल फिल्म

तस्वीर साभार: Youtube

आदित्य कृपलानी ने संवेदनशीलता के साथ एक कठिन विषय को पर्दे पर उतारा है। उनकी निर्देशन शैली में एक अलग किस्म की सहजता है जो कहानी को बोझिल नहीं बनने देती। संवाद सटीक और मार्मिक हैं, जो किरदारों की मानसिक अवस्था को खूबसूरती से दिखाते हैं। निर्देशक ने जानबूझकर दो अलग-अलग समुदाय से दो अलग-अलग जेंडर के लोगों को चुना है ताकि विषय को समावेशी रखा जा सके। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर कहानी की गंभीरता को और अधिक गहराई प्रदान करता है। सिनेमेटोग्राफी साधारण लेकिन प्रभावी है, जो दर्शकों को पात्रों के व्यक्तिगत संघर्षों के करीब ले जाती है। यह फिल्म इस बात पर जोर देती है कि सही समय पर सहायता और सहानुभूति किसी की जिंदगी बचा सकती है। यह मानसिक स्वास्थ्य पर खुले संवाद की जरूरत को रेखांकित करती है। इंडियन एक्स्प्रेस के साथ एक साक्षात्कार में आदित्य कृपलानी कहते हैं कि भारतीय सिनेमा के 130 से ज़्यादा सालों में, ख़ास तौर पर हिंदी सिनेमा में, आत्महत्या से होती मौतों को गंभीरता से दिखाने वाली फ़िल्में बहुत कम हैं।

तस्वीर साभार: IMDB

अब समय आ गया है कि इस विषय पर ज़्यादा फ़िल्में बनें, ताकि जब कोई उदास महसूस करे, तो उसके पास देखने के लिए कुछ हो और वह भावनात्मक रूप से जुड़ सके। हालांकि फिल्म का संदेश मजबूत है, कहानी कुछ जगहों पर धीमी पड़ती है। इससे फिल्म की पकड़ थोड़ी कमजोर होती है। लेकिन, नॉट टुडे एक संवेदनशील और प्रासंगिक फिल्म है जो मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर चर्चा को बढ़ावा देती है। यह फिल्म उन लोगों के लिए एक उम्मीद की किरण हो सकती है जो खुद को अंधेरे में पाते हैं। आदित्य कृपलानी की यह कोशिश सराहनीय है। नॉट टुडे ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराहना प्राप्त की है, जिसमें इसे यूके एशियन फिल्म फेस्टिवल और ओटावा इंडियन फिल्म फेस्टिवल अवार्ड्स में विशेष मान्यता दी गई है। यह फिल्म उन लोगों के लिए जरूरी है जो मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या के होती मौतों के रोकथाम के महत्व को समझना चाहते हैं।

फिल्म की कहानी मुंबई की 24 वर्षीय आलिया के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक पारंपरिक बोहरा परिवार की लड़की है, जो गुप्त रूप से आत्महत्या रोकथाम हेल्पलाइन में काम करना शुरू करती है। अपने पहले दिन ही उसे अश्विन नाम के व्यक्ति के साथ बातचीत करनी होती है, जहां वह हताश महसूस कर रहे होते हैं और छत पर खड़े होते हैं और अपनी जान देना चाहते हैं।

यह संदेश देती है कि एक सच्चा संवाद कितना प्रभावी हो सकता है। ये फिल्म ये भी बताती है कि समय पर इंटरवेंशन जरूरी और मददगार साबित हो सकता है। कुल मिलाकर ये फिल्म सभी लोगों देखनी चाहिए बिना ये सोचे कि क्या इसमें चमीके पोशाक, गाने, रोमांस और मजेदार कहानी है या नहीं। असल में मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा और आत्महत्या से होती मौतें किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं बल्कि नागरिक समाज, परिवार और सभी लोगों की जिम्मेदारी है। ये समझना जरूरी है कि समस्या निजी हो सकती है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य समस्या राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक समस्या है जिसे हम सब मिलकर ही सुलझा सकते हैं।

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