कुछ समय पहले मेरी अपने एक सहेली से फ़ोन पर बातचीत हो रही थी। वह एक ग़ैर सरकारी संस्था में नेतृत्व के पद पर है। हमारी बातचीत इस पर केन्द्रित थी कि किस तरह से सभी जगहों पर अभी भी नेतृत्व वाले पदों पर वंचित तबक़े के लोगों का होना व महिलाओं का होना कितना मुश्किल है। मैंने उससे यही कहा कि कोई जन्मजात तो नेतृत्व की क्षमताओं के साथ पैदा होता नहीं, अवसर मिलने पर इन्हें सीखा जा सकता है, फिर चाहे कोई किसी भी तबक़े से क्यों न हो। आज नौकरियों में पहले की अपेक्षा महिलाओं की संख्या बढ़ी है। श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2022-23 के दौरान श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी 37 प्रतिशत बढ़ गई, जबकि 2017-19 में यह 23.3 प्रतिशत थी।
लेकिन इसे महिलाओं के सशक्तिकरण से जोड़कर देखने से पहले हमारे लिए यह समझना ज़रूरी है कि कितनी महिलाएं नेतृत्व के पदों पर हैं। सच तो यह है कि अगर किसी तरह महिलाएं किसी प्रकार की कोई नौकरी हासिल भी कर लेती हैं तो नौकरियों में उन्हें छोटी-मोटी भूमिकाएँ ही दी जाती हैं। और अगर वंचित यानी आदिवासी, दलित और मुस्लिम महिलाओं के महत्त्वपूर्ण पदों तक पहुँचने की बात करें, तो उनकी संख्या तो और भी कम हो है। बहुत बार इसके पीछे की वजह उनमें नेतृत्व के गुणों का अभाव मान लिया जाता है, पर क्या सचमुच महत्त्वपूर्ण पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व न होने की वजह उनमें नेतृत्व की क्षमताओं का न होना है?
पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शादी और बच्चों के जन्म और उनके देखभाल जैसे कामों की वजह से करियर से ब्रेक अधिक लेना पड़ता है। उनमें से कुछ तो पारिवारिक वजहों से दोबारा नौकरी में लौट ही नहीं पाती हैं और अगर वे दोबारा नौकरी का निर्णय लेती भी हैं, तो घर और नौकरी दोनों को एक साथ संभालने के बोझ की वजह से नेतृत्व के पदों तक पहुँचना उनके लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है।
लिंक्डइन इकोनॉमिक ग्राफ के आंकड़ों के मुताबिक कॉर्पोरेट क्षेत्र में एंट्री लेवल और मिड लेवल के नेतृत्व के पदों पर तो फिर भी महिलाएं नज़र आ जाती हैं, लेकिन कॉर्पोरेट सीढ़ी के उच्च पायदानों पर उनकी संख्या तेज़ी से घटती जाती है। यह समस्या केवल भारत में ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर व्याप्त है। लिंक्डइन इकोनॉमिक ग्राफ़ के ही आंकड़े के मुताबिक़ पूरी दुनिया में नेतृत्व के पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी एक तिहाई से भी कम है। लीडरशिप के पदों पर महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के बारे में बैंगलोर की एक कॉर्पोरेट कम्पनी में करिक्यूलम डायरेक्टर के पद पर रह चुकी स्नेहा कहती हैं, “मैं कई ग़ैर सरकारी संस्थाओं में काम कर चुकी हूँ और मैंने देखा है कि सीनियर लीडरशिप वाले पदों पर महिलाओं का होना तो दूर की बात है, मिड लेवल वाली लीडरशिप की भूमिकाओं में भी वे नहीं नज़र आती हैं।”
नेतृत्व के पदों पर महिलाओं की कम संख्या की वजह
हमारा समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है। इसमें आमतौर पर घर का मुखिया किसी पुरुष को माना जाता है। यही नहीं घर और गृहस्थी से जुड़े हुए महत्त्वपूर्ण निर्णयों को लेने में आमतौर पर पुरुष ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। बहुत से घरों में तो इन निर्णयों को लेने से पहले घर की महिला सदस्यों की राय तक नहीं ली जाती है। केवल उन्हीं घरों में निर्णयकर्ता के तौर पर किसी महिला की स्वीकार्यता होती है, जहां कोई पुरुष सदस्य न हो। अगर कोई छोटी बच्ची बचपन से ही यह सब होते देखती है, तो उसके लिए अहम पदों पर पुरुषों को ही देखना बहुत सामान्य सी बात हो जाती है। वह इस व्यवस्था को चुनौती देने की स्थिति में तभी पहुँच पाती है, जब उसे एक वैकल्पिक व्यवस्था नज़र आए, यानी वह महिलाओं को महत्त्वपूर्ण पदों का निर्वहन करते देखे, न सिर्फ़ घरों में बल्कि समाज में भी।
इस तरह से इस विषमता की शुरुआत घर से ही हो जाती है। जब लड़कियां बड़ी हो जाती हैं, तो उनसे घर के कामों को करने की अपेक्षा की जाती है। इसकी वजह से भी उनके लिए अपनी नौकरी की अपेक्षाओं और घर के कामों के बीच संतुलन बैठाना मुश्किल हो जाता है, और यह भी एक वजह बनती है कि नियोक्ता उन्हें ऐसी भूमिकाएं देने से परहेज करते हैं क्योंकि ऐसे पदों में काम के लंबे घण्टे और यात्राएं भी शामिल होती हैं। नियोक्ता यह भी सोचते हैं कि विवाह होने की स्थिति में और गर्भधारण करने की वजह से महिलाएं नौकरी छोड़ देंगी, इस वजह से वे उन्हें नेतृत्व वाली किसी भूमिका पर रखने की बात तो दूर किसी सामान्य सी भूमिका पर रखने से भी परहेज करते हैं। कुल मिलाकर हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है जो पुरुषों को इन भूमिकाओं तक पहुंचने का अनुकूल माहौल प्रदान करती है, लेकिन किसी महिला के लिए चुनौतियां पैदा करती है।
मैं कई ग़ैर सरकारी संस्थाओं में काम कर चुकी हूँ और मैंने देखा है कि सीनियर लीडरशिप वाले पदों पर महिलाओं का होना तो दूर की बात है, मिड लेवल वाली लीडरशिप की भूमिकाओं में भी वे नहीं नज़र आती हैं।
इस बारे में लखनऊ की रहनेवाली प्राइवेट स्कूल की शिक्षिका स्वाती कहती हैं, “अगर कोई महिला किसी तरह से किसी लीडरशिप रोल तक पहुंच भी गई तो ऐसी संभावना बहुत होती है कि वह अलग-थलग महसूस करे क्योंकि आमतौर पर अपने समकक्ष पदों पर उसे पुरुष ही नज़र आते हैं। ऐसे में उसके लिए खुद को इन पदों पर बनाए रखना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।” महिलाएं नेतृत्व के पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाती हैं, इस बारे में चेन्नई की रहनेवाली महालक्ष्मी कहती हैं, “पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शादी और बच्चों के जन्म और उनके देखभाल जैसे कामों की वजह से करियर से ब्रेक अधिक लेना पड़ता है। उनमें से कुछ तो पारिवारिक वजहों से दोबारा नौकरी में लौट ही नहीं पाती हैं और अगर वे दोबारा नौकरी का निर्णय लेती भी हैं, तो घर और नौकरी दोनों को एक साथ संभालने के बोझ की वजह से नेतृत्व के पदों तक पहुंचना उनके लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है।”
महालक्ष्मी संस्थाओं की कार्यशैली को लेकर भी कुछ अहम मुद्दे उठाती हैं। उन्होंने कहा कि महिलाएं बेहतर ढंग से काम करते हुए अपने करियर में प्रगति कर सकें इस बारे में संस्थाएं भी ज़्यादा विचार नहीं करती हैं और ज़्यादा संसाधन नहीं खर्च करतीं। जैसे कि छोटे बच्चों वाली महिलाओं के लिए क्रेच, या महिलाएं बिना असुरक्षा की भावना के आसानी से ऑफिस आ और जा सकें इसके लिए कैब की व्यवस्था करना। इस वजह से भी महिलाओं के लिए लगातार नौकरी करते हुए अपने करियर में प्रगति करना मुश्किल हो जाता है।
कार्यस्थल पर ज़्यादा महिलाएं होने पर महिलाओं को ध्यान में रखते हुए ज़्यादा संवेदनशील निर्णय लिए जा सकेंगे। इससे कार्य स्थल सुरक्षित, लैंगिक रूप से संवेदनशील बनेगा और नौकरियों में ज़्यादा महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी।”
क्यों ज़रूरी है लीडरशिप में महिलाओं का होना
नेतृत्व वाले पदों तक महिलाओं के न पहुंच पाने से न सिर्फ़ उनकी नेतृत्व की क्षमताएं विकसित नहीं हो पातीं, बल्कि उनकी आय भी कम रह जाती है क्योंकि हमारे समाज में वेतन का निर्धारण लोगों के पदों के आधार पर किया जाता है और उच्च पदों वाले लोगों और निम्न पदों वाले लोगों के वेतन में ज़मीन आसमान का अन्तर होता है। लीडरशिप पर महिलाओं का होना क्यों ज़रूरी है इस बारे में स्नेहा कहती हैं, “हमें नेतृत्व वाली भूमिकाओं पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में विचार इसलिए करना चाहिए क्योंकि महिलाएं आधी आबादी हैं।”
इसी मुद्दे पर महालक्ष्मी कहती हैं, “कार्यस्थल पर ज़्यादा महिलाएं होने पर महिलाओं को ध्यान में रखते हुए ज़्यादा संवेदनशील निर्णय लिए जा सकेंगे। इससे कार्यस्थल सुरक्षित, लैंगिक रूप से संवेदनशील बनेगा और नौकरियों में ज़्यादा महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी।” नेतृत्व वाली भूमिकाओं पर महिलाओं का होने से अन्य महिलाओं को भी इन पदों तक पहुँचने की प्रेरणा मिल सकती है और इससे कार्यस्थल पर निष्पक्षता सुनिश्चित करने में, लैंगिक भेदभाव के बिना सबको अपने करियर में आगे बढ़ने के समान अवसर प्रदान करने में और एक समावेशी संस्कृति के निर्माण में मदद मिल सकती है। हमें उन कारणों की पहचान करनी होगी, जो महिलाओं की लीडरशिप की राह में बाधा बनते हैं और महिलाओं को एक ऐसा माहौल प्रदान करना होगा ताकि वे अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल करते हुए अपने करियर में प्रगति कर सकें।