भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक सोच गहराई तक जड़ें जमाए हुए है। जिसका नतीजा यह है कि लैंगिक भेदभाव ख़त्म करने की दिशा में की जा रही तमाम पहलों के बावजूद कोई उल्लेखनीय प्रगति दर्ज़ नहीं हो रही है। इस वजह से देश में महिला और पुरुषों के बीच सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों में व्यापक रूप से असमानता बनी हुई है। किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल करने के लिए महिलाओं को अतिरिक्त संघर्ष करना पड़ता है। नौकरी हो या बिजनेस सभी जगह इन्हें भेदभावपूर्ण रवैये का सामना करना पड़ता है। आंकड़ों से पता चलता है कि समान काम के लिए महिलाओं को पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है। इसके साथ ही अगर कोई महिला अपना खुद का बिजनेस करना चाहती है तो क्रेडिट तक उसकी पहुंच सीमित हो जाती है। जबकि अध्ययनों से पता चला है कि महिलाओं में ऋण वापसी की डिफॉल्ट दर पुरुषों की तुलना में कम पाई गई है। उसके बावजूद इन्हें ऋण देने के मामले में कम विश्वसनीय समझा जाता है जो कि समाज के दोहरे मानक को दिखाता है।
क्रेडिट तक पहुंच में लैंगिक भेदभाव
हमारे समाज में कर्तव्य और अधिकार का बंटवारा इस तरह से किया गया है कि परिवार की इज़्ज़त संभालने की ज़िम्मेदारी बेटी के हिस्से आती है, वहीं संपत्ति का वारिस बेटा माना जाता है। ऐसे में सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी संपत्ति पर पुरुषों ने कब्ज़ा जमाए रखा। यहां तक कि इसके लिए 2005 में उत्तराधिकार क़ानून बनाना पड़ा कि पैतृक संपत्ति पर बेटे और बेटियों की बराबर की हिस्सेदारी है। इसके बावजूद आज भी ऐसी महिलाओं की संख्या न के बराबर है जिन्हें विरासत में पैतृक संपत्ति पर बराबर की हिस्सेदारी मिली हो। इस वजह से महिलाओं के पास बंधक (कोलैटरल) रखने के लिए संपत्ति की कमी होती है। इस वजह से बैंक या दूसरे वित्तीय संस्थाओं से लोन लेने के लिए इनके पास क्रेडिट की कमी होती है। इसके साथ ही महिलाओं खास तौर पर ग्रामीण महिलाओं की गतिशीलता और सूचनाओं तक पहुंच कम होती है जिस वजह से लोन या किसी तरह की ऋण योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं मिल पाती। इस तरह महिलाओं के पास किसी भी तरह के ऋण लेने के लिए क्रेडिट की पहुंच सीमित हो जाती है।
क्या बताते हैं आंकड़ें
2020 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि क्रेडिट होने के बावजूद अगर भारतीय महिलाएं ऋण लेने जाती हैं तो उनके द्वारा जमा राशि का महज 27 फीसद क्रेडिट के रूप में मिलता है जबकि समान जमा राशि पर पुरुषों को 52 फीसद तक क्रेडिट दिया जाता है। इसे स्पष्ट पता चलता है कि बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान ऋण देने के मामले में महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाते हैं। 2022 की ही आईएफसी (IFC) की एक रिपोर्ट में देखा गया कि कोरोना काल जैसी विषम परिस्थितियों के दौरान भी 90% भारतीय महिला उद्यमियों ने किसी भी औपचारिक वित्तीय संस्थान से किसी भी तरह का ऋण नहीं लिया। यह इनके बेहतर वित्तीय प्रबंधन और दूरदर्शिता को दर्शाता है।
महिलाओं की ऋण डिफॉल्ट दर
इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली में प्रकाशित 2023 की एक रिपोर्ट बताती है कि महिला उधारकर्ताओं की डिफॉल्ट रेट पुरुषों की तुलना में लगभग 7.4 फीसद कम है। ऐसे ही आंकड़े विश्व बैंक के इसके पहले के अध्ययनों में भी पाए गए हैं। ट्रांस यूनियन सिबिल की 2022 की रिपोर्ट में भी महिला उधारकर्ताओं की डिफॉल्ट रेट जबकि पुरुषों के लिए यह 6.29 फीसद थी। इसी तरह वित्तीय वर्ष 2023 में गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) अनुपात में महिलाओं की डिफॉल्ट दर 1.9% थी जब कि पुरुषों के मामले में यह दर 2.5 फीसद थी। इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि ऋण वापस करने के मामले में महिला उधारकर्ता अधिक ज़िम्मेदारी दिखाती हैं।
कम डिफॉल्ट दर की वजह
महिलाओं द्वारा ऋण चुकाने के मामले में ज्यादा ईमानदारी और जवाबदेही पाई जाती है। महिलाएं अपने आर्थिक फैसले लेने में ज़्यादा सतर्कता बरती हैं और वह बेवजह का जोख़िम उठाना पसंद नहीं करती हैं। इसके साथ ही वह पैसे आने पर दूसरी जगह निवेश करने की बजाय सबसे पहले ऋण चुकाने को प्राथमिकता देती हैं जिसकी वजह से इनकी डिफॉल्ट दर कम होती है। इसके अलावा महिलाएं अक्सर कोई भी उद्योग शुरू करने से पहले उसका सही तरीके से आकलन करती हैं और सीमित क्रेडिट का भी सोच समझकर इस्तेमाल करती हैं। महिलाएं अधिक जोखिमपूर्ण व्यवसाय में पैसे लगाने से बचाती हैं और इनके छोटे और मध्यम आकर के लघु उद्योग अक्सर एक स्थिर आमदनी का स्रोत बनते हैं। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में स्वयं सहायता समूहों (SHGs) से लिए गए ऋण पर अक्सर महिलाओं के सामाजिक नेटवर्क और दबाव काफी असरदार होते हैं जो इन्हें ऋण चुकाने के लिए प्रेरित करते हैं। इस वजह से भी महिलाओं में डिफॉल्ट दर तुलनात्मक रूप से कम पाई जाती है।
महिलाओं के लिए क्रेडिट तक सीमित पहुंच के दुष्प्रभाव
ऋण चुकाने के मामले में महिलाओं की डिफॉल्ट दर कम होने के बावजूद लैंगिक भेदभाव की वजह से क्रेडिट तक उनकी पहुंच सीमित होती है। इसकी वजह से बहुत सारी महिलाएं अपना ख़ुद का व्यवसाय शुरू करने में कठिनाई महसूस करती हैं, जिसका सीधा असर उनकी आर्थिक क्षमता पर पड़ता है। इससे महिलाओं के फ़ैसले लेने की क्षमता प्रभावित होती है और उन्हें अपनी इच्छाओं, ज़रूरतों और खुशियों के लिए दूसरे पुरुष सदस्यों पर निर्भर होना पड़ता है जो इनकी आज़ादी को सीमित कर देता है। महिलाओं के लिए आर्थिक अवसरों की कमी से न सिर्फ़ महिला का व्यक्तिगत नुकसान होता है बल्कि उसके परिवार के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक रूप से असर डालता है। संयुक्त राष्ट्र के सतत समावेशी लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए भी आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद ज़रूरी है।
कैसे बढ़ सकता है महिलाओं की वित्तीय हिस्सेदारी
बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थाओं द्वारा क्रेडिट में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए सरकार को बहुआयामी कदम उठाने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो बैंक व दूसरे वित्तीय संस्थानों के कर्मचारियों को लैंगिक भेदभाव ख़त्म करने और महिला उद्यमियों को प्राथमिकता से ऋण देने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही समय-समय पर जागरुकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए, जिससे महिलाओं को आर्थिक अवसरों की जानकारी सहजता से उपलब्ध कराई जा सके। इसके अलावा मुद्रा योजना जैसी योजनाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जिससे महिला उद्यमियों को छोटे व्यवसाय के लिए आसान शर्तों पर ऋण की सुविधा दी जा सके। इसके लिए महिला स्वयं सहायता समूहों को सरकार द्वारा अलग से सुविधा भी दी जा सकती हैं जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को आसानी से ऋण उपलब्ध कराया जा सके। इनकी वित्तीय साक्षरता के लिए भी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अभियान चलाना भी एक उपाय हो सकता है।
भारत में लैंगिक भेदभाव ख़ुद अपने आप में एक बड़ी चुनौती है जो व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अलग-अलग समस्याओं को न सिर्फ़ जन्म देने का काम करती है बल्कि इन्हें बनाए रखने में भी योगदान देती है। महिलाओं की क्रेडिट में सीमित पहुंच इसकी महज एक बानगी है। अगर कम डिफॉल्ट दर के बावजूद महिलाओं की क्रेडिट तक पहुंच कम है तो इसके पीछे सिर्फ़ यह पितृसत्तात्मक सोच ज़िम्मेदार है, जो यह बताती है कि महिलाओं को घर और किचन तक सीमित रहना चाहिए। अगर संविधान में उल्लिखित समानता का अधिकार वास्तविक जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू हो जाए तो तो बहुत सारी समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी। इसके लिए व्यापक रूप से क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे जिससे न सिर्फ़ महिला अधिकारों कुछ सुनिश्चित किया जा सकेगा बल्कि देश के सभी नागरिकों को उनकी क्षमताओं के अनुसार समान रूप से विकास का मौका मिलेगा। इस तरह समाज के सभी वर्गों के सतत और समावेशी विकास से ही सही मायने में देश का विकास सुनिश्चित किया जा सकता है।
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