हमारे यहां आमतौर पर जब कोई जैविक महिला पुरुषों के माने जाने वाले कपड़े पहनती है, छोटे बाल रखती है, रहन-सहन अपनाती है, तो उसे एक अलग कैटेगरी में रखा जाता है जिसे टॉमबॉय कहा जाता है। वहीं दूसरी तरफ जब जैविक पुरुष महिलाओं के माने जाने वाले कपड़े पहनते हैं, रहन-सहन अपनाते हैं तो उनका मजाक उड़ाया जाता है। उन्हें अपमानजनक शब्द कहे जाते हैं। जिस समाज में महिलाएं दोयम दर्ज़े की नागरिक मानी जाती हैं, वहां महिलाओं जैसा दिखना या व्यवहार करना मज़ाक का पात्र बनाता है। जेंडर बाइनरी के तहत स्त्री और पुरुष के दो खांचों में बंटा समाज इससे अलग को असामान्य समझता है। ऐसे में तीसरे जेंडर या ट्रांसजेंडर समुदाय को हमेशा हाशिए पर रखा जाता है। इन्हें लोग मज़ाक या कौतूहल का विषय समझते हैं या फिर इन पर दया दिखाते हैं। ख़ासतौर पर ट्रांस महिलाओं को लेकर समाज में बहुत सारे पूर्वाग्रह और भ्रम फैले हुए हैं। इस वजह से इन्हें अनेक प्रकार की मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
ट्रांस महिलाओं में मानसिक सेहत की स्थिति
हाल ही में द हिंदू में प्रकाशित जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ इंडिया के रिसर्च में पाया गया कि भारत में ट्रांस महिलाओं को मानसिक सेहत से जुड़ी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सामाजिक रूप से किए जा रहे भेदभाव और और अलग-थलग कर दिए जाने की वजह से इनकी ज़िंदगी के विभिन्न क्षेत्रों में आने वाली मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अस्वीकृति और अपमान इन्हें अपनी पहचान छुपाने और कथित रूप से सामान्य दिखने के लिए मजबूर कर देता है, क्योंकि ये अक्सर अपनी पहचान की वज़ह से हिंसा, उत्पीड़न, मजाक और अपमान का सामना करते हैं। यह इन्हें डर के साये में जीने को मजबूर कर देता है। ऐसी स्थिति में ट्रांस महिलाओं तनाव, चिंता, डिप्रेशन का सामना करते हैं। यहां तक कि लंबे समय तक ऐसी स्थिति बनी रहने से इनमें आत्महत्या से मौत की आशंका भी कई गुना बढ़ जाती है।
ऑफिस में मुझसे सीधे तौर पर तो कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। लेकिन जब दोस्ती की बात आती है, तो लोग मुझसे सहज नहीं रहते जिसकी वजह से मुझे भी असहजता होती है। इसके अलावा लोग पार्टियों में भी मुझे शामिल करने से बचते हैं जबकि ऑफिस के बाकी लोगों के साथ ऐसा नहीं किया जाता।
संघर्षपूर्ण बचपन और सामाजिक बहिष्कार
ट्रांस महिलाओं के साथ भेदभाव परिवार के स्तर पर ही शुरू हो जाता है। जब एक ट्रांस बच्चे को पारंपरिक सामाजिक मानदंडों के अनुसार चलने पर मजबूर किया जाता है, तभी से उसका संघर्ष शुरू हो जाता है। पारंपरिक भारतीय परिवेश में घर में किसी लड़के का जन्म परिवार के लिए अतिरिक्त खुशियां ले आता है। ऐसे में बड़े होने के साथ अगर वे महिलाओं जैसी मानी जाने वाली आदतें, रहन-सहन या वेशभूषा के प्रति रुझान दिखाते हैं, तो आमतौर पर कोई इसे स्वीकार नहीं कर पाता। अलग-अलग तरीकों से इन्हें ‘ठीक करने’ की कोशिश की जाती है। इसके लिए अपने ही परिवार के लोग मानसिक उत्पीड़न के साथ ही कई बार शारीरिक हिंसा का भी सहारा लेते हैं। बहुत बार इन्हें बचपन में ही परिवार से अलग कर देते हैं या फिर जब ये अपनी पहचान के साथ जीना शुरु करते हैं उस समय उन्हें बेदखल कर दिया जाता है। इस तरह से आम तौर पर देश में एक ट्रांस महिला का बचपन सामान्य बच्चों से अलग और संघर्षों से भरा होता है, जिसका असर पूरी ज़िंदगी और इनके मन से नहीं जाता।
सामाजिक और आर्थिक समस्याएं
ट्रांस महिलाओं को सबसे पहले तो परिवार से बेदखली का डर होता है। अगर इन्हें घर में रखा भी गया और स्कूल में दाखिला कराया गया तब स्कूलों में उन्हें शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है। सहपाठी इनका मजाक उड़ाते हैं, ताने सुनाते हैं और शर्मिंदा करते हैं। लंच में या खेलकूद में भी इन्हें अपने साथ शामिल न करके अलग-अलग कर देते हैं। कई बार तो शारीरिक हिंसा भी की जाती है। इन सारी वजहों से इनकी पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित होती है। बहुत बार यह परेशान होकर पढ़ाई अधूरा छोड़ देने पर मजबूर हो जाते हैं। इस प्रकार पढ़ाई पूरी न होने से आगे चलकर इन्हें रोजगार के लिए भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इन सारी चुनौतियों का सामना करके अगर ट्रांस महिलाएं शिक्षित हो भी जाते हैं तो भी इनकी लैंगिक पहचान की वजह से इन्हें नौकरी मिलने में कठिनाई होती है।
इसके साथ ही लोग इन्हें शक़ की नज़र से देखते हैं इसलिए अपने घरों में भी काम करने के लिए नहीं रखते। मजबूरन इन्हें जीविका चलाने के लिए जैसे तैसे कोई भी काम करना पड़ जाता है। यह भीख मांगने से लेकर जबरन सेक्सवर्क तक कुछ भी हो सकता है। इस वजह से इनकी सुरक्षा, शारीरिक और मानसिक सेहत बिगड़ने का ख़तरा और भी ज़्यादा बढ़ जाता है। दिल्ली की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली ट्रांस वूमन मानसी (बदला हुआ नाम) ने इस बारे में अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “ऑफिस में मुझसे सीधे तौर पर तो कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। लेकिन जब दोस्ती की बात आती है, तो लोग मुझसे सहज नहीं रहते जिसकी वजह से मुझे भी असहजता होती है। इसके अलावा लोग पार्टियों में भी मुझे शामिल करने से बचते हैं जबकि ऑफिस के बाकी लोगों के साथ ऐसा नहीं किया जाता। घर से दूर रहते हुए मेरी छुट्टियां ज़्यादातर अकेले कमरे में ही गुज़रती हैं। इस तरह हमेशा मन में भारीपन सा महसूस होता है।”
मेरे काउंसलर ने काउंसलिंग के दौरान मुझसे असहज कर देने वाले ग़ैरज़रूरी सवाल पूछे। यह भी सुझाव दिया कि देश में लड़कों का जीवन ज़्यादा आसान होता है फिर मुझे लड़की क्यों बनना है? मैं इन्हें समझा नहीं पाई कि मैं भीतर से जो हूं उसी पहचान के साथ जीना चाहती हूं इसलिए मुझे सेक्स चेंज करवाना है।
स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव
दूसरे क्षेत्रों की तरह ट्रांस महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं को पाने के लिए भी अक्सर भेदभाव से गुज़रना पड़ता है। अब क्योंकि मेडिकल प्रोफेशनल्स भी इसी समाज का हिस्सा हैं जो नॉन बाइनरी समुदाय को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त है इसलिए उनकी भी सोच ज़्यादातर पारंपरिक रूढ़िवादी ही होती है। चाहे ये शारीरिक स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े हों या फिर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं से ट्रांसजेंडर्स के लिए इनमें संवेदनशील सोच की कमी दिखती है। ख़ास तौर पर जब कोई ट्रांसजेंडर सेक्स चेंज थेरेपी की प्रक्रिया से गुज़रता है तो उसे सही समय पर ज़रूरी काउंसलिंग भी नहीं मिल पाती। वहीं अगर जैविक पुरुष महिला बनने के लिए सेक्स चेंज करवाना चाहते हैं तो उनकी काउंसलिंग में इन्हें इस ख़याल को छोड़ देने के लिए एक तरीके से दबाव डाला जाता है।
इसी तरह किसी भी तरह की सेहत से जुड़ी समस्या होने पर जब ये इलाज के लिए अस्पताल जाते हैं तो इन्हें अजीब नज़रों से देखा जाता है और बेवजह के बेतुके सवाल भी पूछे जाते हैं। मुंबई की रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता राखी (बदला हुआ नाम) एक ट्रांस महिला हैं। इन्होंने सेक्स चेंज थेरेपी के दौरान का अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “मेरे काउंसलर ने काउंसलिंग के दौरान मुझसे असहज कर देने वाले ग़ैरज़रूरी सवाल पूछे। यह भी सुझाव दिया कि देश में लड़कों का जीवन ज़्यादा आसान होता है फिर मुझे लड़की क्यों बनना है? मैं इन्हें समझा नहीं पाई कि मैं भीतर से जो हूं उसी पहचान के साथ जीना चाहती हूं इसलिए मुझे सेक्स चेंज करवाना है।”
उचित समय पर नहीं मिल रहा है स्वास्थ्य सेवाएं
ट्रांस महिलाओं को मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं इतनी ज़्यादा होती हैं इसके बावजूद इन्हें सही समय पर उचित देखभाल और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं। सबसे पहले तो योग्य काउंसलर या थैरेपिस्ट तक पहुंच मुश्किल होती है, क्योंकि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। देश के हर कोने में ख़ास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे प्रोफेशनल उपलब्ध नहीं होते हैं। इसके बाद अगर शहरों में उपलब्ध भी होते हैं तो उनकी फीस इतनी ज़्यादा होती है जिसे दे पाना आम लोगों के लिए मुमकिन नहीं हो पता है। ऐसे में ट्रांस महिलाओं की मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं और बढ़ जाती हैं। ट्रांस महिलाओं की मानसिक स्थिति में सुधार लाने के लिए परिवार और समाज की ख़ास तौर पर अहम भूमिका है। सबसे पहले तो इन्हें परिवार में इन्हें इनकी पहचान के साथ स्वीकार करने की ज़रूरत है।
ट्रांसजेंडर और क्वीयर बच्चों के आत्मसम्मान और मानसिक सेहत के लिए स्कूलों को संवेदनशील बनाना ज़रूरी है। शिक्षकों के लिए विशेष ट्रेनिंग और बच्चों के लिए योग्य काउंसलर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। अन्य छात्रों को भी ट्रांसजेंडर साथियों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए ताकि भेदभाव और उत्पीड़न रोका जा सके। समाज में जागरूकता कार्यक्रम चलाने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की ज़रूरत है। 2019 में बने ट्रांसजेंडर अधिकार संरक्षण अधिनियम के बावजूद, ट्रांसजेंडर्स के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार में सुधार की आवश्यकता बनी हुई है। सरकार को नीतियों और क़ानूनों के माध्यम से ट्रांसजेंडर अधिकारों को सुनिश्चित करना होगा ताकि उनकी गरिमापूर्ण जीवन जीने की राह आसान हो। जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ाकर समावेशी समाज का निर्माण संभव है।